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संसद और सर्वोच्च न्यायालय

भारतीय लोकतान्त्रिक ढांचे में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और चुनाव आयोग…

11:15 AM Apr 20, 2025 IST | Aditya Chopra

भारतीय लोकतान्त्रिक ढांचे में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और चुनाव आयोग…

संसद और सर्वोच्च न्यायालय

भारतीय लोकतान्त्रिक ढांचे में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और चुनाव आयोग चार एेसे स्तम्भ हैं जिन पर पूरी व्यवस्था टिकी हुई है। इनमें से न्यायपालिका व चुनाव आयोग सरकार का हिस्सा नहीं हैं जबकि चुनी हुई विधायिका सरकार का गठन करती है और चुनाव आयोग चुने जाने के लिए हर पांच साल बाद स्वतन्त्र व निष्पक्ष चुनाव कराकर देश की सरकारों के गठन के लिए आधारभूमि तैयार करता है। चुनाव आयोग भारत के सभी राजनैतिक दलों का निगेहबान होता है। भारत की राजनैतिक प्रशासन प्रणाली की बागडोर आम जनता के हाथ में रहती है क्योंकि देश का आम मतदाता ही अपने एक वोट के अधिकार का इस्तेमाल करके विभिन्न राजनैतिक दलों को बहुमत के आधार पर सरकार बनाने का अवसर प्रदान करता है। अतः हम कह सकते हैं कि लोकतन्त्र में आम मतदाता सबसे ऊपर और स्वयंभू होता है। हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस प्रकार यह व्यवस्था की है वह अनूठी इस वजह से है क्योंकि देश में राजनैतिक दलों की सरकारों की जिम्मेदारी संविधान के अनुसार काम करने की ही है। संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका व चुनाव आयोग को सरकार का अंग इसीलिए नहीं बनाया जिससे राज्यों से लेकर केन्द्र तक में सरकारें केवल संविधान के अनुरूप ही कार्य करें जिसकी गारंटी स्वतन्त्र न्यायपालिका के माध्यम से उन्होंने तय की। न्यायपालिका को दी गई इस जिम्मेदारी को निभाने के लिए उन्होंने संविधान में यह व्यवस्था भी कर दी कि न्यायपालिका किसी भी मुद्दे पर पूर्ण न्याय कर सके। इसके लिए उन्होंने संविधान में बाकायदा अनुच्छेद भी बनाया।

आम जनता के लिए यह काफी है कि न्यायपालिका और चुनाव आयोग सीधे संविधान से ताकत लेकर ही अपना कार्य करते हैं और किसी भी राजनैतिक दल के शासन से निरपेक्ष रहते हुए लोकतन्त्र की पवित्रता व पारदर्शिता को बनाये रखते हैं। बेशक संसद लोगों द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों का समुच्य होती है मगर स्वतन्त्र भारत में एेसे भी मौके आये हैं जब न्यायपालिका व विधायिका के सम्बन्धों के बीच तनाव रहा है। पहली बार 70 के दशक में तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. श्रीमती इन्दिरा गांधी के दौर में यह देखने को मिला था। तब यह बहस छिड़ी थी कि संसद और सर्वोच्च न्यायालय में से कौन बड़ा है? 1974 में जब सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने केशवानन्द भारती के मुकदमे में यह फैसला दिया कि संसद संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन नहीं कर सकती तो बड़ा स्पष्ट था कि कोई भी सरकार सामान्य परिस्थितियों में नागरिकों के मूल अधिकारों से छेड़छाड़ नहीं कर सकती जबकि सरकार को संसद के माध्यम से नये कानून बनाने व पहले से लागू कानूनों में संशोधन करने का अधिकार था। इन्दिरा जी केशवानन्द भारती के मुकदमे के फैसले से सन्तुष्ट नहीं थी जिसकी वजह से उन्होंने एक बार यह भी कह दिया था कि न्यायपालिका को अपने निर्णय सरकारी नीतियों को देखते हुए करने चाहिए। निश्चित रूप से उनका यह मत न्यायपालिका को परोक्ष रूप से प्रभावित करने वाला था। मगर उनके इस मत का देश की जनता ने स्वागत नहीं किया। इसका कारण यही था कि न्यायपालिका का कर्त्तव्य हमारे संविधान में निर्दिष्ट है जो कहता है कि न्यायपालिका सभी आग्रहों व पूर्वाग्रहों से निस्पृह रहते हुए अपने फैसले देगी।

