टॉप न्यूज़भारतविश्वराज्यबिजनस
खेल | क्रिकेटअन्य खेल
बॉलीवुड केसरीराशिफलSarkari Yojanaहेल्थ & लाइफस्टाइलtravelवाइरल न्यूजटेक & ऑटोगैजेटवास्तु शस्त्रएक्सपलाइनेर
Advertisement

असाधारण समय का संसद सत्र

कोरोना संक्रमण के ‘असाधारण’ समय में संसद का वर्षाकालीन सत्र ‘असाधारण’ तरीके से चल रहा है। संसद की बैठक बुलाये जाने का स्वागत इसलिए होना चाहिए

12:15 AM Sep 16, 2020 IST | Aditya Chopra

कोरोना संक्रमण के ‘असाधारण’ समय में संसद का वर्षाकालीन सत्र ‘असाधारण’ तरीके से चल रहा है। संसद की बैठक बुलाये जाने का स्वागत इसलिए होना चाहिए

कोरोना संक्रमण के ‘असाधारण’ समय में संसद का वर्षाकालीन सत्र ‘असाधारण’ तरीके से चल रहा है। संसद की बैठक बुलाये जाने का स्वागत इसलिए  होना चाहिए कि भारत का लोकतन्त्र असाधारण परिस्थितियों में भी मजबूती के साथ खड़ा हुआ है। संसद के सत्र को चलाये जाने को लेकर बेशक विपक्षी दल कुछ आलोचना कर रहे हैं और कुछ का यह मत भी रहा है कि अन्य देशों की संसद के मानिन्द भारत की संसद भी वर्चुअल उपस्थिति (वीडियो कान्फ्रेंसिंग) के जरिये चलायी जानी चाहिए थी मगर उनके तर्क में इसलिए दम नहीं है क्योंकि एेसा करना संसदीय परंपराओं और संवैधानिक बाध्यताओं के विरुद्ध होता। भारत के संविधान में संसद की स्पष्ट व्याख्या की गई है और इसके दोनों सदनों की पावनता व शुचिता के बारे में उल्लेख किया गया है। संसद की परिधि   से बाहर किसी भी सदन के सदस्य का बैठ कर इस कार्यवाही में भाग लेना इसी संवैधानिक पवित्रता को भंग करता।
Advertisement
 संसद एेसा पावन स्थान है जिसके दायरे में लोकसभा अध्यक्ष का शासन चलता है। सत्तारूढ़ सरकार के हुक्म से संसद नहीं बन्धी होती है बल्कि अध्यक्ष के विवेक और संविधानगत अधिकारों पर टिकी होती है। संसद के भीतर किसी भी सदस्य को जो विशेषाधिकार मिले हुए हैं उनकी सीमा भी इन्हीं सदनों के घेरे तक सीमित रहती है। वीडियो कान्फ्रेंसिंग के जरिये यदि कोई सांसद इस परिधि​ के घेरे से बाहर रह कर इसकी कार्यवाही में भाग लेता तो कई ऎसे पेचीदा संवैधानिक प्रश्न खड़े हो सकते थे जिनका उत्तर शायद हमें तुरन्त नहीं मिलता। अतः लोकसभा अध्यक्ष का यह फैसला कि वर्षाकालीन सत्र संसद परिसर के दायरे में ही होगा, दूरदृष्टि पूर्ण कहा जायेगा लेकिन इसके साथ विपक्ष के इन तर्कों में भी दम है कि संसद के इस छोटे से 18 दिन के सत्र में प्रश्नकाल को समाप्त नहीं किया जाना चाहिए था।
 पाठकों को याद होगा कि संसद में प्रश्नकाल को लेकर मैंने कुछ दिनों पहले ही पूरा स्तम्भ इस बाबत लिखा था। मूल मुद्दा यह है कि प्रश्नकाल सरकार से न जुड़ा होकर संसद के सदस्यों से जुड़ा होता है और इसमें सत्ता पक्ष व विपक्ष के सांसदों का फर्क नहीं रहता। किसी भी दल का सांसद सरकार से जन हित व राष्ट्रहित से जुड़ा कोई भी सवाल पूछ सकता है और उसका उत्तर सम्बन्धित मन्त्री को देना पड़ता है। इसी प्रकार शून्य काल को आधे समय अर्थात आधे घंटे का किये जाने पर भी विपक्ष की आपत्ति तर्कपूर्ण है क्योंकि इस समय के दौरान सांसद उन ज्वलन्त समस्याओं  के बारे में सरकार की जवाबदेही तय करते हैं जिनसे जनता दैनिक आधार पर जूझ रही होती है। यह संसदीय प्रणाली की खूबसूरती है कि जनता द्वारा बहुमत देकर बनाई गई सरकार को विपक्षी सांसद लगातार उसके दायित्व का बोध कराते रहते हैं और उसे वैकल्पिक दृष्टिकोण से परिचित कराते रहते हैं। लोकतन्त्र में मत भिन्नता पूरी व्यवस्था के लिए आक्सीजन का काम करती है क्योंकि मतभिन्नता का