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पंजाब के मतदान का निष्कर्ष

पंजाब का मिजाज कई मायनों में अनूठा माना जाता है।

02:25 AM Feb 21, 2022 IST | Aditya Chopra

पंजाब का मिजाज कई मायनों में अनूठा माना जाता है।

पंजाब का मिजाज कई मायनों में अनूठा माना जाता है। सर्वप्रथम तो पंजाब की संस्कृति का केन्द्र सिख गुरुओं की महान परंपरा के अनुसार ‘इंसानियत’ होता है, दूसरे यहां के लोग निडरता, दिलेरी के साथ सत्य का साथ देने को हमेशा तत्पर रहते हैं और तीसरे यहां की संस्कृति में ‘कर्म’  अर्थात कृत को सबसे ऊंचे पायदान पर रखा गया है। अतः पंजाबी जो भी कार्य करते हैं पूरी निष्ठा व लगन के साथ करते हैं और संभवतः यही इनकी हर क्षेत्र में कामयाबी का राज है। यदि हम स्वतन्त्र भारत की राजनीति को लें तो इसी राज्य ने सबसे पहले अपने लोगों को जीवन के प्रमुख क्षेत्रों में आत्मनिर्भर बनाने का कार्य स्व. मुख्यमन्त्री सरदार प्रताप सिंह कैरों के नेतृत्व में किया था। इसकी वजह भी यही थी कि पंजाबियों में न केवल देश-काल परिस्थिति के अनुसार अपनी सफलता का रास्ता खोजने की सलाहियत होती है बल्कि ‘भावुकता’ के स्थान पर ‘वास्तविकता’ के अनुरूप कदम-ताल तय करने की योग्यता होती है।
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वैज्ञानिक सोच भी इनकी संस्कृति का ही एक अभिन्न अंग होती है जिसकी वजह से राजनीतिक क्षेत्र में भी ये अपने कृत या कर्म को मुस्तैदी के साथ निभाते हैं। पिछले 2017 के विधानसभा चुनावों में पंजाब कुल मतदान 77.2 प्रतिशत हुआ था। पूर्वोत्तर के राज्यों के बाद उत्तर भारत में यह मतदान प्रतिशत उल्लेखनीय था जिससे यह अन्दाजा लगाया जा सकता था कि राज्य के लोग राजनीतिक स्थिरता को लोकतान्त्रिक प्रशासन प्रणाली की महत्वपूर्ण शर्त मानते हैं। 2012 के चुनावों को छोड़ कर पंजाब के लोगों ने कभी भी अपने वोट की ताकत से सत्ताधारी व विपक्षी दल के बीच मतों का खासा अन्तर रखा। केवल 2012 में ही मात्र एक प्रतिशत से कम वोटों के अन्तर से अकाली दल लगातार दूसरी बार भाजपा के सहयोग से सत्ता पर काबिज होने में सफल हो सका था। निश्चित रूप से पंजाब की राजनीति में यह अपवाद था जो अकाली दल के रणनीतिकार श्री सुखविन्दर सिंह बादल की उस चुनावी रणनीति का परिणाम था जिसके तहत उन्होंने कांग्रेस से बागी होने वाले सभी प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने के लिए ‘प्रेरित’ किया था परन्तु 2017 में पंजाब के मतदाताओं ने इस नुक्ते को पकड़ कर कांग्रेस पार्टी के पक्ष में अपना स्पष्ट जनादेश दिया और उसे 117 सदस्यीय विधानसभा में 77 सीटें दे दीं जबकि आम आदमी पार्टी को 18 व अकालियों को 15 व भाजपा को तीन सीटें दीं और शेष अन्य छोटे दलों को दे दीं परन्तु इस बार 2017 के मुकाबले जिस तरह कम मतदान हुआ है उसे देखते हुए यह नतीजा निकाला जा सकता है कि लोगों में सत्ता विरोधी भावना की वह तीव्रता नहीं है जिसका कयास विभिन्न विपक्षी दल लगा रहे थे । इसकी वजह यह भी मानी जा सकती है कि विपक्ष स्वयं ही इस बार कई खेमों में बंटा हुआ है हालांकि पिछले चुनावों में भी आम आदमी पार्टी राज्य की राजनीति में एक नये खिलाड़ी के तौर पर ही थी, इसके बावजूद यह अकाली दल से आगे निकल गई थी। निश्चित रूप से पंजाब में यह एक नया प्रयोग था। इस बार यदि गौर से देखा जाये तो राज्य की राजनीति में जातिवादी प्रयोग भी हो रहा है जो अकाली दल ने सुश्री मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबन्धन करके किया है परन्तु यह गठबन्धन मुख्यमन्त्री श्री चरणजीत सिंह चन्नी की गरीब व दलित छवि की काट के तौर पर ही किया गया ज्यादा लगता है क्योंकि पंजाब ऐसा  राज्य है जहां जातिवादी राजनीति का अस्तित्व कभी नहीं रहा। बेशक पंजाब में 32 प्रतिशत के लगभग दलित हैं परन्तु यदि हम भारत के अन्य राज्यों के दलितों की तुलना में इनका आंकलन करें तो अपनी कद-काठी और शारीरिक सौष्ठव के लिहाज से ये अन्य पंजाबियों के समान ही होते हैं। अतः संभावना यही है कि पंजाब की उदार व खुली संस्कृति को देखते हुए यहां की राजनीति जातिवाद से परे ही रहेगी और लोग अपनी सैद्धान्तिक विचारधारा के अनुसार विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रत्याशियों का चुनाव करेंगे लेकिन विचारणीय मुद्दा यह जरूर रहेगा कि इस बार पिछली बार से कम मतदान कम क्यों हुआ। इसकी एक वजह यह भी लगती है कि जिस तरह किसान आन्दोलन चलाने वाले विभिन्न संगठनों ने स्वयं को राजनीतिक कलेवर में ढाल कर चुनाव में अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे उससे भी लोग निराश हुए हैं और मतदाताओं में भ्रम की स्थिति बनी है परन्तु मुश्किल मार्गों से गुजर कर ही अपनी सफलता का मार्ग ढूंढना पंजाबियों की खासियत होती है अतः उम्मीद करनी चाहिए कि आगामी 10 मार्च को जब मतों की गिनती होगी तो विधानसभा में स्पष्ट बहुमत की सरकार बनेगी। दरअसल पंजाब की भौगोलिक व राष्ट्रीय सुरक्षा की दृष्टि से रणनीतिक स्थिति ऐसी  है कि इस राज्य में हर हालत में राजनीतिक स्थिरता रहनी चाहिए। चुनाव खत्म हो गया है और पंजाब के मतदाताओं ने अपने निर्णय को ईवीएम में कैद कर दिया है अतः उन मुद्दों का अब कोई महत्व नहीं है जो विभिन्न राजनीतिक दलों ने चुनाव प्रचार के दौरान उठाये थे। 
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