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नागलोक का ज़हर

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10:34 PM Jan 09, 2018 IST | Desk Team

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सीमा पे एक जवान शहीद हो गया,
संवेदनाओं के कितने बीज बो गया,
तिरंगे में लिपटी लाश उसकी घर आ गई
सिहर उठी हवाएं, उदासी छा गई
तिरंगे में रखा खत जो उसकी मां को दिख गया
मरता हुआ जवान उस खत में लिख गया,
बलिदान को अब आंसुओं से धाेना नहीं है
तुझे कसम है मां मेरी, कि रोना नहीं है
सीमाओं पर पाकिस्तान की गोलाबारी और जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी हमलों में हमारे जवान लगातार शहादत दे रहे हैं। शहीदों के शव जब उनके घरों पर पहुंचते हैं तो हर आंख नम हो जाती है। पूरा का पूरा गांव उमड़ पड़ता है और पथराई आंखों से शहीद को अंतिम विदाई देकर घरों को लौट जाते हैं लेकिन शहीद के परिजनों पर क्या बीतती है, इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अमर शहीदों की पूजा इस देश की परम्परा है। इसलिए हमारा कर्त्तव्य है कि शहीदों का समुचित सम्मान करें और देश के लिए अपनी जान कुर्बान करने वाले पर हम युग-युग अभिमान करें। परमपूज्य दादा लाला जगत नारायण जी और फिर परम पूज्य पिताश्री रमेश चंद्र जी की शहादत के बाद जितनी पीड़ा मैंने और मेरे परिवार ने झेली है, उसको मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता। मैं जानता हूं एक मां की व्यथा को, एक बेटे की पीड़ा को और बहन के दुःख को। पिछले दिनों मैं पाकिस्तानी गोलाबारी का शिकार हुए करनाल के गांव रंबा निवासी शहीद प्रगट सिंह के घर उनकी शहादत को नमन करने पहुंचा तो शहीद की मां और पत्नी के आंसू थम नहीं रहे थे। शहीद के दादा और दादी पर दुःखों का पहाड़ टूट पड़ा था। शहीद प्रगट सिंह के छोटे बेटे दिवराज को शायद अहसास ही नहीं होगा कि उसके पिता ने शहादत देकर कितना महान कार्य किया है।

दुःख तो इस बात का है कि शहीद का परिवार आर्थिक तंगी में ही गुजर-बसर कर रहा था। प्रगट सिंह की तनख्वाह से ही घर का चूल्हा जलता था, भाई मेहनत-मजदूरी करता है। अब यह जिम्मेदारी राष्ट्र पर है, समाज पर है कि शहीदों के परिवार सम्मान से जिन्दगी जिएं। शहीद के परिवार को आर्थिक सहायता मिल भी जाए, शहीद के नाम पर स्टेडियम का नामकरण भी कर दिया जाए, उसके परिवार के आंसुओं की कीमत कभी चुकाई नहीं जा सकती। मेरा प्रयास होगा कि शहीद के परिवार की इतनी मदद की जाए कि जीवन भर उन्हें किसी के आगे हाथ पसारने नहीं पड़ें। उस बेटी को जिसने अपना सुहाग खो दिया है, जीवन भर वह गर्व से जिए। शहीदों के परिवारों का दुःख-दर्द बांटना समाज का भी दायित्व है। मुझे विश्वास है कि रंबा गांव के निवासी उनके परिवार का ध्यान रखेंगे।

