लोकतन्त्र में जनसम्पर्क यात्राएं
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किसी भी राज्य में चुनावों की विधिवत घोषणा किये जाने से पूर्व सत्ताधारी दलों के मुख्यमन्त्रियों की जब जनयात्राएं निकाली जाती हैं तो उनके साथ सत्ता का पूरा ताम-झाम चलता है जो चुनाव आयोग द्वारा चुनाव तिथियों की घोषणा किये जाने से पहले मतदाताओं को समय पूर्व ही लुभाने के उपक्रम की तरह देखा जा सकता है। चुनाव आयोग जिस दिन चुनाव कार्यक्रम की घोषणा करता है उसी दिन से चुनाव आचार संहिता लागू हो जाती है। अतः एेसी यात्राओं पर होने वाले धन के खर्च को चुनाव खर्चे में शामिल नहीं किया जा सकता। बेशक राजनैतिक दलों को अधिकार है कि वे अपने प्रचार-प्रसार के लिए किसी भी समय का चुनाव कर सकते हैं परन्तु सरकार और राजनैतिक दल में अन्तर होता है। बहुमत के आधार पर जो भी सरकार चुनी जाती है वह केवल उन मतदाताओं की सरकार नहीं होती जिन्होंने उसके राजनैतिक दल को मत दिया है बल्कि वह प्रदेश के सभी मतदाताओं की सरकार होती है और इनमें वे मतदाता भी शामिल होते हैं जिन्होंने विपक्षी दलों को मत दिया होता है। अतः चुनावों की घोषणा होने से पूर्व सत्ता में बैठी हुई सरकार अपने राजनैतिक फायदे की नजर से जो भी धन खर्च करती है वह सरकारी खजाने से ही जायेगा और उस जनता की जेब से जायेगा जिसके दिये गये शुल्क की बदौलत सरकार चलती है।
यह लोकतन्त्र में जनता के धन पर निजी हितों को बढ़ावा देने के अलावा और कुछ नहीं कहा जा सकता। अगले चुनावों के नतीजे आने तक पुरानी सरकार ही काबिज रहती है हालांकि चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद समूचा प्रशासन तन्त्र चुनाव आयोग अपने नियन्त्रण में संविधानतः ले लेता है जिसकी वजह से इस दौरान किसी भी दल की सरकार की हैसियत उस राजनैतिक दल के कलेवर में बन्ध जाती है जिसका विधानसभा में बहुमत था। इस दौरान मुख्यमन्त्री या कोई भी मन्त्री जो भी चुनावी दौरा करेगा उसका खर्च सरकार की जगह उसकी पार्टी को वहन करना होगा और मुख्यमन्त्री अपने पद पर रहने के बावजूद एक राजनैतिक दल के प्रतिनििध के रूप में ही चुनाव प्रचार करेगा। किसी सरकारी अमले की उसके चुनाव प्रचार में हिस्सेदारी पूरी तरह अवैध होगी।
1975 में प्रधानमन्त्री स्व. इंदिरा गांधी का रायबरेली लोकसभा सीट से चुनाव इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश स्व. जगमोहन लाल सिन्हा ने इसी आधार पर अवैध घोषित किया था क्योंकि उन्होंने अपने चुनाव में प्रधानमन्त्री कार्यालय में तैनात विशेष अधिकारी के पद पर कार्यरत स्व. यशपाल कपूर की सेवाएं लेने की गलती कर डाली थी। अतः चाहे मध्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान हों या किसी अन्य प्रदेश के मुख्यमन्त्री, उन्हें चुनाव घोषणा होने से पूर्व राजनैतिक हित साधने के किसी भी जनसम्पर्क अभियान से बचना चाहिए था और एेसे कार्यक्रमों को राजनीति से पूरी तरह दूर रखना चाहिए था। क्योंकि जब एक बार बहुमत की सरकार काबिज हो जाती है तो अगले चुनावों की आचार संहिता लागू होने के समय तक वह समस्त जनता की सरकार होती है और उसके द्वारा खर्च किये गये एक-एक पैसे का हिसाब-किताब लेने का उसे संवैधानिक अधिकार होता है। इस बात का भी गंभीरता के साथ संज्ञान लिये जाने की जरूरत है कि कोई भी सरकार जनता के किसी भी वर्ग को राहत पहुंचाने के लिए किसी धार्मिक दायरे को नहीं खींच सकती है।
एेसा कार्य संविधान की कसौटी पर किसी भी तरह खरा नहीं उतर सकता मगर मूल प्रश्न चुनाव पूर्व यात्राओं का है। इन्हें कोई भी नाम दिया जा सकता है परन्तु इन पर खर्च होने वाले हिसाब-किताब को किस तरह भुलाया जा सकता है। चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद किसी भी प्रकार की यात्राएं यदि राजनैतिक दलों के मुख्यमन्त्री या मन्त्री निकालते हैं तो उस पर एतराज नहीं किया जा सकता क्योंकि चुनाव आयोग स्वयं इस बात की जिम्मेदारी लेता है कि प्रत्येक राजनैतिक दल को एक समान अवसर उपलब्ध हो परन्तु हमें ध्यान रखना होगा कि लोकतन्त्र विपक्षी दलों को चुनाव पूर्व यात्राएं करने से भी नहीं रोकता क्योंकि सरकार के वजूद में रहते हुए ही उन्हें उसका विरोध सदन से लेकर सड़क तक करने का वैधानिक अधिकार होता है। विपक्षी दल जो भी विरोध करेंगे वह सरकारी नीतियों को लेकर होगा और उस राजनैतिक दल के खिलाफ होगा जिसकी सरकार है।
इसी प्रकार सत्ता में बैठे राजनैतिक दल को भी यह अधिकार होता है कि वह अपने पक्ष में जनसमर्थन जुटाने के लिए जमकर प्रचार करे और यात्राएं तक निकाले परन्तु इसकी अगुवाई राजनैतिक दल के नेता ही करेंगे। जिस प्रकार चुरहट में शिवराज सिंह की जन आशीर्वाद यात्रा के रथ पर पथराव हुआ है उसे हम राजनैतिक रंग में नहीं रंग सकते क्योंकि चुनावों की घोषणा होने तक विरोध उनकी सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर होने की ज्यादा संभावनाएं हैं लेकिन दूसरी तरफ कर्नाटक के स्थानीय निकाय चुनावों में कांग्रेस पार्टी की जीत पर निकले जुलूस पर तेजाब से हमला इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता।
भारत के लोकतन्त्र की सबसे बड़ी खूबी यही है कि यह हमें उस इन्द्रधनुषी विभेद की जानकारी कराता है जिसमंे सात रंगों के अलग-अलग होने के बावजूद प्रकाश का रंग एक हो जाता है किन्तु सवाल भाजपा या कांग्रेस का नहीं है बल्कि हमारे लोकतन्त्र का ज्यादा से ज्यादा जन उत्तरदायी होने का है। यही वजह तो है कि चुनाव आयोग आचार संहिता लागू करके प्रत्येक राजनैतिक दल को उन सीमाओं में बांध देता है जो आम मतदाता को इस व्यवस्था का ‘शहंशाह’ घोषित करती हैं। लोकतन्त्र कांग्रेस व भाजपा दोनों से ही कहता है कि जो भी करो सरकार और राजनैतिक दल का भेद समझते हुए करो और मतदाता को अपना ‘माई-बाप’ समझ कर करो।