संविधान पर संसद में बहस और नागरिक
संसद में आजकल संविधान पर चर्चा चल रही है जिसमें सत्ता पक्ष व विपक्ष के नेता…
संसद में आजकल संविधान पर चर्चा चल रही है जिसमें सत्ता पक्ष व विपक्ष के नेता इस बात पर जोर दे रहे हैं कि देश संवैधानिक व्यवस्थाओं से ही चलेगा और इसमें जो कुछ भी लिखा हुआ है उनका अक्षरशः पालन करता हुआ चलेगा। हमारे संविधान का मूल मन्त्र है नागरिकों की बराबरी। इसमें न उनका धर्म आड़े आता है औऱ न जाति– बिरादरी। परन्तु समाज में हमें इसी आधार पर बंटवारा नजर आता है अतः यह बहुत जरूरी है कि नई पीढि़यों को शुरू से ही यह बताया जाये कि न तो उनकी जाति ऊंची– नीची है और न धर्म अच्छा या बुरा है ।
सबकी हैसियत एक समान है। इस सन्दर्भ में अगर हम भारत के वर्तमान राजनीतिक वातावरण का जायजा लें तो राजनीतिक दल भी बंटे हुए नजर आते हैं। संविधान के अनुसार इन राजनीतिक दलों के हाथ में ही चुनावों के बाद सत्ता आती है और ये शासन की बागडोर संभालते हैं अतः सबसे पहले राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के लिए ही संविधान पर पाठशालाओं का आयोजन किया जाना चाहिए क्योंकि आम लोगों को जाति–बिरादरी व मजहब में ये राजनीतिक दल ही बांटते हैं। लोकतन्त्र में राजनीतिक नेतृत्व के बहुत मायने होते हैं क्योंकि संविधान को जमीन पर उतारने में ये दल ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
परन्तु इससे भी ज्यादा जरूरी होता है कि देश के नागरिकों को संविधान के बारे में समुचित ज्ञान हो। संविधान निश्चित रूप से पवित्र पुस्तक होती है परन्तु यह केवल शोभा की वस्तु नहीं होती है कि इसे सजा कर रखा जाये। आम लोगों को जितनी ज्यादा संविधान की जानकारी दी जायेगी भारत उतना ही ज्यादा संवैधानिक राष्ट्र बनेगा। इसकी मुख्य वजह यह है कि भारत के पांच हजार साल पुराने इतिहास में संविधान एसी एकमात्र पुस्तक है जो मनुष्य– मनुष्य के बीच भेदभाव नहीं करती है। इसकी नजर में हर नागरिक सबसे पहले एक मनुष्य होता है और हर मनुष्य बराबर होता है।
संविधान प्रत्येक नागरिक को बराबर के अधिकार देता है। इस मामले मंे प्रत्येक वयस्क नागरिक को मिला एक वोट का अधिकार सबसे बङा और क्रान्तिकारी अधिकार है। इसकी महत्ता भारत जैसे गरीब देश के सन्दर्भ में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि किसी उद्योगपति के एक वोट की कीमत भी वही है जो किसी गरीब मजदूर के वोट की। भारत ने स्वतन्त्र होते ही यह फैसला जब लिया तो पूरी दुनिया के आधुनिक कहे जाने वाले देश भी चकरा गये थे और सोचने लगे थे कि आजाद भारत किस मुकाम पर पहुंचेगा? इसकी वजह यह थी कि भारत बहुत गरीब होने के साथ-साथ अनपढ़ देश भी था। साक्षरता 1947 में केवल 15 प्रतिशत के करीब थी। 90 प्रतिशत से अधिक लोग खेती पर निर्भर थे। उद्योगों के नाम पर केवल कुछ बङे पूंजीपति टाटा, बिड़ला या डालमिया थे। संविधान ने एेसे लोगों को मौलिक अधिकारों से नवाजा था और सत्ता के समक्ष अपने इन अधिकारों के बूते पर सिर उठा कर चलने की इजाजत दी थी। जबकि इसके उलट आधुनिक कहे जाने वाले यूरोपीय देशों व अमेरिका में नागरिक अधिकारों के नाम पर बहुत अधिक भेदभाव नस्ल को लेकर था।
