संसद का गतिरोध समाप्त
भारत की संसद जब बोलती है तो पूरा देश ही नहीं बल्कि पूरा विश्व सुनता है अतः इसमें जब सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच गतिरोध उत्पन्न हो जाता है तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र की आवाज गूंगी हो जाती है…
भारत की संसद जब बोलती है तो पूरा देश ही नहीं बल्कि पूरा विश्व सुनता है अतः इसमें जब सत्ता पक्ष व विपक्ष के बीच गतिरोध उत्पन्न हो जाता है तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र की आवाज गूंगी हो जाती है। मगर हमें ध्यान रखना चाहिए कि संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का होता है और इसे चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी सरकार में बैठे हुए सत्ता पक्ष की होती है। इसकी खास वजह यह है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का चुनाव देश की आम जनता ही करती है और अपने प्रतिनिधि चुन कर लोकतन्त्र की इस सबसे बड़ी पंचायत में भेजती है। सत्ता व विपक्ष के पालों में बैठे हुए प्रतिनिधि जनता के वोट से ही चुने जाते हैं। हमारे संसदीय लोकतन्त्र में प्रत्येक संसद सदस्य के अधिकार एक समान व बराबर होते हैं। मगर जो प्रतिनिधि सत्ता पक्ष मंे बैठते हैं उन पर सरकार चलाने की जिम्मेदारी आ जाती है और जो विपक्ष में बैठते हैं उन पर सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही तय करने की जिम्मेदारी आ जाती है। हमारे लोकतन्त्र की मूल आत्मा जवाबदेही है जो कि संसद के माध्यम से कारगर होती है, इसीलिए लोकसभा के पहले अध्यक्ष स्व. जी.वी. मावलंकर ने कहा था कि संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का होता है क्योंकि वह सरकार की अपने माध्यम से जनता के प्रति जवाबदेही तय करता है।
संसद के वर्तमान शीतकालीन सत्र में सत्ता व विपक्ष के बीच जो गतिरोध पैदा हुआ उसका मुख्य कारण यह था कि विपक्ष कुछ एेसे राष्ट्रीय मुद्दे उठाना चाहता था जिनका सम्बन्ध राष्ट्रीय एकता व अखंडता और आर्थिक नैतिकता से है। इस बारे में उसके द्वारा दिये गये विभिन्न नोटिसों का संज्ञान दोनों सदनों के पीठाधिपतियों ने नहीं लिया जिसकी वजह से दोनों ही सदनों में जिस दिन 25 नवम्बर से संसद शुरू हुई उसके बाद से एक सप्ताह तक कोई कामकाज नहीं हो सका। संसद के बारे मंे एक तथ्य स्पष्ट होना चाहिए कि इसकी कार्यवाही से सरकार का कोई लेना-देना नहीं होता और दोनों सदनों के अध्यक्ष स्वतन्त्र रूप से स्वायत्ततापूर्ण तरीके से इसकी कार्यवाही सत्ता पक्ष व विपक्ष को एक तराजू पर बराबर तोल कर चलाते हैं। अतः संसद को सुचारू व नियमबद्ध तरीके से चलाने की जिम्मेदारी से बंधे रहते हैं। संसद सरकार की सत्ता से निरपेक्ष रहते हुए दोनों पीठाधिपतियों के संरक्षण में चलती है। अतः गतिरोध को तोड़ने के लिए लोकसभा अध्यक्ष श्री ओम बिरला ने पहल की और दोनों पक्षों के बीच सहमति बनाई। इस सहमति के अनुसार 20 दिसम्बर तक चलने वाले संसद के इस सत्र में आगामी 13 व 14 दिसम्बर को लोकसभा में संविधान के मुद्दे पर चर्चा होगी और राज्यसभा में 16 व 17 दिसम्बर को इसी विषय पर बहस होगी।
संविधान पर बहस के वृहद विषय में विपक्ष द्वारा खड़े किये जा रहे सभी मुद्दे जैसे संभल मंे साम्प्रदायिक तनाव, पूंजीपति अडाणी पर अमेरिकी सरकार द्वारा रिश्वत देने के आरोप व मणिपुर की स्थिति आदि सभी विषय आ सकते हैं। अडाणी के मामले में भारत सरकार पहले ही स्पष्ट कर चुकी है कि इसका सरकार से कोई लेना-देना नहीं है और यह व्यक्तिगत मामला है। जहां तक संभल में साम्प्रदायिक तनाव का मामला है और वहां स्थित शाही जामा मस्जिद के कई सदियों पहले मन्दिर होने का सवाल है तो यह मामला सीधे संविधान से जाकर जुड़ता है क्योंकि 1991 मंे यही संसद यह कानून बना चुकी है कि 15 अगस्त 1947 की अर्ध रात्रि को भारत में जिस धर्म स्थान की स्थिति और चरित्र जैसा था वैसा ही भविष्य मंे रहेगा और इसमें किसी प्रकार का कोई फेरबदल नहीं किया जायेगा। जब 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने अयोध्या में राम जन्मभूमि मसले पर अपना निर्णय दिया था तो उसमें भी यह स्पष्ट कर दिया था कि केवल अयोध्या को छोड़ कर देश के अन्य किसी धर्म स्थान को विवादास्पद नहीं बनाया जा सकता है मगर पिछले दिनों काशी के विश्वनाथ धाम परिसर मंे अवस्थित ज्ञानवापी मस्जिद का मामला जब सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री डी.वाई. चन्द्रचूड़ ने सुनवाई करते हुए यह मौखिक टिप्पणी कर दी थी कि किसी धार्मिक स्थल के चरित्र के बारे में विवेचना की जा सकती है। इसी सिरे को पकड़ कर उत्तर प्रदेश के संभल नगर में स्थित जामा मस्जिद पर हिन्दू पक्ष ने पूर्व में 1528-29 से पहले इसके हरिमन्दिर होने का दावा ठोका जिसका स्थानीय अदालत ने संज्ञान लिया और मस्जिद परिसर का सर्वेक्षण कराये जाने का आदेश जारी कर दिया। यह आदेश दावा याचिका दायर किये जाने वाले दिन ही दे दिया गया और सर्वेक्षण दो किश्तों मंे दो दिन किया गया जिससे शहर में साम्प्रदायिक तनाव पैदा हुआ और इसमें चार नागरिकों की जान चली गई।
इसी प्रकार मणिपुर राज्य में पिछले कई महीनों से जातीय हिंसा रुकने का नाम ही नहीं ले रही है और मैतेई व कुकी जनजातियों के बीच लगातार हिंसा हो रही है जिसमें अभी तक बहुत लोगों की जानें जा चुकी हैं। ये सब मामले संवैधानिक व्यवस्था से ही जुड़े हुए हैं जिन्हें विपक्ष अलग-अलग उठाने की मांग कर रहा था। अतः संसद में संविधान पर बहस का विषय चुन लिया गया है। परन्तु लोकसभा अध्यक्ष की पहल पर गतिरोध समाप्त हुआ है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि सरकार की तरफ से एक संसदीय कार्यमन्त्री भी होते हैं परन्तु हमने पिछली लोकसभा में देखा था कि संसदीय कार्यमन्त्री गतिरोध पैदा हो जाने पर केवल एक पक्ष के ही प्रवक्ता की भूमिका निभाने लगते थे। इस बार लोकसभा अध्यक्ष ने निर्णायक पहल की और समस्या का हल सकारात्मक निकला। अब मंगलवार से संसद सुचारू ढंग से चलेगी, इसकी अपेक्षा की जा सकती है।