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पुलिस का राजनीतिकरण?

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09:47 AM Dec 10, 2018 IST | Desk Team

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बुलन्दशहर में पिछले दिनों एक पुलिस अधिकारी की जिस तरह कथित गोभक्तों ने हत्या की उससे उत्तर प्रदेश में पुलिस के राजनीतिकरण का खतरा खड़ा होता जा रहा है। यदि कुछ एेसे लोगों के खिलाफ पुलिस उचित कानूनी कार्रवाई करने में सकुचा रही है जिनका सम्बन्ध एक विशेष धारा से है तो सबसे पहला सवाल यह खड़ा होता है कि पुलिस किसके प्रति उत्तरदायी या जवाबदेह होती है? यकीनन तौर पर पुलिस किसी भी राजनैतिक दल के लिये उत्तरदायी नहीं होती बल्कि वह संविधान के अनुसार लोगों के बहुमत से चुनी गई सरकार के प्रति जवाबदेह होती है और जो चुनी हुई सरकार होती है वह संविधान के प्रति जवाबदेह होती है।

इसका सीधा मतलब यह निकलता है कि पुलिस केवल संविधान के प्रति उत्तरदायी होती है मगर उसे चुनी हुई सरकार के आदेशों के अनुसार काम करना पड़ता है। पूरी सरकार जब संविधान की शपथ लेकर सत्ता पर बैठती है तो उसका हर मन्त्री हलफ उठाता है कि वह बिना किसी राग-द्वेष के राज्य के लोगों के साथ न्याय करेगा। पुलिस का आईपीएस अधिकारी भी संविधान की शपथ उठाता है अतः जाहिर है कि सरकार का कोई भी मन्त्री (मुख्यमन्त्री समेत) जब पुलिस को कोई आदेश देगा तो वह पूरी तरह संविधान के अनुरूप होना चाहिए। इसके बावजूद पुलिस अधिकारी के पास यह अधिकार होता है कि वह किसी एेसे आदेश पर सवालिया निशान लगा दे जो संविधान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है।

बहुत पुराना इतिहास नहीं है कि देश में इमरजेंसी लगने से पहले 24 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित विशाल जनसभा को सम्बोधित करते हुए स्व. जय प्रकाश नारायण ने पुलिस से अपील की थी कि वह अपने उच्च अफसरों के गलत आदेशों को न माने। उनकी इस जनसभा में तत्कालीन जनसंघ के नेता स्व. अटल बिहारी वाजपेयी भी मौजूद थे। जे.पी. आन्दोलन की यह सभा उससे पहले 12 जून को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के उस फैसले के बाद हो रही थी जिसमंे तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. इन्दिरा गांधी के रायबरेली से लड़े गये लोकसभा चुनाव को अवैध करार दे दिया गया था। जे.पी. तब श्रीमती इन्दिरा गांधी के इस्तीफे की मांग कर रहे थे। इसी समय गुजरात विधानसभा के चुनाव परिणाम भी आ गये थे जिनमें कांग्रेस पार्टी स्पष्ट बहुमत से पीछे रह गई थी और विपक्षी दलों द्वारा बनाये गये जनमोर्चा को बहुमत मिल गया था और इसके नेता स्व. बाबू भाई पटेल थे। बिहार मे स्व. अब्दुल गफूर के नेतृत्व मंे कांग्रेस पार्टी की सरकार थी और इस राज्य मंे जेपी आन्दोलन का सर्वाधिक जोर था और पुलिस आन्दोलनकारियों पर लाठियां भांजने में कोई कोताही नहीं कर रही थी।

