चुनावी गारंटी पर उठते सवाल
चुनावों के अवसर पर जनता को मुफ्त सौगात देने की जो नई परंपरा राजनैतिक दलों ने शुरू की है उसे परोक्ष रूप से मतदाताओं को रिझाने वाली रिश्वत ही कहा जायेगा।
चुनावों के अवसर पर जनता को मुफ्त सौगात देने की जो नई परंपरा राजनैतिक दलों ने शुरू की है उसे परोक्ष रूप से मतदाताओं को रिझाने वाली रिश्वत ही कहा जायेगा। लोकतन्त्र में गरीब व वंचित लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाएं जरूर शुरू की जाती हैं परन्तु उनका उद्देश्य गरीबों का आर्थिक रूप से सशक्तीकरण इस प्रकार से करना होता है कि गरीब आदमी के आत्मनिर्भर होने का सामर्थ्य बढे़। इस सन्दर्भ में भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री स्व. जवाहर लाल नेहरू को आजादी के कुछ समय बाद ही ओडिशा के तत्कालीन मुख्यमन्त्री स्व. डा. हरे कृष्ण मेहताब का वह पत्र आज के राजनीतिज्ञों की आंखें खोलने वाला है जो अपने राज्य के सबसे गरीब जिलों कालाहांडी आदि में अमेरिका द्वारा सामुदायिक विकास की मुफ्त योजनाएं चलाने के बारे में था। उस समय भारत में अमेरिका के राजदूत श्री चेस्टर बोल्स थे। उन्हें ओडिशा के गरीब व पिछड़े जिलों में सामुदायिक सुविधाएं स्थापित करने की इजाजत प. नेहरू ने दे दी थी। इस पर डा. मेहताब ने कड़ी आपत्ति की और लिखा कि हमारे देश के गरीब लोगों को यदि इस प्रकार से मुफ्त सुविधाएं किसी विदेशी सरकार द्वारा प्रदान की गईं तो उनमें आगे बढ़ने का जज्बा समाप्त हो जायेगा। इसके साथ ही स्वतन्त्र भारत में एेसी परियोजना यदि कोई विदेशी चलाता है तो इससे लोगों के मन में बैठी हुई दास मानसिकता को ही खुराक मिलेगी और लोग यही समझेंगे कि अब भी अंग्रेज लोग ही प्रशासन की देखभाल कर रहे हैं। यह पत्र बहुत लम्बा है जिसमें डा. मेहताब ने लिखा है, आज यदि आप अमेरिका को अनुमति देते हैं तो कल को सोवियत संघ भी एेसे काम करने की इजाजत मांग सकता है और भारत के लोग यही समझेंगे कि अभी तक वे अंग्रेजों के गुलाम हैं।
इस पत्र के कुछ अंश उद्घृत करने की मंशा यही है कि आज के राजनीतिज्ञ पुरानी घटनाओं से कुछ सबक लें। मगर वर्तमान दौर में इसका ठीक उल्टा हो रहा है और चुनावों से पहले मुफ्त में सौगात बांटने का चलन चल पड़ा है। इसमें भी राजनैतिक दलों के बीच ‘रेवडि़यां’ बांटने में प्रतियोगिता हो रही है। इस मामले में न कांग्रेस पीछे है और न भाजपा। बेशक इन रेवडि़यों को अब नया नाम ‘गारंटी’ का मिल गया है मगर इसके मूल में ‘रेवड़ी’ मानसिकता ही है। हाल ही में कर्नाटक के उप मुख्यमन्त्री श्री डी.के. शिवकुमार ने यह कह कर तहलका मचा दिया कि राज्य सरकार चुनावों के समय दी गई महिलाओं के बसों में मुफ्त सफर करने की गारंटी की समीक्षा करेगी। जाहिर है यह बयान एेसे मौके पर दिया गया जब महाराष्ट्र व झारखंड के चुनाव हो रहे हैं। श्री शिवकुमार के इस बयान को भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने लपक लिया और उल्टे सवाल खड़े कर दिये कि कांग्रेस चुनावों में जिन गारंटियों की बात करती है उन पर खरा नहीं उतर पाती।
