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यूक्रेन युद्ध का शान्तिपूर्ण हल

डोनाल्ड ट्रम्प ने रूस के राष्ट्रपति व्ला​दिमीर पुतिन से लम्बी टेलीफोन वार्ता की।

11:30 AM Feb 19, 2025 IST | Aditya Chopra

डोनाल्ड ट्रम्प ने रूस के राष्ट्रपति व्ला​दिमीर पुतिन से लम्बी टेलीफोन वार्ता की।

विगत 12 फरवरी को जब अमेरिका के नये राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने रूस के राष्ट्रपति व्ला​दिमीर पुतिन से 90 मिनट तक लम्बी टेलीफोन वार्ता की तो स्पष्ट हो गया था कि वह अपने देश की रूस नीति में आधारभूत परिवर्तन करने जा रहे हैं। पिछले राष्ट्रपति जो बाइडेन की रूस विरोधी नीति को ताक पर रख कर श्री ट्रम्प ने कूटनीतिक सम्बन्धों में दिशा बदलने वाला यह कदम उठाया था। इसी दिन 12 फरवरी को ही अमेरिका के रक्षामन्त्री श्री पेट हेगसेथ ने यह घोषणा भी कर दी थी कि अमेरिका यूक्रेन को पश्चिमी यूरोपी देशों के सामरिक संगठन ‘नाटो’ का सदस्य बनाये जाने के हक में नहीं है और इसे रूस व यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध को रोकने का कोई वैकल्पिक हल नहीं मानता है। जबकि 2008 में नाटो देशों के बुखारेस्ट (चेकोस्लोवाकिया) सम्मेलन में यह घोषणा की गई थी कि संगठन जार्जिया व यूक्रेन को नाटों की सदस्यता देने के हक में है।

रूस के राष्ट्रपति यूक्रेन को नाटो की सदस्यता देने के शुरू से ही पूरी तरह खिलाफ हैं क्योंकि सोवियत संघ से अलग हुए कई पूर्व नवोदित राष्ट्र नाटो के सदस्य बन चुके हैं जिसे श्री पुतिन अपने राष्ट्रीय हितों के खिलाफ मानते हैं। यूक्रेन से रूस की सीमाएं लगी हुई हैं जिसके चलते पुतिन कभी यह स्वीकार नहीं कर सकते कि नाटो की सामरिक ताकत जब चाहे तब रूस के दरवाजे पर दस्तक दे दे। जबकि 1990 में जब सोवियत संघ का विघटन हुआ था तो इसके बाद सोवियत संघ 21 राष्ट्रो में खंडित हो गया था। उस समय पूर्वी यूरोपीय देशों का नाटो का जवाबी सामरिक संगठन वारसा अपने वजूद में था परन्तु उस समय अमेरिका समेत नाटो के संगठन देशों ने वादा किया था कि वे नाटो का विस्तार यूरोप के पूर्व की तरफ नहीं करेंगे। सोवियत संघ के विघटन के साथ ही रूस के नेतृत्व में पूर्वी यूरोपीय देशों का वारसा संगठन भी निष्क्रिय हो गया था।

परन्तु इसके एक दशक बाद 1999 में ही नाटो संगठन में वारसा सन्धि के कई कम्युनिस्ट रहे देश इसमें शामिल हो गये जिनमें हंगरी, पोलैंड और चेक (चेकोस्लोवाकिया का हिस्सा रहा देश) प्रमुख थे। तब अमेरिका के राष्ट्रपति पद पर आसीन स्व. बिल क्लिंटन ने इसे अमेरिका की लोकतान्त्रिक योजना कहा था। जिसके तहत पुराने पूर्व कम्युनिस्ट देशों को नाटो की सदस्यता दी जा रही थी। इन देशों के अलावा पूर्व सोवित संघ के अंग रहे देशों जैसे एस्टोनिया, लातविया, लुथियाना, और स्लोविनिया को भी नाटों की सदस्यता दे दी गई थी। नाटो का सदस्य बनने का लाभ यह था कि यदि इस संगठन के किसी एक देश पर भी बाहरी हमला होता है तो वह सभी सदस्य देशों पर हमले के बराबर समझा जायेगा और सभी देश मिल कर उसका सामरिक जवाब देंगे। रूसी राष्ट्रपति पुतिन यूक्रेन को नाटो संगठन सदस्य बनाये जाने का विरोध इसी वजह से कर रहे हैं जिससे नाटो उनके दरवाजे पर ही आकर न बैठ जाये।