बेशक जेपी का सन्दर्भ दूसरा था क्योंकि वह समझते थे कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फैसला आने के बाद श्रीमती गांधी ने सत्ता पर रहने का संवैधानिक अधिकार खो दिया है मगर उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर में जिस तरह एक पुलिस अधिकारी की बजरंग दल व विश्व हिन्दू परिषद के हुड़दंगियों ने गौहत्या के बहाने भीड़ इकट्ठा कर हत्या की है वह भी पूरी तरह इस राज्य में संविधान के शासन की हत्या ही है। पुलिस द्वारा यह तस्दीक किये बिना ही कि किन परिस्थितियों में कथित गौकंकाल इस जिले के एक गांव में अचानक प्रकट हुए, गाैभक्तों द्वारा उनके बताये गये लोगों के खिलाफ तुरत-फुरत कार्रवाई करने की जिद केवल सत्ता का खौफ दिखाने के अलावा और कुछ नहीं की थी जिसके लिए एक ईमानदार पुलिस अफसर को ही उन्होंने हलाक कर डाला। यह हमेशा ध्यान रखा जाना चाहिए कि जब किसी डाकुओं के गिरोह का सफाया करने भी पुलिस जाती है और उसमें किसी एक पुलिसकर्मी की भी हत्या हो जाती है तो समूचा पुलिस तन्त्र डाकुओं के खिलाफ कहर मचा देता है क्योंकि इसका सम्बन्ध संविधान की सत्ता से होता है जिसकी निगेहबानी किसी भी राज्य में पुलिस ही करती है।

पुलिस कर्मी के हत्या करने वाले को किसी आतंकवादी से कम नहीं समझा जाता, क्योंकि वह संविधान या कानून के शासन को चुनौती देता है। अगर एेसे मामले को उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री द्वारा इसे एक दुर्घटना बताना खेदजनक है। इस मामले का संज्ञान राज्यपाल को तुरन्त लेना चाहिए क्योंकि वह राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त संविधान के मुहाफिज हैं। इस सन्दर्भ में स्व. चौधरी चरण सिंह का एक उदाहरण ही काफी है जो उन्होंने 1969 में पुनः मुख्यमन्त्री बनने के बाद कायम किया था और अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं द्वारा एक जिले के जिलाधीश की शिकायत करने पर फटकार लगाई थी कि “कलेक्टर मेरा नौकर नहीं है बल्कि कानून का नौकर है। जैसा कानून कहेगा वो वैसा ही करेगा” मगर तस्वीर का दूसरा पहलू यह भी है कि पुलिस ने अपनी यह दुर्गति इस राज्य में स्वयं ही बनाई है। बिना शक इसमें इस राज्य की क्षेत्रीय पार्टियों जैसे समाजवादी व बहुजन समाज पार्टी की सरकारें आने पर पुलिस ने अपने बदनाम चरित्र के चलते इन पार्टियों के नेताओं की निजी सेना बनना स्वीकार कर लिया।

इन राजनैतिक पार्टियों ने पुलिस के भ्रष्ट आचरण का लाभ उठाते हुए अपने निजी राजनैतिक लाभ के लिए उसका जमकर इस्तेमाल किया। पुलिस का ड्यूटी पर तैनात रहते किसी भी धार्मिक कृत्य से कोई मतलब नहीं होता है। उसका काम सिर्फ किसी भी धर्म के आयोजन में गड़बड़ी पैदा करने के प्रयासों को रोकना होता है और बुलन्दशहर की पुलिस ने इसी शहर में हो रहे मुस्लिम सम्मेलन का शान्तिपूर्वक समायोजन कराकर एेसा ही किया मगर क्या कयामत है कि जिले के पुलिस अफसरों के तबादलों की बाढ़ ला दी गई है और वह अभियुक्त शान से वीडियो फिल्म बनाकर अपने चहेतों को भेज रहा है जिसका नाम अभियुक्तों की सूची मंे सबसे ऊपर है। इसी बुलंदशहर जिले के डिबाई विधानसभा क्षेत्र के जनसंघ के नेता स्व. ठाकुर हिम्मत सिंह भी हुआ करते थे और वह 1967 की चरण सिंह की संविद सरकार मंे पुलिस मन्त्री बने थे। उन्होंने तब कहा था कि पुलिस को अपना काम करते हुए यह ध्यान नहीं रखना चाहिए कि किस अपराधी का किस राजनैतिक दल से सम्बन्ध है?

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