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अभिव्यक्ति की उत्तेजकता पर उठते सवाल

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12:02 AM Oct 07, 2017 IST | Desk Team

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इस धरा पर सबसे ताकतवर शक्ति का ‘शब्द’ पाषाण काल में मनुष्य संकेतों का प्रयोग करता था। शब्दों का प्रयोग उसे विकसित मानवों की श्रेणी में ले आया है। आज हजारों मील दूर बैठे व्यक्ति को मोबाइल, इंटरनेट व सोशल मीडिया द्वारा वह शब्दों से आकर्षित भी करता है वहीं शब्दों की मिसाइल दागकर व्यक्ति को घायल भी करता है। शब्द अगर सृजन करते हैं तो विध्वंस भी करते हैं। मनुष्य अपने भावों को संवाद के जरिये व्यक्त करता है। आज व्यक्तियों, परिवार, समाज में नई ऊर्जा का संचार हो चुका है, यह हुआ शब्द शक्ति के कारण। उस शक्ति से संवाद प्रभावित हुआ है, वही अनुभव की कमी, अतिवाद की स्थितियां भी उत्पन्न हो रही है। यह सही है कि सोशल मीडिया के आने से अभिव्यक्ति का विस्तार हुआ है। आज लोगों के भाव जितने मुखर है, वह पहले नहीं थे। भावनाओं के मुखर होने से अभिव्यक्ति की आजादी का दुरुपयोग हो रहा है।

यह सही है कि हाल ही के वर्षों में बड़े आंदोलनों की शुरुआत सोशल मीडिया द्वारा ही की गई। 2011 के जनवरी माह में सोशल मीडिया द्वारा ही मिस्र में जबर्दस्त आंदोलन किया गया। ट्यूनीशिया में भी फेसबुक के जरिये ही वहां की सरकार के खिलाफ आम जनता लामबंद हुई। हालात ऐसे हो गए, सरकारों को फेसबुक और ट्विटर पर प्रतिबंध लगाना पड़ा। इसके बावजूद आंदोलन नहीं थमा तो मिस्र के राष्ट्रपति होस्नी मुबारक को इस्तीफा देना पड़ा। भ्रष्टाचार के खिलाफ सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे के आंदोलन को सफल बनाने का पूरा श्रेय सोशल मीडिया को ही जाता है। निर्भया बलात्कार कांड के बाद हुई सामाजिक क्रांति भी सोशल मीडिया के कारण ही हुई थी। हर चीज के दो पहलू होते हैं-अच्छा भी, बुरा भी। आज विचारों की अभिव्यक्ति का दुरुपयोग, निजता का हनन, सामाजिक जीवन से कटाव, लोगों में आपसी द्वेष को बढ़ावा देना आदि कुछ ऐसे नकारात्मक पक्ष हैं जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता।

सोशल मीडिया कितना अनसोशल हो चुका है, इसे देखकर बहुत से सवाल उठ खड़े हुए हैं। दुष्परिणामों के कारण ही सरकारों को हस्तक्षेप करना पड़ा है। विभिन्न नियामक कानूनों को बनाना पड़ रहा है। घटना छोटी हो या बड़ी, लोग अपनी भावनाएं व्यक्त कर रहे हैं लेकिन ऐसे शब्दों का प्रयोग इस्तेमाल हो रहा है जो एक तरह से गाली के समान होते हैं। लोग अश्लील और अभद्र शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं। कुछ टिप्पणियां और प्रतिक्रियाएं ऐसी होती हैं जिन्हें समाज स्वीकार नहीं कर सकता। यह कोई अभिव्यक्ति की आजादी नहीं बल्कि अभिव्यक्ति की उत्तेजकता है। सोशल मीडिया पर घृणा का खेल खेला जा रहा है। एक मैसेज से दंगे हो जाते हैं, तनाव पैदा हो जाता है। कोई नहीं देख रहा सच क्या है, झूठ क्या है। कोई चीज किस समय वायरल हो जाए, इसका कोई तय मनोविज्ञान नहीं।

सोशल मीडिया में गाली-गलौच की भाषा और लगभग हर मुद्दे पर आक्रामक टिप्पणियों पर देश की शीर्ष अदालत ने सख्त रुख अपनाते हुए इसे रोकने के लिए नियम बनाने पर जोर दिया है। उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री आजम खान की टिप्पणियों से जुड़े एक मामले की सुनवाई के दौरान यह मुद्दा उठा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि लोग तथ्यों की जांच किए बगैर अदालत की कार्रवाई के बारे में भी गलत जानकारी फैला देते हैं। पहले किसी की निजता का सिर्फ सरकार उल्लंघन कर सकती थी लेकिन अब यह काम सामान्य आदमी भी कर सकता है। आज बहुत से यूजर्स न्यायपालिका के फैसलों, न्यायाधीशों पर टिप्पणियां कर रहे हैं। सारी परिस्थितियों को देखते हुए कोर्ट ने मंत्री या सार्वजनिक पद पर बैठा व्यक्ति आपराधिक मामले की जांच लम्बित करने पर किस हद तक बयानबाजी कर सकता है, यह मुद्दा संविधान पीठ के पास भेज दिया है। कार्रवाई बुलन्दशहर सामूहिक दुष्कर्म कांड में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मंत्री आजम खान की टिप्पणी पर पीडि़त वर्ग की ओर से सुप्रीम कोर्ट में आपत्ति उठाए जाने के बाद शुरू हुई थी।

अभी तक भारत में ऐसा कोई कानून नहीं है, जो किसी व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के अधिकारों में दखल देने पर कार्रवाई का प्रावधान करता हो। हमारे देश में कानून सरकार द्वारा अधिकारों के हनन पर उपचार देते हैं लेकिन किसी व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति के अधिकारों के हनन पर कोई व्यवस्था नहीं है। इसके लिए कोई न कोई नियम या कानून होना ही चाहिए। एक तरफ सकारात्मक संवाद है तो दूसरी तरफ भ्रमित संवादों के जाल में फंसकर विचारहीन, दिग्भ्रमित लोग इकट्ïठे हो रहे हैं। आक्रामक, साम्प्रदायिक, अश्लील, मर्यादाओं का उल्लंघन करते शब्दों पर अंकुश लगना ही चाहिए। समाज को भी सशक्त और सकारात्मक विचारों को ग्रहण करना चाहिए अन्यथा विकृत भाव समाज को बांटकर रख देंगे। दूषित विचारों को पूरी तरह से दरकिनार किया जाना चाहिए। सोशल मीडिया के मंचों पर नजर रखना जरूरी हो गया है, इसके लिए कानून बनना ही चाहिए लेकिन देखना यह होगा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए।

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