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प्रद्युम्न का आर्तनाद

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12:50 PM Nov 10, 2017 IST | Desk Team

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प्रद्युम्न की आत्मा चीख-चीखकर पुकार रही होगी कि ‘‘मुझे इन्साफ चाहिए, मुझे इन्साफ चाहिए।’’ उसके माता-पिता भी इन्साफ के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने इन्साफ पाने के लिए हर दर पर दस्तक दी है। गुरुग्राम के रेयान इंटरनेशनल स्कूल के छा​त्र प्रद्युम्न हत्याकांड में आए नाटकीय मोड़ से इन्साफ की उम्मीद तो बंधी है। देश की शीर्ष जांच एजैंसी नई थ्योरी के साथ सामने आई कि प्रद्युम्न की हत्या स्कूल के ही सीनियर छात्र ने की और उसने अपना गुनाह भी कबूल कर लिया है। देखना यह है कि सीबीआई अदालत में आरोपी छात्र पर आरोप किस तरीके से प्रमाणित करती है। वैसे आश्चर्य होता है कि किसी संभ्रांत परिवार का नाबालिग चाकू खरीद कर अपने बस्ते में स्कूल ले जाता है और पेरेंट-टीचर मीटिंग आैर परीक्षा को टलवाने के लिए एक मासूम की निर्मम हत्या कर देता है। कई बच्चे स्वभाव से उद्दंड होते हैं लेकिन यह उद्दंडता कभी-कभी उन्हें हत्यारा बना देती है। निर्भया केस में सर्वाधिक क्रूरता नाबालिग दोषी ने ही दिखाई थी। अब फिर यह मांग उठी है कि आरोपी नाबालिग छात्र को बालिग मानकर मुकद्दमा चलाया जाए और उसे दंडित किया जाए। इस मामले की जांच की तुलना आरुषि हत्याकांड से की जाने लगी है। आरुषि हत्याकांड में अपनी फजीहत करा चुकी सीबीआई के लिए प्रद्युम्न हत्याकांड अपने आप में चुनौती है।

दूसरी तरफ हरियाणा पुलिस की जबर्दस्त फजीहत हुई है। इस मामले में भी यह एक बार फिर साबित हुआ कि पुलिस पर किसी मामले की तेजी से जांच का दबाव रहता है या कुछ कारण ऐसे होते हैं जिनकी वजह से पुलिस अपनी जांच का रुख मोड़ देती है। आरोपी को बचाने के चक्कर में किसी और को मोहरा बनाया जाता है। प्रद्युम्न हत्याकांड में तो कंडक्टर अशोक कुमार को हत्यारा बताकर महज 12 घंटे के भीतर ही पुलिस ने दावा कर दिया था कि मामला सुलझा लिया गया है लेकिन पुलिस की सारी थ्योरी की कमर सीबीआई ने तोड़ दी। गुड़गांव पुलिस की किरकिरी तो सीबीआई पहले भी कर चुकी है। गीतांजलि मर्डर केस तो सबको याद ही होगा। गीतांजलि के पति रवनीत गर्ग बतौर सीजेएम तैनात थे। पुलिस ने इसे आत्महत्या का मामला बताते हुए जांच की। जब गीतांजलि के पिता के प्रयासों से मामला सीबीआई के पास पहुंचा तो सीजेएम पर उनकी मां समेत दहेज हत्या कर मामला दर्ज हुआ। मेवात पुलिस ने डींगरहेड़ी के दोहरे हत्याकांड और गैंगरेप केस में कुछ युवाओं को पकड़ कर जेल में डाल दिया था लेकिन गुड़गांव पुलिस द्वारा किसी अन्य मामले में पकड़े गए बावरिया गिरोह ने यह वारदात कबूल कर ली। यह मामला भी सीबीआई के पास है। जाट आरक्षण आंदोलन के दौरान हुई हिंसा और उससे जुड़े मामलों को लेकर भी हरियाणा पुलिस अपनी जांच को सही तरीके से अन्जाम तक नहीं पहुंचा रही है। राम रहीम मामले में पंचकूला में हुई हिंसा और हनीप्रीत की तलाश तक पुलिस ने अपनी भद ही पिटवाई है।

एक भूतपूर्व मुख्य न्यायाधीश ने एक बार टि​प्पणी की थी कि ‘‘भारत में पुलिस तंत्र, चन्द अपवादों को छोड़कर, अपराधियों का सुसंगठित गिरोह है।’’ हमें इस प्रश्न का उत्तर कहां ढूंढना होगा कि बड़े लोग आखिर क्यों छूट जाते हैं। जब भी कोई घटना हो जाती है, अपराध घटित हो जाता है तो एफआईआर दर्ज करने के बाद सबसे बड़ी भूमिका पुलिस की होती है। क्या यह अपेक्षा की जा सकती है कि एक साधारण से एसएचओ पर किस-किस के, कहां-कहां से और कौन-कौन से दबाव पड़ते होंगे। जैसे ही वह जांच का काम शुरू करता होगा, अदृश्य शक्तियां उस पर दबाव डालना शुरू कर देती होंगी। वह जिनके रहमोकरम पर जिन्दा है, उसके खिलाफ वह खाक जांच करेगा। वह कौन सी ताकतें थीं जिन्होंने कंडक्टर अशोक कुमार को गुनाह कबूलने पर विवश किया और पुलिस ने भी उसके इकबालिया बयान के आधार पर आरोपी बना डाला। शुरू से ही न तो प्रद्युम्न के अभिभावकों आैर न ही अन्य लोगों को यह विश्वास हो रहा था कि कंडक्टर हत्यारा है । तो क्या पुलिस ने एक निर्दोष व्यक्ति को हत्यारा बना डाला?

आज की माताओं से पूछें, देश में वर्तमान लॉ एण्ड ऑर्डर की स्थिति देखकर यह बात लिखते हुए भी शर्म आती है कि उन्हें पुलिस पर विश्वास ही नहीं है। अपने बच्चों को घर पहुंचने में 10 मिनट की भी देरी हो जाए तो उनके दिल में कैसे-कैसे विचार आते हैं। सीबीआई ने तो कंडक्टर अशोक कुमार को हत्यारा नहीं माना तो फिर उसे जेल में रखने का कोई औचित्य नहीं। क्या अशोक को जेल भिजवाने के लिए स्कूल प्रबन्धन का दबाव था या पुलिस की नाकामी। सत्य सामने आना ही चाहिए, अर्द्धसत्य काफी खतरनाक होता है। ऐसा हम आरुषि हत्याकांड और अन्य कई मामलों में देख चुके हैं। भारतीय पुलिस तो पक्षपात की संस्कृति की वाहक है। उस पर जनता को अभूतपूर्व अविश्वास है जबकि प्रभावशाली सम्पर्क रखने वाले उस पर विश्वास करते हैं। लोगों को तो सीबीआई जांच पर भी भरोसा नहीं।

क्या मिलेगी उसके कातिलों को सजा,
आज अंधे कानून में नई उम्मीद ढूंढ रहे हैं,
कैसे भूलेंगे उस मासूम के वो अल्फाज
जो उसने अपनी तोतली जुबान में कहे होंगे
जब उस परिंदे की चीख निकली होगी
क्या होगी सजा उन हैवानों को?

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