न्यायपालिका को इससे मतलब नहीं होता कि किस पार्टी की सरकार सत्तारूढ़ है। वह केवल संविधान के प्रति उत्तरदायी है। मगर भाजपा के एक बड़बोले लोकसभा सदस्य निशिकान्त दुबे फरमा रहे हैं कि अगर न्यायपालिका को ही कानून भी बनाना है तो संसद व विधानसभाओं पर ताला ठोक दिया जाना चाहिए। बिना किसी शक के संसद का काम कानून बनाना है मगर सर्वोच्च न्यायालय का काम संविधान के अनुसार पूरे देश में शासन देखने का है। इसी वजह से तो वह सरकार का अंग नहीं है। मगर राज्यपालों के बारे में विशेषतः तमिलनाडु के राज्यपाल श्री आर. एन. रवि की कारगुजारियों के बारे में तमिलनाडु की सरकार की याचिका पर फैसला देते हुए कहा कि श्री रवि वहां की विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर कुंडली मारकर नहीं बैठ सकते और उन्हें तीन महीने के भीतर यथापारित विधेयकों को सहमति देनी ही होगी क्योंकि विधानसभा जो भी विधेयक पारित करती है उसे जमीन के मतदाताओं की सहमति प्राप्त होती है। राज्यपाल को संविधान के तहत यह अधिकार प्राप्त है कि वह विधेयक को अपनी किसी आपत्ति के साथ वापस सरकार को भेज दें। मगर पुनः उसके यथास्वरूप में विधानसभा में पारित होने के बाद उन्हें अपनी सहमति देनी ही होगी और इसके बाद वह विधेयक को राष्ट्रपति की सहमति के लिए भी नहीं भेज सकते हैं। एेसा वह पहली बार उनके पास भेजे गये विधेयक को राष्ट्रपति की सहमति के लिए ही भेज सकते हैं। साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति से भी कहा कि वह भी तीन महीने के भीतर विधेयकों का निपटारा करें। मगर निशिकान्त दुबे तो सारी हदें तोड़कर तब आगे निकल गये जब उन्होंने कहा कि आज-कल देश में जो गृह युद्धों की परिस्थितियां बनी हुई हैं उनके पीछे देश के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति संजीव खन्ना हैं।

सर्व विदित है कि नये बने मुस्लिम वक्फ (संशोधन) कानून को लेकर कई राज्यों में मुस्लिम संगठन प्रदर्शन कर रहे हैं। प.बंगाल में तो इसे लेकर भारी हिंसा भी हुई जिसमें तीन लोग मारे गये। मगर असली सवाल यह है कि निशिकान्त दुबे की टिप्पणी से भारतीय जनता पार्टी ने अपने को पूरी तरह अलग कर लिया और पार्टी अध्यक्ष श्री जेपी नड्डा ने कहा कि एेसे विचार दुबे के अपने विचार हो सकते हैं। उनकी पार्टी का इससे कुछ लेना-देना नहीं है। स्वतन्त्र भारत में यह पहला मौका है जब किसी संसद सदस्य ने देश के मुख्य न्यायाधीश के बारे में एेसा बयान दिया हो। हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत के राष्ट्रपति को चुने जाने पर सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही शपथ दिलाते हैं और मुख्य न्यायाधीश को अपने पद की शपथ राष्ट्रपति ही दिलाते हैं। राष्ट्रपति को यह भी अधिकार होता है कि वह किसी भी पेचीदा मामले में सर्वोच्च न्यायालय की राय मांगे। एेसी व्यवस्था हमारे पुरखे ही बना कर गये हैं। निशिकान्त दुबे को कोई भी बयान देने से पहले यह सोचना चाहिए था कि भारत की जनता के दिलों में सर्वोच्च न्यायालय की प्रतिष्ठा क्या है? भारत के लोग मानते हैं कि देश की सबसे ऊंची अदालत किसी भी प्रकार के सन्देह से ऊफर है। निशिकान्त ने एेसा ऊल-जलूल बयान देकर जहां अपनी प्रतिष्ठा गिराई है वहीं अपनी पार्टी का भी नुकसान किया है क्योंकि भाजपा देश की राजनैतिक प्रणाली की सबसे बड़ी पार्टी है जो संविधान के प्रति निष्ठावान रहते हुए ही इस मुकाम पर पहुंची है कि आज देश की बागडोर इसके नेता प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी के हाथ में है।

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