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भारत के पसमान्दा मुस्लिम

जब भारत में मुसलमानों की बात होती है तो पूरे सम्प्रदाय को इकसार शक्ल (होमोजीनियस) में दिखाने की कोशिश की जाती है और इस समुदाय की गहरी आर्थिक व सामाजिक विषमता को छिपाने का प्रयास इस्लामी धर्मोपदेशकों या मुल्ला-मौलवियों अथवा उलेमाओं द्वारा मजहब के नाम पर किया जाता है।

12:18 AM Oct 18, 2022 IST | Aditya Chopra

जब भारत में मुसलमानों की बात होती है तो पूरे सम्प्रदाय को इकसार शक्ल (होमोजीनियस) में दिखाने की कोशिश की जाती है और इस समुदाय की गहरी आर्थिक व सामाजिक विषमता को छिपाने का प्रयास इस्लामी धर्मोपदेशकों या मुल्ला-मौलवियों अथवा उलेमाओं द्वारा मजहब के नाम पर किया जाता है।

भारत के पसमान्दा मुस्लिम
जब भारत में मुसलमानों की बात होती है तो पूरे सम्प्रदाय को इकसार शक्ल (होमोजीनियस) में दिखाने की कोशिश की जाती है और इस समुदाय की गहरी आर्थिक व सामाजिक विषमता को छिपाने का प्रयास इस्लामी धर्मोपदेशकों या मुल्ला-मौलवियों अथवा उलेमाओं द्वारा मजहब के नाम पर किया जाता है। ऐ सा करके मजहबी उलेमा उस ऐतिहासिक हकीकत पर पर्दा डालना चाहते हैं जो हिन्दोस्तानी मुसलमानों का सामाजिक व आर्थिक सच है। सबसे बड़ी हकीकत यह है कि मुसलमानों के गरीब व आर्थिक विपन्नता में जीने वाले कर्मकारों जैसे जुलाहों से लेकर दस्तकार व काश्तकार, शिल्पकार आदि लोगों को इसी समाज के कुलीन अर्थात अशराफिया कहे जाने वाले लोगों को बहुत नीची नजर से देखा जाता है और इन्हें ‘कम- जात’ कहा जाता है। वास्तव में मुस्लिम समाज के 80 प्रतिशत से अधिक ये ही लोग ‘पसमान्दा’ मुस्लिम कहे जाते हैं। परन्तु सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह रहा है कि इन भारतीय मुसलमानों को अशराफिया वर्ग के कथित कुलीन व संभ्रान्त लोगों ने शुरू से ही अपनी सियासी दौलत बना कर रखा और मजहब की एकता के नाम पर इनका जमकर शोषण भी किया।
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इस वर्ग के लोगों को आधुनिक शिक्षा से महरूम बनाये रखने के लिए अशराफिया समाज की तरफ से साजिशें किस हद तक रची गईं इसका उदाहरण हमें तभी से मिलता है जब से भारत में अंग्रेजी राज का आगाज हुआ। 1858 में पहले स्वतन्त्रता संग्राम (1857 की क्रान्ति) के बाद जब ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया ने हिन्दोस्तान की सल्तनत को ईस्ट इंडिया कम्पनी से खरीदा तो मुसलमानों में उच्च व अंग्रेजी शिक्षा के सबसे बड़े अलम्बरदार कहे जाने वाले सर सैयद अहमद खां ने एक पुस्तिका ‘असबाबे बगावते हिन्द’ लिखी और क्रान्ति में भाग लेने वाले मुस्लिम जुलाहों, दस्तकार व ग्रामीणों को ‘कम-जात’ बताया। उन्होंने इस पुस्तिका में अंग्रेजों को सुझाव दिया कि अगर वे हिन्दोस्तान पर अपनी हुकूमत नाफिज करना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले हिन्दू-मुसलमानों को आपस में मिलने व दोस्ती बढ़ाने नहीं देना चाहिए। खास कर फौज में दोनों समुदायों के लोगों को अलग-अलग रखना चाहिए और संकट के समय अपने हित में दोनों का उपयोग एक-दूसरे के खिलाफ करना चाहिए।