जबकि 1990 में अमेरिका ने रूस से यह वादा किया था कि वह नाटो का विस्तार सोवियत संघ में रहे देशों के बीच नहीं करेगा। अतः अमेरिका के नये राष्ट्रपति ने सिद्धान्ततः पुतिन के इस कदम को स्वीकार किया है जिससे रूस- यूक्रेन के बीच पिछले तीन साल से चल रहे युद्ध की दिशा बदलती सी लग रही है। इस क्रम में श्री ट्रम्प ने पिछली बाइडेन सरकार द्वारा खींची गई लकीरों को मिटा कर सीधे रूस से ही बातचीत करने का मार्ग खोला और सऊदी अरब की राजधानी रियाद में अपनी नई सरकार के वरिष्ठ उच्च पदाधिकारियों को रूसी पदाधिकारियों से बातचीत करने के लिए भेजा। श्री ट्रम्प के इस कदम की सराहना की जानी चाहिए कि वह युद्ध के स्थान पर बातचीत द्वारा समस्या का हल खोजना चाहते हैं।

भारत हमेशा से ही युद्ध के स्थान पर वार्ता का समर्थक रहा है अतः यूक्रेन का इस स्तर पर यह कहना कि वह रूस व अमेरिका के बीच हुए किसी भी परिणाम को तब तक नहीं मानेगा जब तक कि उसे भी वार्ता में शामिल न किया जाये। कोई खास मायने नहीं रखता है क्योंकि यूक्रेन को पश्चिमी नाटो देशों ने ही रूस के खिलाफ बांस पर चढ़ा रखा था और वे उसकी सामरिक मदद कर रहे थे तथा रूस के खिलाफ आर्थिक युद्ध छेड़े हुए थे। अमेरिका की शह पर रूस के विरुद्ध इन सभी देशों ने कड़े आर्थिक प्रतिबन्ध लगा कर उसे अकेला करने की रणनी​​ति अपना रखी थी। किन्तु श्री ट्रम्प ने रूस के बारे में व्यावहारिक नीति अपनाई है और अपने राष्ट्रीय हितों को सर्वोपरि रखा है। रूस को नजरअंदाज करके अमेरिका व्यापार व वाणिज्य के अलावा अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक क्षेत्र में भी सकारात्मक रूप से अपनी भूमिका नहीं निभा सकता है और रूस व चीन का गठबन्धन उसके लिए सिरदर्द हो सकता है। इसीलिए ट्रम्प चाहते हैं कि रूस से वाणिज्यिक व कूटनीतिक सम्बन्ध पुनः सुधरें।

रियाद में अमेरिकी विदेशमन्त्री मार्को रूबियो व रूसी विदेश मन्त्री सर्जई लावरोव मौजूद रहे और अमेरिका राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी। रियाद में चार घंटे तक चली इस बैठक के बाद श्री रूबियो ने कहा कि दोनों पक्ष यूक्रेन युद्ध का शान्तिपूर्ण हल ढूंढने के लिए राजी हो गये हैं और इस सन्दर्भ में ट्रम्प-पुतिन शिखर वार्ता के प्रयास भी जारी हैं। जाहिर है कि उनके इस कथन से अमेरिका की रूस नीति में क्रान्तिकारी बदलाव साफ दिखाई दे रहा है। जहां तक यूक्रेन का प्रश्न है तो ये दोनों नेता आपस में मिल–बैठ कर इस बात पर भी सहमत हो सकते हैं कि शान्तिपूर्ण हल पर कालान्तर में यूक्रेनी राष्ट्रपति की भी मुहर लगवाई जाये। ट्रम्प की इस पहल के अच्छे परिणाम आयें इसकी अपेक्षा भारत जैसे शान्तिप्रिय देशों को रहेगी क्योंकि पिछले तीन वर्षों से चल रहे युद्ध से केवल विनाश व विध्वंस ही हुआ है और लाखों लोगों की जानें गई हैं।

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