अमेरिका में काले या अश्वेत लोगों को वोट का अधिकार 1964 में ही मिला था। अतः 1949 में जब भारत का संविधान लिख कर पूरा हुआ तो दुनिया चौक गई थी कि किस प्रकार भारत अपनी गाड़ी खींच सकेगा। परन्तु तब भारत को पं. जवाहर लाल नेहरू जैसा व्यक्तित्व नेतृत्व दे रहा था और नेहरू की प्रथम वरीयता यह थी कि अधिकाधिक लोग खेती से निकल कर उद्योगों में आजीविका पायें। यह काम आसान नहीं था अतः नेहरू जी ने सार्वजनिक या सरकारी क्षेत्र में बड़े-बड़े उद्योग लगाये और भारत में औद्योगीकरण का दौर शुरू किया। इसका असर चौतरफा होना ही था जो हुआ । इसके साथ शिक्षण संस्थानों व स्वास्थ्य संस्थानों का खुलना शुरू हुआ और भारत मंे साक्षरता की दर बढ़ने लगी व लोगों की आय मे सुधार आना शुरू हुआ। लोग शिक्षित होने लगे और उनमें अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा होने लगी। परन्तु नेहरू जी ने लोगों की वैज्ञानिक सोच पर भी बराबर का ध्यान दिया और सरे आम कहा कि भारत विज्ञान का प्रयोग लोगों की गरीबी दूर करने के लिए करेगा।
संविधान में यह कथन बहुत सोच–समझ कर बाबा साहेब अम्बेडकर ने दर्ज किया था कि देश की सरकारें लोगों में वैज्ञानिक सोच पैदा करने के लिए निरन्तर प्रयास करेंगी। इसकी वजह यह थी कि भारत के लोग बहुत रूिढ़वादी व अंध विश्वासों से ग्रस्त थे। वे अशिक्षित तो थे ही साथ ही उनका ध्यान पुराने रीति–रिवाजों को ढोने में ही रहता था। इस तरफ सबसे पहले ध्यान बाबा साहेब अम्बेडकर ने ही दिया था और भारत से अश्पृश्यता समाप्त करने के लिए अंग्रेजी राज के दौरान लम्बा संघर्ष किया था। अम्बेडकर मानते थे कि जो धर्म आदमी-आदमी के बीच जन्मगत अन्तर मानता है वह मानवता के सिद्धान्त को ताक पर रख कर अपनी रूढि़यों से मनुष्य को जकड़े रहना चाहता है। इस मामले मंे महात्मा गांधी ने उनका साथ दिया था और दलितों के साथ हो रहे अन्याय को समाप्त करने के लिए जन अभियान छेड़ दिया था।
परन्तु महात्मा गांधी ने 1930 के लगभग ही यह स्पष्ट कर दिया था कि स्वतन्त्र भारत मे छुआछूत के लिए कोई स्थान नहीं होगा और सड़क पर झाड़ू लगाने वाले नागरिक के भी वे ही अधिकार होंगे जो किसी उद्योग चलाने वाले पूंजीपति के होंगे। गांधी का समाजवाद यही था जो बाद में संविधान में शामिल किया गया। मगर इसके साथ ही महात्मा गांधी ने 1932 में बाबा साहेब को यह आश्वासन दे दिया था कि स्वतन्त्र भारत में दलितों को राजनीतिक आरक्षण दिया जायेगा और उन्हें सरकारी नौकरियों में भी यह सुविधा मिलेगी। अतः संविधान में इन दोनों उपायों को रखा गया हांलाकि भारत का संविधान महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद ही लिख कर पूरा हुआ था।
अतः वर्तमान सन्दर्भों में संविधान पर संसद में चल रही बहस का मन्तव्य केवल संविधान-संविधान रटना नहीं हो सकता है बल्कि इसके स्थायी भाव को जमीन पर उतारना ही हो सकता है। इसका स्थायी भाव इसकी प्रस्तावना में पूरी तरह स्पष्ट है जो कि राजनीतिक, सामाजिक व आर्थिक न्याय व आपसी बन्धुता और सभी को न्याय व बराबरी का दर्जा है। संविधान समाज में प्रेम व भाई चारा चाहता है और सभी नागरिकों को एक समान समझते हुए उन्हें न्याय का अधिकार दिलाते हुए आर्थिक समता की बात करता है। संसद का कर्तव्य बनता है कि वह इन बातों पर गौर करें और देखें कि किस क्षेत्र मे हम पिछड़ रहे हैं। भारत को संविधान नागरिकों का देश (गणराज्य) मानता है। अतःदेश की मजबूती के लिए जरूरी है कि इसके नागरिक मजबूत बनें और अपने अधिकारों व कर्तव्यों के प्रति सजग बनें। संसद की चर्चा केवल कांग्रेस व भाजपा या सत्ता दल बनाम विपक्ष को ही समर्पित नहीं होनी चाहिए कि बल्कि नागरिकों को समर्पित होनी चाहिए। क्योंकि ये भारत के लोग ही हैं जिन्होंने 26जनवरी 1950 को संविधान अपने ऊपर लागू होने की घोषणा की थी। संविधान और लोगों के बीच सीधा रिश्ता है।