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प्रश्न न्या​यपालिका की गरिमा का...

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11:41 PM Nov 11, 2017 IST | Desk Team

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भारत की न्याय प्रणाली को विश्व की सर्वश्रेष्ठ प्रणाली माना जाता है और भारत के हर नागरिक को इसका सम्मान करना चाहिए। मैं अन्य देशों की न्याय प्रणालियों के समक्ष अपने भारत की न्याय प्रणाली की तुलना करता हूं तो मुझे न्यायपालिका पर गर्व होता है। शीर्ष अदालतों के प्रति भारत के नागरिकों का अटूट विश्वास अभी तक कायम है लेकिन जिस तरह अपने यहां न्याय प्रदान करने के मार्ग में विसंगतियां आई हैं, उस पर मेरी व्यक्तिगत राय है कि कानूनों को सुधारने की अपेक्षा हमें स्वयं आैर न्यायपालिका को अंतःनिरीक्षण करने की जरूरत है। साथ ही यह भी आत्ममंथन की जरूरत है कि कहीं हम ही तो दुर्भावना की स्थिति में कार्य नहीं कर रहे। आज की दुनिया में लोग तुरन्त किसी के सम्बन्ध में धारणा बना लेते हैं और इसी धारणा के आधार पर हम अपने विचार व्यक्त करते हैं। इसी आपाधापी में सत्य विस्मृत हो जाता है, फिर भी सत्य में अपनी एक ताकत अवश्य होती है। न्यायपालिका सत्य की पक्षधर होती है, इसे न्याय के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता। अतः न्याय की देवी आंखों पर काली पट्टी बांधे होती है।

जजों के नाम पर कथित रिश्वतखोरी के मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट में हाई वोल्टेज ड्रामा हुआ। न्यायपालिका के इतिहास में शायद इस तरह का ड्रामा पहली बार देखा गया। सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों की संवैधानिक पीठ ने दो जजों की बैंच के उस आर्डर को रद्द कर दिया जिसमें मामले की सुनवाई के लिए बड़ी बैंच बनाने को कहा गया था। मेडिकल प्रवेश घोटाले में आेडिशा हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश की भूमिका की जांच एसआईटी से कराने की मांग को लेकर दायर याचिका पर सुनवाई के लिए दो सदस्यीय पीठ ने इस मामले को संविधान पीठ के हवाले करने का आदेश दिया था। याचिका में निजी मेडिकल कॉलेजों को एमबीबीएस कोर्स में छात्रों को प्रवेश दिलाने में सक्षम बनाने में न्यायाधीश आई.एम. कुदुशी की भूमिका पर सवाल उठे थे। सुप्रीम कोर्ट की ओर से इन संस्थानों में एमबीबीएस कोर्स में छात्रों के प्रवेश पर रोक लगा दी गई थी। इस मामले में न्यायाधीश कुदुशी को सितम्बर में गिरफ्तार किया गया था और वह अब भी तिहाड़ जेल में बन्द हैं। वर्ष 2004-2010 के दौरान ओडिशा हाईकोर्ट के न्यायाधीश रहे कुदुशी को सीबीआई ने कानूनी तौर पर निजी मेडिकल कॉलेजों का निर्देशन करने आैर शीर्ष अदालत में चल रहे मामलों को उनके पक्ष में निपटारा करने का भरोसा दिलाने का आरोपी ठहराया है।