लोग सवाल यह भी उठाते हैं कि आखिर कब तक हमारे बेटे सीमाओं पर शहीद होते रहेंगे, कब तक हमारी बेटियां अपनी चूिड़यां तोड़ती रहेंगी, लगातार हमारे गांव और शहर क्रंदन में डूब जाते हैं, आखिर क्यों? इस सवाल का जवाब देना मुश्किल हो जाता है। 1947 और 2018 में 71 वर्षों का अंतराल है। बड़े सुनियोजित ढंग से पाकिस्तान के दुष्प्रचार ने वहां के युवाओं को भारत के प्रति विद्रोही बना दिया। युवकों को लश्कर, हिज्बुल और जैश-ए-मोहम्मद का आतंकवादी धर्मरक्षक प्रतीत होता है, जबकि भारत की सेना को वह दुश्मन की दृष्टि से देखते हैं। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पीएचडी करने वाला छात्र हिज्बुल का आतंकवादी बन जाता है, उसकी मां उससे घर लौटने की गुहार लगा रही है, पिता और भाई परेशान हैं। घाटी के गांव में क्रिकेट मैच से पूर्व पाक का राष्ट्रगान गाया जाता है। घाटी को हुर्रियत वालों ने आैर पाकिस्तानी प्रोपेगंडे ने नागों में परिवर्तित कर दिया है। अब कश्मीर घाटी को नागलोक कहने में मुझे जरा भी गुरेज नहीं। अपवादों के प्रति मैं सदा क्षमाप्रार्थी रहा हूं। अपवाद सिर्फ अपवाद है।

नागलोक की फिजाओं में जितना ज़हर फैल चुका है, उसका परिणाम यही निकलना था। बड़ा आश्चर्य होता है कि जब जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती पाक सरकार से बातचीत की वकालत करती हैं। जिस पाकिस्तान की नापाक फाय​रिंग से हमारे देश के बेटों की जानें जा रही हैं, पाक प्रायोजित आतंकवाद के कारण हमलों में हमारे जवान शहीद हो रहे हैं, उससे कैसी बातचीत। भारत को आज नहीं तो कल आतंकवाद और देशद्रोह को समझना ही होगा। काश! भारतीय नेतृत्व ने 1947 के बाद से ही इसे गंभीरता से लिया होता। विडम्बना यह भी है कि पूर्व में अनेक तरह के अलगाववादियों, देशद्रोहियों और सामूहिक हत्याकांडों के सरदारों को समम्मान वार्ता के लिए विशेष विमान भेजने के कार्य भी होते रहे हैं। नक्सलियों, आतंकवादियों को अपहरण, हत्या आदि विविध अपराधों के लिए क्षमादान देकर रोजगार आदि के लिए व्यवस्था करने जैसे उपाय भी होते रहे हैं। कभी कोई वक्तव्य आ जाता है कि सेना के जवान तो मरने के लिए ही होते हैं।

देश के प्रभावी प्रबुद्ध वर्ग ने सैनिकों में देशभक्ति को उपेक्षीय मूल्य मान लिया। मध्य वर्ग का हर युवा डाक्टर, इंजीनियर, बैंकर, प्रशासनिक अधिकारी, मैनेजर, कम्प्यूटर विशेषज्ञ, डिजाइनर, माडल बनना चाहता है। सैनिक कमांडर नहीं बनना चाहता। क्या इसके पीछे भीरूता मात्र है? जो मरने से डरती और सम्मानविहीन, वनस्पति सा जीवन जीते रहना चाहती है। चपरासी बनने के लिए तो एमबीए भी आवेदन दे देते हैं लेकिन सेना में जाने को तैयार नहीं। सेना जम्मू-कश्मीर में आप्रेशन आलआऊट चला रही है। काफी आतंकवादी मारे जा चुके हैं। आग तो लोगों के मन में भी धधक रही है। अब समय आ गया है कि इस पाकिस्तान को सबक सिखाना ही पड़ेगा। हम सावधान होकर राष्ट्र का नेतृत्व आैर रक्षा करें, बस यही एक अपेक्षा है। आतंकवादी हमले, पाक की फायरिंग राष्ट्र के स्वाभिमान, राष्ट्र की अस्मिता, राष्ट्र के शौर्य को चुनौती है, जिसे स्वीकार कर ईंट का जवाब पत्थर से देना ही पड़ेगा। शहीद की शहादत को सलाम यही होगा कि पाक के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाएं।

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