दूसरी तरफ कांग्रेस के अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे ने भी अपनी पार्टी के नेता शिवकुमार को आड़े हाथों लिया और उनसे पूछा कि जब महाराष्ट्र में चुनाव हो रहे हैं तो उन्होंने भाजपा के हाथ में चुनावी प्रचार के दौरान कांग्रेस पार्टी के खिलाफ अस्त्र क्यों पकड़ाया। मगर इससे एक सवाल तो खड़ा हो रहा है कि जो गारंटियां चुनाव के वक्त जोश मेें आकर राजनैतिक दल आम मतदाता को देते हैं वे राज्यों की अर्थव्यवस्था में कहां तक लागू हो सकती हैं। दरअसल दिल्ली राज्य से शुरू हुई इस रेवड़ी परंपरा की कोई सीमा नहीं बांधी जा सकती क्योंकि मुफ्त का माल किसे नहीं अच्छा लगता। चुनावों के समय राजनैतिक दल जनता से वादे करते हैं और अपना घोषणा पत्र भी जारी करते हैं जिसमें उनकी सरकार बन जाने पर लोगों के लिए क्या-क्या राहतें मुहैया कराई जायेंगी। इसका ब्यौरा होता है। इसमें कोई बुराई नहीं है मगर इसमें ‘माले मुफ्त’ की गारंटी देना मतदाताओं को ललचाना ही कहा जायेगा। भारत की जनता को जो एक वोट का संवैधानिक अधिकार गांधी बाबा और डा. अम्बेडकर देकर गये हैं उसकी कीमत बिना शक ‘माले मुफ्त’ नहीं हो सकती। यह वोट का अधिकार भारत में हुई मूक क्रान्ति का प्रतीक है क्योंकि एक वोट की कीमत आंकने की मशीन अभी तक ईजाद नहीं हुई है। जरा सोचिये किसी टाटा या बिड़ला के वोट की कीमत भी वही है जो सड़क पर मजदूरी करने वाले या जूता गांठने वाले नागरिक के वोट की है। इस एक वोट की इतनी ताकत है कि बड़ी-बड़ी सरकारें बदल जाती हैं। एेसा हमने 1998 में देखा था जब एक वोट की वजह से ही केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा नीत वाजपेयी सरकार गिर गई थी।
अतः चन्द मुफ्त सुविधाएं या नकद धनराशि इस वोट की कीमत कैसे हो सकती है। मगर क्या चलन निकला है कि अब हर राज्य महिलाओं को मासिक आधार पर नकद राशि देने की योजना चला रहा है। गरीब महिलाओं की मदद जरूर होनी चाहिए मगर उन्हें श्रम की महत्ता का बोध करा कर। जब देश आजाद हुआ तो पं. नेहरू ने गरीबों की मदद के लिए क्रास सब्सिडी का प्रावधान रखा। अर्थात रईस आदमी से कुछ लेकर उसे गरीबों में बांटने के लिए। उदाहरण के तौर पर आर्थिक उदारीकरण से पहले हवाई जहाजों में सफर करने वाले यात्रियों से कुछ सरकार वसूल करती थी और उसका परोक्ष भुगतान गरीबों में करती थी। हवाई जहाज के ईंधन पर बड़ा टैक्स लगता था मगर उसे गरीबों को मिट्टी का तेल सस्ती दरों पर देकर पाट दिया जाता था। कुछ विद्वान तर्क दे सकते हैं कि मैं आर्थिक उदारीकरण के खिलाफ हूं मगर एेसी मेरी मंशा बिल्कुल नहीं है। भारत अब उदारीकरण से आगे निकल कर बाजार मूलक अर्थव्यवस्था के दौर में आ चुका है। इस अर्थव्यवस्था में लोक कल्याण एक चुनौती से कम नहीं है वह भी इस शर्त के साथ कि हर वंचित नागरिक को आर्थिक रूप से सम्पन्न बनाया जाये। यह काम नागरिकों की उत्पादकता बढ़ा कर ही किया जा सकता है। जहां तक रोजगार का सवाल है तो प्रत्येक पार्टी को हक है कि वह अपने सपनों के अनुसार इसे कम या खत्म करने की गारंटी दे। क्योंकि लोकतन्त्र में जितना नागरिक सशक्त बनेगा उतना ही देश भी सशक्त बनेगा।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com