इस मामले में रिश्वतखोरी के आरोप भी लगे हैं। चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुवाई वाली 5 जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा कि दो या तीन जजों की पीठ चीफ जस्टिस को किसी विशेष बैंच के गठन का निर्देश नहीं दे सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चीफ जस्टिस कोर्ट के सर्वेसर्वा हैं। यह तय करना उनका विशेषाधिकार है कि किस मामले की सुनवाई कौन करेगा? इस दौरान याचिकादाता के वकील प्रशांत भूषण ने चीफ जस्टिस से मामले की सुनवाई से खुद को अलग करने को कहा क्योंकि सीबीआई की एफआईआर में कथित तौर पर उनका भी नाम है। जब चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा ने कहा कि ‘‘मेरे खिलाफ आरोप निराधार हैं और आप पहले एफआईआर पढ़ें।’’ हाला​ंकि प्रशांत भूषण एफआईआर में चीफ जस्टिस का नाम नहीं दिखा पाए लेकिन जो कुछ भी हुआ वह दुर्भावनापूर्ण ही है। प्रशांत भूषण आैर चीफ जस्टिस आपस में जिस तरह भिड़े वह भी न्यायपालिका की मर्यादा के प्रतिकूल है। हैरानी होती है कि कोई अधिवक्ता मुख्य न्यायाधीश से किसी मामले की सुनवाई न करने की मांग करता है, यह भी एक तरह से अवमानना ही है। अगर एफआईआर में चीफ जस्टिस का नाम नहीं था तो प्रशांत भूषण ने उन पर आरोप क्यों लगाया? याचिकादाता एडवोकेट कामिनी जायसवाल ने भी आरोप लगाया कि चीफ जस्टिस एक माह के भीतर निचली अदालत के 6 फैसले रद्द कर चुके हैं।

शीर्ष न्यायालय में इस तरह के आरोप-प्रत्यारोप लगना न्यायपालिका की छवि पर जबर्दस्त आघात है। बड़े-बड़े मुद्दों पर शीर्ष न्यायपालिका मत-भिन्नता के बावजूद ऐतिहासिक फैसले देती रही है। दो न्यायाधीश एकमत होते हैं, तीसरे जज अपना अलग फैसला देते रहे हैं लेकिन बहुमत के आधार पर फैसला स्वीकार किया जाता रहा है लेकिन न्यायाधीशों के फैसलों पर प्रतिक्रिया कम ही व्यक्त की जाती है। न्यायाधीश न्याय की देवी का पुजारी, आराधक और साधक है। उसका चिन्तन, आचरण और कृति जिस आसन पर वह बैठता है उसके आदर्श और अपेक्षाओं के अनुरूप होना ही उसे न्यायाधीश का बाना पहनने का अधिकारी बनाता है, इसलिए न्यायाधीश का उद्देश्य, आचरण आैर कार्यशैली सभी उत्कृष्ट होना चाहिए। साधारण सांसारिक प्राणी का नैतिकता एवं उत्कृष्ट आचरण के पथ से विलग हो जाना उतना गम्भीर नहीं है जितना एक न्यायाधीश का बाना पहनने वाले व्यक्ति का विलग या विचलित हो जाना। किसी पूर्व न्यायाधीश या मौजूदा न्यायाधीश पर आरोप लगना भी अपने आप में गम्भी​र है क्योंकि न्यायालय कक्ष के भीतर और न्यायालय कक्ष से बाहर, वह जहां भी हो, अपने घर में भी आदर्श के उच्च मानदण्डों का पालन और अनुसरण उससे उपेक्षित है। न्यायपालिका को भी आत्ममंथन करना होगा कि कहीं उसकी कार्यशैली भेदभावपूर्ण तो नहीं हो गई। जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया काे पारदर्शी बनाने पर बहस होती रही है क्योंकि न्यायपालिका पर पक्षधरता के आरोप नहीं लगे। न्यायपालिका सर्वोच्च है, उसे सभी के कंधों से ऊपर होना ही चा​ि​हए। भ्रष्टाचार के आरोप तो जजों पर लगते रहे हैं, तो हम चिन्ता में घिर जाते हैं कि अगर न्यायपालिका से इस देश के लोगों का विश्वास उठ गया ताे फिर बचेगा क्या? क्या तब प्रजातंत्र बच सकेगा, क्या तब इसकी ग​िरमा बची रह सकेगी?

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