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पूर्व पीएम की मौत पर सियासत

जब हम किसी मृत व्यक्ति के लिए ‘रेस्ट इन पीस’ या “RIP” कहते हैं…

10:16 AM Jan 09, 2025 IST | Kumkum Chaddha

जब हम किसी मृत व्यक्ति के लिए ‘रेस्ट इन पीस’ या “RIP” कहते हैं…

जब हम किसी मृत व्यक्ति के लिए ‘रेस्ट इन पीस’ या “RIP” कहते हैं, तो हम उसके लिए शांति की प्रार्थना करते हैं। हालांकि आधुनिक समय में कई चीजों की तरह इस वाक्यांश को भी बदलने की आवश्यकता है। रेस्ट इन पीस के बजाय इसे उन्हें शांति से रहने दें, होना चाहिए। इसका सबसे अच्छा उदाहरण हाल की घटनाओं में देखा गया जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मृत्यु के कुछ ही घंटों बाद एक कहासुनी छिड़ गई। मनमोहन सिंह का 26 दिसंबर को नई दिल्ली में निधन हुआ।

एक सिख होने के नाते सिंह अल्पसंख्यक समुदाय से पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस उच्च पद को संभाला। एक अर्थशास्त्री से राजनेता बने मनमोहन सिंह भारत के 13वें प्रधानमंत्री बने, उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया और संरचनात्मक सुधार लाए जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था का चेहरा बदल दिया, जो उस समय संकट में थी। इसलिए जब लोगों ने सिंह को याद किया और श्रद्धांजलि लेख लिखे, तो दो चीजें प्रमुख थीं उनकी विनम्रता और अर्थव्यवस्था को वापिस पटरी पर लाना।

बेशक कुछ बातें उनके कमजोर प्रधानमंत्री होने और ‘सुपरपावर’ यानी तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी और एक ऐसी सरकार जो राष्ट्रीय सलाहकार परिषद, जिसकी अध्यक्षता भी श्रीमती गांधी कर रही थीं, द्वारा रिमोट कंट्रोल से संचालित होने के बारे में भी कही गईं। बाहरी तौर पर मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी के बीच का रिश्ता सौहार्दपूर्ण दिखाई देता था। सिंह, सोनिया गांधी के प्रति कृतज्ञ थे, जिन्होंने उन्हें एक ऐसा पद दिया जिसके बारे में उन्होंने अपने जीवन में कभी सपने में भी नहीं सोचा था। लेकिन ऐसी रिपोर्ट्स भी हैं कि उनके बीच कई बार असहमतियां हुईं। कहा जाता है कि सिंह प्रधानमंत्री कार्यालय को रिमोट कंट्रोल से चलाने की कोशिशों से नाराज थे लेकिन ये सच उनके साथ ही दफन हो जाएं तो बेहतर है।

जहां तक शांति से विश्राम करने की बात है, सिंह इस हलचल, आरोप-प्रत्यारोप और सबसे बढ़कर उनकी मृत्यु के बाद की गंदी राजनीति से बेचैन हो रहे होंगे। सिंह जो हमेशा एक सादगीपूर्ण जीवन जीने वाले व्यक्ति थे, शायद चुपचाप विदा लेना ही पसंद करते, बजाय इसके कि उनके अंतिम विश्राम स्थल को लेकर इतना शोर-शराबा हो। इस विवाद की शुरुआत तब हुई जब कांग्रेस ने नई दिल्ली में यमुना नदी के किनारे डॉ. मनमोहन सिंह के लिए एक अलग स्मारक की मांग की। पार्टी ने यह भी कहा कि दिवंगत नेता का अंतिम संस्कार उसी स्थल पर किया जाए जिसे उनके स्मारक के रूप में बाद में नामित किया जाएगा। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने सरकार को पत्र लिखकर कहा कि यह परंपरा के अनुरूप होगा, जिसमें राजनेताओं और पूर्व प्रधानमंत्रियों के अंतिम संस्कार उनके स्मारकों के स्थल पर किए जाते हैं।

सरकार ने इस अनुरोध को स्वीकार करते हुए कहा कि डा. सिंह के स्मारक के लिए स्थान आवंटित किया जाएगा लेकिन यह प्रक्रिया कुछ दिनों बाद पूरी की जाएगी। केंद्र ने कांग्रेस को बताया कि डॉ. सिंह का अंतिम संस्कार सार्वजनिक श्मशान घाट में किया जाए और आश्वासन दिया कि उनके स्मारक के लिए जल्द ही स्थान आवंटित कर दिया जाएगा।

