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लोकतन्त्र मेें हिंसा का निषेध

लोकतन्त्र में जरा भी हिंसा का स्थान नहीं है। इस प्रणाली में वैचारिक मतभिन्नता को प्रकट करने के लिए ऐसे अहिंसक तरीके अपनाने की शर्त होती है जिनमें विरोधी पक्ष को किसी प्रकार के भौतिक नुकसान की गुंजाइश नहीं होती।

02:42 AM Dec 12, 2020 IST | Aditya Chopra

लोकतन्त्र में जरा भी हिंसा का स्थान नहीं है। इस प्रणाली में वैचारिक मतभिन्नता को प्रकट करने के लिए ऐसे अहिंसक तरीके अपनाने की शर्त होती है जिनमें विरोधी पक्ष को किसी प्रकार के भौतिक नुकसान की गुंजाइश नहीं होती।

लोकतन्त्र में जरा भी हिंसा का स्थान नहीं है। इस प्रणाली में वैचारिक मतभिन्नता को प्रकट करने के लिए ऐसे अहिंसक तरीके अपनाने की शर्त होती है जिनमें विरोधी पक्ष को किसी प्रकार के भौतिक नुकसान की गुंजाइश नहीं होती। यह कार्य विचारों के तीरों से ही एक-दूसरे के तर्कों को काट कर किया जाता है।  हिंसक माध्यमों का इस्तेमाल करके जब लोकतन्त्र में विरोधी के विचारों को काटने का प्रयास किया जाता है तो कानून-व्यवस्था की समस्या पैदा होती है जिसे काबू या नियन्त्रण में रखना राज्य स्तर पर सत्ताधारी दल की सरकार की जिम्मेदारी होती है। प. बंगाल में पिछले कुछ समय से जिस प्रकार का माहौल बना हुआ है उससे यही लगता है कि राज्य में राजनीतिक हिंसा लगातार बढ़ रही है। राजनीतिक दल यदि हिंसा का रास्ता अपना कर एक-दूसरे को पछाड़ने की गतिविधियों में शामिल होते हैं तो इससे अराजक व समाज विरोधी तत्वों को राजनीति में परोक्ष रूप से वैधानिकता प्राप्त होती है और वे समूची प्रणाली को विषाक्त बनाने के प्रयास करते हैं। कल प. बंगाल में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री जेपी नड्डा के काफिले पर जिस तरह पत्थरबाजी की गई उसका समर्थन किसी भी रूप मे नहीं किया जा सकता।
 राज्य में अगले साल की शुरुआती छमाही में चुनाव होने हैं जिसकी तैयारी सभी राजनीतिक दल अपने-अपने हिसाब से कर रहे हैं। इसी काफिले में भाजपा के भी कुछ अन्य नेता थे जिन्हें पत्थरबाजी के दौरान चोटें आयी हैं। प. बंगाल राजनीतिक रूप से बहुत सजग और सांस्कृतिक रूप से बहुत समृद्ध राज्य माना जाता है क्योंकि इस राज्य ने देश की स्वतन्त्रता की लड़ाई में एक से बढ़ कर एक एेसे बुद्धिजीवी दिये हैं जिनके  क्रान्तिकारी विचारों से पूरे देश की जनता प्रेरित हुई है। उनकी इस महान विरासत को 21वीं सदी में आकर चुनावी विजय के लिए किसी भी स्तर पर कलंकित करने का कार्य नहीं किया जा सकता है।
 बंगाल की धरती वैचारिक विविधता की खेती की उर्वरा भूमि रही है।  इसमें राष्ट्रवादी विचारों से लेकर समाजवादी व मार्क्सवादी विचारों की नदियां इस प्रकार बहती रही हैं कि आम जनता इन सभी के तात्विक गुणों का जायजा लेकर अपना लोकतान्त्रिक रास्ता तय करती रही है। बेशक साठ के दशक के अंत में इसी राज्य से नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरू हुआ था जिसने हिंसक रास्तों से राजनीतिक सत्ता को हथियाने की वकालत की थी परन्तु इस आन्दोलन को इसी राज्य की जनता के समर्थन से समाप्त भी कर दिया गया और संसदीय लोकतन्त्र के चुनावी रास्ते से जनसमस्याएं हल करने के लिए यहां की जनता ने मार्क्सवादी पार्टी के नेतृत्व में वामपंथी दलों को बाद में सत्ता चलाने का अधिकार 34 वर्षोंं से अधिक समय तक के लिए दिया।  