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दल-बदल और लोकतन्त्र !

04:45 AM Aug 02, 2025 IST | Aditya Chopra
पंजाब केसरी के डायरेक्टर आदित्य नारायण चोपड़ा

भारत के लोकतन्त्र में दल-बदल एेसी लाइलाज बीमारी बन चुका है जिसकी वजह से राजनीतिक दलों की प्रतिष्ठा और विश्वसनीयता में लगातार गिरावट आयी है। इस बारे में देश के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणी बहुत सामयिक व महत्वपूर्ण है कि दल-बदल लोकतन्त्र के लिए खतरा है। दुनिया में कोई भी लोकतन्त्र वैचारिक स्वतन्त्रता के बिना नहीं चल सकता है। अपने वैचारिक सिद्धान्तों के लिए राजनीतिक दल पूरी तरह प्रतिबद्ध होते हैं और उन्हीं के आधार पर आम जनता के बीच जाकर उससे समर्थन मांगते हैं। जनता उन पर विश्वास करके ही राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों को चुनावों में हराती-जिताती है। मगर जब विजयी होकर ये प्रतिनिधि सत्ता के मोह में दल-बदल करते हैं तो जनता हैरान रह जाती है। दरअसल यह मामला राजनीति में सीधे अवसरवाद से जुड़ा होता है जिसमें वैचारिक प्रतिबद्धता दूसरे पायदान पर पहुंच जाती है। सत्ता के लिए विचारों को तिलांजलि दे देना ही अवसरवाद कहलाता है। भारत में इस बीमारी को रोकने के लिए स्व. राजीव गांधी के शासनकाल के दौरान 80 के दशक में एक कानून संसद ने बनाया जिसे दल-बदल विरोधी कानून कहा गया।
इस कानून के तहत किसी भी दल के सदस्य तभी किसी दूसरे दल में प्रवेश कर सकते थे जबकि वे अपने दल के कुल सदस्यों की संख्या के एक-तिहाई हों। मगर इस कानून के चलते भी छोटे-छोटे दलों से दूसरे दलों में पलायन नहीं रुका तो अटल बिहारी वाजपेयी के शासन के दौरान यह संख्या एक-तिहाई से बढ़ाकर दो-तिहाई कर दी गई। इससे दल-बदल करना थोड़ा मुश्किल तो हो गया मगर इसका तोड़ भी निकाल लिया गया। यह तोड़ 2000 के करीब गोवा राज्य से निकला जब दल बदलने को आतुर कुछ विधायकों का इस्तीफा दिलवा कर विधानसभा की कुल सदस्य शक्ति में कमी इस प्रकार कराई गई कि सत्ताधारी दल का बहुमत कम हुई सदस्य शक्ति के आधार पर बना रहे। इसके साथ ही दल-बदल कानून में यह प्रावधान किया गया कि अपना दल बदलने वाले सदस्यों की सदस्यता के बारे में अन्तिम निर्णय करने का अधिकार सदन के अध्यक्ष को ही होगा। यह प्रावधान संविधान की दसवीं अनुसूची में डाल दिया गया जिससे अध्यक्ष के इस अधिकार को न्यायालय में चुनौती न दी जा सके। मगर इसका तोड़ भी निकाल लिया गया और यह तोड़ अध्यक्ष को मिले असीमित अधिकार के तहत ही निकाला गया। कानून में यह कहीं उल्लेख नहीं है कि अध्यक्ष किस समय सीमा के भीतर दल-बदल करने वाले सदस्यों की सदस्यता का फैसला करेंगे। इसकी जिम्मेदारी अध्यक्ष पर ही छोड़ दी गई कि वह अपनी सुविधा के अनुसार इस बारे में दायर की गई याचिकाओं पर सुनवाई करें।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति बी.आर. गवई व ए.जी. मसीह की दो सदस्यीय पीठ ने तेलंगाना राज्य के दस भारतीय राष्ट्रीय समिति पार्टी के विधायकों के कांग्रेस में दल-बदल करके प्रवेश करने सम्बन्धी याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि यह काम भारत की संसद का है कि वह विचार करे कि इस मामले में चुने हुए सदनों के अध्यक्षों को जो अधिकार दिये गये हैं क्या वे दल-बदल को रोकने में सक्षम और उपयोगी हंै? यह स्थिति इसीलिए पैदा हुई है कि तेलंगाना के दस विधायकों ने अपनी पार्टी भारतीय राष्ट्र समिति से 2023 में राज्य में हुए विधानसभा चुनावों के बाद कांग्रेस में दल-बदल की घोषणा की थी। इसके खिलाफ भारतीय राष्ट्र समिति ने विधानसभा अध्यक्ष से प्रार्थना की कि इन सभी की सदस्यता रद्द की जाये। मगर अध्यक्ष महोदय ने सात महीने बीत जाने के बावजूद अभी तक सम्बन्धित विधायकों को नोटिस तक जारी नहीं किया। जबकि दल-बदल कानून में अध्यक्ष को अयोग्यता के बारे में निर्णय करने का अधिकार इसीलिए दिया गया था क्योंकि एेसी याचिकाओं के न्यायालय में दायर होने की वजह से बहुत समय लगता था। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने तेलंगाना के मामले में अध्यक्ष को निर्देश दिया है कि वह तीन महीने के भीतर मामले को निपटाने का प्रयास करें। विद्वान न्यायमूर्तियों ने संसद को भी आगाह किया है कि वह अध्यक्ष को मिले अधिकारों की समीक्षा करे और कारगर कदम उठाये। सर्वोच्च न्यायालय का यह कहना पूरी तरह उचित है क्योंकि पिछले तीस सालों में जिस तरह दल-बदल कानून का विभिन्न राज्यों में तोड़ निकाला गया है वह विस्मित करने वाला है। जब दल-बदल कानून नहीं था तो सत्तर के दशक तक राज्यों में सरकारों का भविष्य दल बदल पर टिका हुआ माना जाता था। साठ के दशक में 1967 के चुनावों के बाद निर्दलीय व कुछ अन्य पार्टियों के सदस्य भी सुबह से शाम के बीच ही दल-बदल लिया करते थे। इसका पहला उदाहरण 1956 में ओडिशा में देखने को मिला था जब तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री नवकृष्ण चौधरी की कांग्रेसी सरकार दैनन्दिन के आधार पर बहुमत खो और पा रही थी। इससे तंग आकर तब तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पार्टी के कद्दावर नेता स्व. डाॅ. हरेकृष्ण मेहताब से राज्य की राजनीति की बागडोर संभालने की विनती की थी। उस समय डाॅ. मेहताब मुम्बई के राज्यपाल थे। डाॅ. मेहताब ने मुख्यमन्त्री बनते ही दल-बदल का मुकाबला करने के लिए राज्य की एक क्षेत्रीय पार्टी के साथ सहयोग करने का प्रस्ताव रखकर अपनी सरकार बचाई थी। इसके बाद 1967 में जब देश के नौ राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकारों का गठन हुआ तो दल-बदल का बाजार बहुत गर्म हुआ था और हरियाणा में ‘आया राम-गया राम’ का मुहावरा चल निकला था। मगर पिछले तीस सालों में दल-बदल कानून के विद्यमान रहने के बावजूद दल बदल के नये-नये तरीके ईजाद किये गये और इसके सहारे नई-नई सरकारें तक गठित की गईं।

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