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चुनावों में उठते जन विमर्श

03:14 AM Oct 01, 2023 IST | Aditya Chopra
चुनावों में उठते जन विमर्श

पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों की समय सारिणी घोषित होने में अब थोड़ा ही समय बचा है मगर प्रमुख राजनैतिक दलों ने जनता के बीच अपने-अपने जन विमर्श खड़े करने की कवायद तेजी से शुरू कर दी है। एक तरफ जहां राजनैतिक यात्राओं का दौर अभी भी चल रहा है वहीं दूसरी तरफ राजनैतिक नेता जनसभाएं या रैलियां भी सम्बोधित करने में एक-दूसरे से प्रतियोगिता करते लगते हैं। इन पांचों राज्यों मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, तेलंगाना व मिजोरम में निश्चित रूप से प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ही है जिसका अलग-अलग पार्टियों से अलग-अलग राज्यों में मुकाबला है। इनमें से तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का भाजपा से सीधा मुकाबला है जबकि तेलंगाना में इसका भारत राष्ट्रीय समिति से और मिजोरम में वहां की सत्ताधारी क्षेत्रीय पार्टी से। इसलिए यह निश्चिन्त होकर कहा जा सकता है कि इन पांचों राज्यों के चुनाव परिणाम कांग्रेस के लिए जीवन-मरण का प्रश्न होंगे। हालांकि भाजपा पर भी इन चुनाव परिणामों का प्रभाव लगभग ऐसा ही होगा क्योंकि यह पार्टी केन्द्र में सत्तारूढ़ है और लोकसभा के चुनाव भी बहुत जल्दी अगले साल अप्रैल महीने में शुरू हो जायेंगे। परन्तु असली अग्नि परीक्षा कांग्रेस की ही होगी क्योंकि यह दो राज्यों राजस्थान व छत्तीसगढ़ की सत्ताधारी पार्टी है।
मध्य प्रदेश में बेशक भाजपा की सरकार है मगर इसे चोर दरवाजे से बनी सरकार कहा जाता है क्योंकि 2018 के पिछले चुनावों के बाद इस राज्य में कांग्रेस के श्री कमलनाथ की ही सरकार बनी थी मगर इसके सवा साल बाद ही कांग्रेस के ज्योतिरादित्य सिन्धिया ने बागी तेवर अपना कर कांग्रेस के 25 के लगभग विधायकों का विधानसभा से इस्तीफा दिलवा कर कमलनाथ सरकार को अल्पमत में कर दिया था और बाद में इन पूर्व विधायकों ने भाजपा में शामिल होकर पुनः उपचुनाव लड़ा और कांग्रेस को इनके खिलाफ अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिल सकी। इस हकीकत को देखते हुए मध्य प्रदेश में कांग्रेस पार्टी भाजपा पर अपना बहुमत चुराने या खरीदने का आरोप लगा कर ताजा चुनावों में जनता की सहानुभूति बटोरने की कोशिश भी कर रही है। परन्तु राज्यों के चुनावों में हर राज्य में अपना अलग चुनावी मुद्दा होगा। लेकिन हम देख रहे हैं कि भाजपा इनमें से किसी भी राज्य में अपने किसी भी नेता को आगे रख कर चुनाव नहीं लड़ रही है और केवल प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर चुनाव जीतना चाहती है। इसका लाभ भाजपा को यह हो सकता है कि वह सूबे के चुनावों में राष्ट्रीय मुद्दों को चुनावी विमर्श बना कर कांग्रेस को हाशिये पर खड़ा करे।
चुनावों में हम देख सकते हैं कि भाजपा के स्टार प्रचारक प्रधानमन्त्री स्वयं कांग्रेस के मुख्यमन्त्रियों से उनके पांच साल के शासन का हिसाब-किताब मांगे जिसके जवाब में कांग्रेस को भी मजबूरन राष्ट्रीय मुद्दों की तरफ लौटना पड़ सकता है। देखना यह होगा कि राज्यों के चुनावों के बहाने भाजपा व कांग्रेस दोनों ही किस प्रकार राष्ट्रीय मुद्दों पर एक-दूसरे को घेरने का उपक्रम करते हैं और अन्त में बाजी किसके हाथ रहती है। मगर इन सब विषयों से अलग लोकतन्त्र में चुनाव राजनैतिक दलों के लिए बेशक उत्सव होते हैं मगर आम मतदाता के लिए ये सत्तारूढ़ दल से जवाबतलबी करने का मौसम होता है। यदि और ध्यान से देखें तो चुनाव आम मतदाता को और अधिक जागरूक व सचेत और सजग बनाने का अवसर भी होता है। सत्तारूढ़ सरकारों का कर्त्तव्य बनता है कि वे अपने मालिक मतदाता को अपने शासन को पूरा हिसाब-किताब दें क्योंकि लोकतन्त्र में लोगों के एक वोट के संवैधानिक अधिकार से गठित सरकार न तो राज्य की मालिक होती है और न राष्ट्र की बल्कि वह जनता की नौकर होती है जिसकी मजदूरी हर पांच साल बाद आम जनता उसके द्वारा किये गये काम के आधार पर देती है। अतः राजनैतिक दल जो भी विमर्श खड़े करते हैं उनकी तसदीक आम जनता को इसी कसौटी पर करनी चाहिए। जाहिर है कि कांग्रेस पार्टी बेरोजगारी व महंगाई के अलावा समाज में व्याप्त घृणा व नफरत के माहौल और अमीर-गरीब के बीच बढ़ती आर्थिक खाई को प्रमुख मुद्दा बनाने की कोशिश कर रही है जबकि भाजपा की तरफ से राष्ट्रवाद से जुड़े विभिन्न मुद्दों यथा विश्व में बढ़ते भारत के सम्मान व दुनिया में भारत के पांचवीं अर्थव्यवस्था बनने आदि के मुद्दों को उभारना चाहती है। यहीं आकर राष्ट्रीय व क्षेत्रीय मुद्दों में बिखराव की स्थिति भी बनती है जिससे मतदाता भ्रम में भी आ सकते हैं। परन्तु भारत के सन्दर्भ में यह भी वास्तविकता है कि दुनिया के लगभग दो सौ देशों में भारत के औसत आदमी की प्रति व्यक्ति आय 128वें नम्बर पर है और देश के पांच प्रतिशत अमीर कहे जाने वाले लोगों के पास 63 प्रतिशत राष्ट्रीय सम्पत्ति है जबकि 50 प्रतिशत गरीब कहे जाने वाले लोगों का राष्ट्रीय सम्पत्ति में हिस्सा मात्र 3 प्रतिशत ही है। ये आंकड़े भारत में आर्थिक असमानता के हैं परन्तु दूसरी तरफ भारत अधिकाधिक आधुनिक उत्पादों को स्वयं उत्पादन कर रहा है और इसकी रक्षा सामग्री का उत्पादन भी देश में बढ़ा है तथा फौज मजबूत हुई है। लेकिन लगातार शिक्षा के महंगे होने से समाज के कमजोर वर्ग के होनहार बच्चों के लिए उच्च शिक्षा प्राप्त करना कठिन भी होता जा रहा है। सवाल मुद्दों का अगर देखें तो ये सामान्य नागरिकों से जुड़े होकर राष्ट्रीय फलक तक नजर है । फैसला निश्चित रूप से लोकतन्त्र की मालिक जनता को ही करना है क्षेत्रीय चुनावों में भी और राष्ट्रीय चुनावों में भी।

आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com

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