मतलब सरकार का विरोध नहीं होता बल्कि वैकल्पिक मत को प्रकट करके सरकार से स्पष्टीकरण मांगना होता है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि भारत की संसद की विश्व में इस कदर ऊंची प्रतिष्ठा है कि इसके द्वारा अपनाये गये नियम दुनिया के दूसरे बड़े लोकतान्त्रिक देशों में नजीर के तौर पर गिनाये जाते हैं। बेशक ब्रिटेन की संसद को  दुनिया की सभी संसदों की मां (मदर आफ आल पार्लियामेंट्स) कहा जाता है मगर भारत की संसद की प्रतिष्ठा सभी संसदों की अभिभावक (गार्जियन आफ आल पार्लियामेंट्स) से कम नहीं आंकी जाती। अतः कोरोना काल में हम जो अपनी संसदीय प्रणाली की परिपाठी तय कर रहे हैं वह दुनिया के लिए एक उदाहरण के रूप में देखी जायेगी। इस मामले में हमें न सिंगापुर की तरफ देखने की जरूरत है और आस्ट्रेलिया की बल्कि केवल भारत की संवैधानिक प्राथमिकताओं और मर्यादाओं की तरफ देखने की जरूरत है।
 प्रश्नकाल और शून्य काल के दौरान संसद में बेशक शोर- शराबा होता रहता है मगर यह कोलाहल इस बात का परिचायक होता है कि देश की सड़कों पर माहौल कैसा है। अतः हमें केवल आलोचना के लिए वीडियो कान्फ्रैंसिंग की मार्फत सांसदों की शिरकत के मुद्दे से ऊपर उठ कर सोचना चाहिए और गौर करना चाहिए कि संसद का सत्र जिस माहौल में चल रहा है उसमें भारत की सड़कों पर बिखरे वातावरण का अक्स उजागर हो। इस मामले में आज राज्यसभा में शून्यकाल के दौरान जो मुद्दे उठाये गये वे बताते हैं कि भारत की संसद किस तरह सड़कों से जुड़ी हुई है। तृणमूल कांग्रेस के नेता शान्तुनु सेन व द्रमुक के नेता त्रिची शिवा ने काेरोना महामारी से जुड़े ही मुद्दे उठा कर सरकार का ध्यान उन विषयों की तरफ आकृष्ट किया जो पूरे भारतीय जनमानस को गहरे तक छू रहे हैं और जिनका सम्बन्ध भारत की सामाजिक व आर्थिक परिस्थितियों से है। श्री सेन ने सरकार से मांग की कि कोरोना काल में सोशल डिस्टेंसिंग (सामाजिक दूरी) शब्द की जगह  ‘भौतिक दूरी’ शब्द का प्रयोग किया जाये क्योंकि सामाजिक दूरी का अर्थ नागरिकों के बीच भेदभाव करना होता है और जो व्यक्ति किसी कारणवश कोरोना से संक्रमित हो गया हो उसके प्रति उपेक्षा या तिरस्कार भाव पैदा करता है। सभापति वैंकेया नायडू ने इसे बहुत महत्वपूर्ण सुझाव माना और अपेक्षा की कि सरकार इस बारे में यथोचित निर्णय लेगी। इसी प्रकार श्री शिवा ने स्कूली विद्यार्थियों के बीच शहरी व ग्रामीण असमानता को प्रभावशाली ढंग से दर्शाते हुए पूछा कि सरकार के एक हजार दिन में इसे पाटने के वादे का क्या हुआ? क्योंकि सरकारी आंकड़ों के अनुसार ही भारत में केवल 50 प्रतिशत विद्यार्थी ही इंटरनेट सुविधा के जरिये डिजीटल प्रणाली से शिक्षा ग्रहण करने में सक्षम हैं और उत्तर प्रदेश व तमिलनाडु जैसे राज्यों में तो ऐसे छात्रों की संख्या 20 प्रतिशत तक ही है।  अतः इन दो प्रश्नों से ही हमें शून्यकाल की मह्त्ता का आभास हो जाना चाहिए लेकिन इसके बावजूद जो भी प्रणाली इन 18 दिनों में अपनाई जायेगी उनका उपयोग अधिकाधिक रूप से  भारत की वर्तमान स्थिति में बदलाव लाने के लिए होना चाहिए।  यह सवाल कुछ विशेषज्ञ उठा रहे हैं कि जब लोकसभा व राज्यसभा की बैठकें संसद परिसर के दोनों सदनों की स्थान क्षमताओं का लाभ उठाते हुए अलग-अलग पारियों में हो रही हैं तो किसी विधेयक पर मतदान की स्थिति में क्या प्रणाली अपनाई जायेगी।  इसकी चिन्ता हमें लोकसभा अध्यक्ष के विवेक पर छोड़ देनी चाहिए क्योंकि संसद का सत्र संसद की परिधि के भीतर ही हो रहा है। 
Advertisement
Next Article