सर सैयद ने हालांकि अलीगढ़ में मुसलमानों के ओरियंटल इंग्लिश कालेज स्थापित किया मगर इसमें पढ़ने के लिए दरवाजे केवल अशराफिया मुसलमानों के लिए ही खोले। सैयद अहमद खां कहते थे कि कमजात समझे जाने वाले मुस्लिमों जैसे दर्जियों, नाइयों, बढि़यों, लुहारों, दस्तकारों या काश्तकारों अथवा शिल्पकारों को उच्च शिक्षा की जरूरत नहीं है उनके लिए रवायती मदरसे ही ठीक हैं क्योंकि किसी दर्जी का बेटा किसी जमींदार या अमीर सैयद के बेटे की बराबरी पर नहीं आ सकता। अतः भारत के पसमान्दा मुसलमानों को कम शिक्षित या अशिक्षित अथवा अपने पेशे में ही रहने के पुख्ता इन्तजाम बांधे गये और उनकी आर्थिक हालत को भी कमजोर बनाये रखने की साजिश रची गई। इस वर्ग के मुसलमानों को मजहब की एकता के नाम पर स्वतन्त्र भारत में सियासी जखीरा बनाने के इन्तजाम कट्टर मुल्ला-मौलवियों ने किये और इन्हें गरीबी में ही रहने के लिए मजबूर किया।  हालांकि पसमान्दा मुसलमानों के बीच विभिन्न जातियां भी पनपती रहीं।
पंजाब में तो राजपूत मुसलमान व जाट अथवा गुर्जर मुसलमानों की पूरी परंपरा है मगर ये पसमान्दा की श्रेणी में नहीं आते हैं, क्योंकि इनमें से अधिसंख्य अच्छी भूमि जोत के मालिक रहे हैं। मगर शेष उत्तर भारत में बिहार व एक हद तक बंगाल में भी पसमान्दा मुस्लिम अपने ही समाज के हाशिये पर खड़े रहे और कमजात कहलाते रहे। आजाद भारत में इस वर्ग के मुसलमानों को पृथक आरक्षण देने तक की मांग भी की जाती रही है परन्तु अब समय आ गया है कि मुस्लिम समाज के इस सबसे दबे व पिछड़े वर्ग के लिए राजनैतिक से लेकर आर्थिक सत्ता में भागीदारी करने के रास्ते इस प्रकार खोले जायें कि उनका सर्वांगीण विकास बदलते समय के साथ हो सके और इनमें शिक्षा का व्यापक प्रसार भी हो। इसके लिए सबसे पहले पसमान्दा मुसलमानों को अशराफिया मुसलमानों की राजनैतिक कैद से मुक्ति पानी होगी और अपने बीच से ही अपना नेतृत्व खड़ा करना होगा।  परन्तु मूल प्रश्न यह है कि पसमान्दा मुस्लिम समाज में अपने ही बीच से नेतृत्व किस प्रकार उभरेगा? क्योंकि केवल पसमान्दा नेतृत्व ही भारत के लोकतन्त्र में अपनी अलग ताकत दिखाकर राजनैतिक सत्ता में भागीदारी करने की हिम्मत जुटा सकता है।
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एेसा नहीं है कि आजादी से पहले पसमान्दा देशभक्त पसमान्दा मुसलमानों ने अपनी ताकत का इजहार करने की कोशिश नहीं की थी। मार्च 1940 में लाहौर में कथित पाकिस्तान निर्माण का प्रस्ताव जिन्ना की मुस्लिम लीग ने अपने सम्मेलन में जब पारित किया तो उससे अगले महीने अप्रैल में दिल्ली में इन देशभक्त मुसलमानों का बहुत बड़ा जलसा हुआ जिसमें एक दर्जन से अधिक मुस्लिम संगठनों ने भाग लिया। इनमें आल इंडिया जमीयत हिन्द, आल इंडिया मोमिन कान्फ्रेंस, खुदाई खिदमतगार, कृषक प्रजा पार्टी, अंजुमने वतन (बलूचिस्तान), आल इंडिया मजलिसे अहरार, शिया कान्फ्रेंस, जमीयते अहले हदीस, आजाद मुस्लिम कान्फ्रेंस और जमीयत उल-उलमाए- हिन्द (देवबन्द) आदि शामिल थीं। हालांकि इन संगठनों में सीमान्त गांधी खान अब्दुल गफ्फार खान की पार्टी खुदाई खिदमत गार व जमीयत उल-उलमा-ए-हिन्द भी शामिल थी और सिन्ध के नौजवान नेता अल्लाबख्स सुमरू की इत्तेहाद पार्टी भी शामिल थी, मगर बड़ी संख्या पसमान्दा मुस्लिम संगठनों की थी और ये सब भारत के विभाजन के खिलाफ थे और संयुक्त भारत चाहते थे। स्वतन्त्र भारत में ऐसी पार्टियों के नेताओं का नाम आज के पसमान्दा मुसलमान भी नहीं जानते। इतिहास से इन्हें भुला दिया गया है। मगर अब वक्त आ गया है कि पसमान्दा मुसलमानों की देश भक्ति का एहतराम करते हुए इस वर्ग के लोगों के साथ सामाजिक बराबरी का नारा बुलन्द किया जाये।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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