इस वामपंथी शासन के दौरान राज्य में जो सीनाजोरी की राजनीति संस्थागत रूप में परिवर्तित हो गई थी उसे वर्तमान मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस पार्टी ने जनसमर्थन से उखाड़ फेंका। ममता दी का शासन पिछले दस वर्षों से इस राज्य में चल रहा है जिसे राजनीतिक तौर पर अब भाजपा चुनौती देती दिख रही है। इस चुनौती का जवाब देने के लिए सत्तारूढ़ दल को केवल लोकतान्त्रिक तरीकों का ही इस्तेमाल करना होगा और स्वयं भाजपा को भी ऐसे तत्वों से दूर रहना होगा जो इस स्थिति का लाभ उठाने की गरज से भेष बदल कर राजनीतिक विरोधियों की जमात में शामिल होने को बेताब हो जाते हैं, परन्तु पिछले कुछ महीनों से जिस तरह भाजपा के कार्यकर्ता हिंसा का शिकार हो रहे हैं उससे यह आशंका तो पैदा होती ही है कि राज्य में इस तरह की घटनाओं में सत्तारूढ़ पार्टी के कार्यकर्ताओं की हिमायत हो सकती है।  इस शंका का निवारण केवल राज्य सरकार ही कर सकती है क्योंकि कानून-व्यवस्था उसका विशेष अधिकार क्षेत्र है, परन्तु ऐसे मामलों में राज्य के राज्यपाल का कूदना भी अपेक्षित नहीं कहा जा सकता।
 राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने जिस तरह आज मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी की अपना वक्तव्य जारी करके खबर लेने की कोशिश की है उसे भी लोकतन्त्र में स्वीकार्य नहीं माना जा सकता क्योंकि राज्यपाल का कार्य चुनी हुई सरकार के सामान्य कामकाज में दखलन्दाजी करने का नहीं है। वह संवैधानिक मुखिया है और उनका कार्य राज्य में संविधान के अनुसार काम करती सरकार को देखना भर है। संविधान की अवहेलना होने पर वह इसका संज्ञान ले सकते हैं और अपने दायित्व के अनुसार केन्द्र को इससे अवगत करा सकते हैं। उनका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है। मगर ममता दी का दायित्व बनता है कि वह किसी भी तरह राजनीतिक हिंसा को न होने दें और इसके लिए राज्य पुलिस प्रशासन को सदा सावधान रखें। हालांकि श्री नड्डा पर हमले की जांच का आदेश उन्होंने पुलिस प्रशासन को दे दिया है और उसने अपना काम भी शुरू कर दिया है परन्तु हमें ऐसी ही पिछली घटनाओं का भी संज्ञान लेना होगा और देखना होगा कि उनमें की गई जांच का क्या निष्कर्ष निकला। इसके साथ ही पुलिस को अपनी भूमिका पूरी तरह अराजनीतिक होकर निभानी होगी और समस्या की जड़ तक जाना होगा।  राजनीतिक हिंसा पर दल से ऊपर उठ कर देश के लोकतन्त्र की रक्षा की नीयत से काम करना ही राजनीतिक दलों का राष्ट्रीय दायित्व होता है क्योंकि संसदीय लोकतन्त्र में विभिन्न राजनीतिक दलों के ‘वैचारिक वीर’ ही बाहुबल को परास्त करने की अद्भुत क्षमता रखते हैं।
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