यह सब कांग्रेस के लिए पर्याप्त था कि वह आरोप लगाए और यह दावा करे कि ‘भारत मां के महान पुत्र और सिख समुदाय के पहले प्रधानमंत्री’ को जैसा कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कहा-पूरी तरह अपमानित किया गया है। कांग्रेस नेताओं ने भी इसका अनुसरण करते हुए आरोप लगाया कि कुप्रबंधन हुआ है, डा. सिंह के परिवार के लिए उचित स्थान नहीं था और आम जनता को कार्यक्रम स्थल से दूर रखा गया आदि। रिकॉर्ड के लिए डॉ. सिंह का राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया गया था। हालांकि बीजेपी ने चुप रहने के बजाय पलटवार किया और आरोप लगाया कि कांग्रेस काफी निचले स्तर की राजनीति कर रही है।

बीजेपी ने हाल के इतिहास का हवाला देते हुए कहा कि डॉ. सिंह को छोड़कर कांग्रेस ने पूर्व प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव और पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का भी अपमान किया था। बीजेपी ने कहा कि राव के अंतिम संस्कार की अनुमति राष्ट्रीय राजधानी में नहीं दी गई थी। बीजेपी ने ही राव के लिए स्मारक बनाया और उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया। प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी ने भी इस विवाद में कूदते हुए कांग्रेस पर आरोप लगाया कि उन्होंने उनके निधन पर शोक व्यक्त करने के लिए कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक तक नहीं बुलाई।

सूची लंबी है और आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है, कांग्रेस निशाना साधती है तो बीजेपी पलटवार करती है। यह राजनीति का सबसे बदसूरत रूप है। इस बात पर रुककर हमें पूछना चाहिए, क्या हमारे राजनीतिक दल इतने दिवालिया हो चुके हैं कि वे गैर मुद्दों पर गिरने को तैयार हैं? क्या अब मृतकों पर राजनीति करना नई सामान्य बात हो गई है? क्या वे उन लोगों के प्रति सम्मान में एकजुट नहीं हो सकते जो अब हमारे बीच नहीं हैं? जैसा कि हालात सामने आए हैं, ऐसा ही लगता है। चाहे वह अंतिम संस्कार स्थल हो, स्मारक हो या राजकीय सम्मान से अंतिम संस्कार का प्रबंधन, सत्ता से बाहर लोग सत्ता में बैठे लोगों को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ते। और जब बात कांग्रेस बनाम बीजेपी की हो, तो यह साफ है कि कोई भी सीमा नहीं रह जाती।

एक स्तर पर राजनीति ठीक है और विपक्ष का काम ही विरोध करना है। इस दृष्टि से कांग्रेस अपना काम कर रही है लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि अपने दिवंगत नेताओं को फिर से उभारना और छोटी-छोटी राजनीति में शामिल होना? क्या इसका मतलब है कि कब्रों से लोगों को निकालकर राजनीतिक अंक हासिल करने के लिए इस्तेमाल किया जाए? क्या इसका मतलब यह है कि हमने एक नई नीचाई छू ली है और हम और गिरते रहेंगे? और क्या इसका मतलब यह है कि हम विवाद पैदा करते रहेंगे और मृतकों को शांति से विश्राम नहीं करने देंगे?

मुद्दा यह नहीं है कि कौन सही है या कौन सी पार्टी तर्कसंगत बात कर रही है। सवाल मर्यादा का है, यह कि किसी को कितनी दूर बल्कि कितने नीचे गिरने की अनुमति दी जानी चाहिए? और सबसे महत्वपूर्ण बात क्या राजनीति के लिए मृतकों की गरिमा से समझौता किया जाना चाहिए? यह कहना कि डॉ. मनमोहन सिंह एक गरिमामय व्यक्ति थे, एक सामान्य सी बात है। राजनीतिक रूप से उन्होंने समझौते किए हो सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर वे गरिमा और ईमानदारी को बहुत महत्व देते थे। इसलिए इन गुणों से किसी भी तरह का समझौता उनकी स्मृति को धूमिल करने के समान है।

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