दक्षिण के संकटमोचक राधाकृष्णन
एनडीए उम्मीदवार सी. पी. राधाकृष्णन, जो उपराष्ट्रपति पद की दौड़ में सबसे आगे हैं, एक दिलचस्प विकल्प हैं। हालांकि वह एक कट्टर आरएसएस कार्यकर्ता हैं लेकिन उनकी राजनीति दिवंगत प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की तरह सहमति वाली है। वह सहमति की राजनीति वाले वाजपेयी युग की उपज हैं और 1980 में भाजपा के गठन के समय वह दिवंगत प्रधानमंत्री के सहयोगी रहे थे। बाद में जब उन्हें भाजपा की तमिलनाडु इकाई का अध्यक्ष नियुक्त किया गया तो उन्होंने अपनी पार्टी के तमिल सहयोगी दलों, द्रमुक और अन्नाद्रमुक, दोनों को संभालने में एक प्रमुख भूमिका निभाई। वास्तव में, दोनों दलों के नेताओं के साथ उनके संबंध इतने अच्छे थे कि वे मज़ाक में उन्हें तमिलनाडु भाजपा का वाजपेयी कहते थे। कुछ लोग कहते हैं कि उन्हें वाजपेयी की तरह ही गलत पार्टी में सही व्यक्ति भी कहा जाता था। जब भाजपा ने दोनों द्रविड़ दलों से नाता तोड़ लिया और तमिलनाडु में अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया तो राधाकृष्णन की जगह के. अन्नामलाई को नियुक्त किया गया। अन्नामलाई की टकराव वाली राजनीति पार्टी के लिए ज़्यादा अनुकूल थी। हालांकि अब जब भाजपा ने अगले साल होने वाले राज्य विधानसभा चुनावों के लिए अन्नाद्रमुक के साथ गठबंधन करने का फैसला किया है तो अन्नामलाई को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया है।
दिलचस्प बात यह है कि उनकी जगह भाजपा विधायक नैनार नागेंद्रन को नियुक्त किया गया है जो अन्नाद्रमुक के पूर्व नेता और मंत्री हैं। राधाकृष्णन की पदोन्नति कई मायनों में मायने रखती है। अगले भाजपा अध्यक्ष के चुनाव को लेकर मतभेदों के बीच उनकी आरएसएस से जुड़ी साख संघ के लिए एक शांति प्रस्ताव है। द्रविड़ दलों के साथ उनका तालमेल भाजपा के अन्नाद्रमुक के साथ अपने गठबंधन को फिर से बनाने की कोशिशों में मूल्यवान साबित हो सकता है लेकिन शायद यह उनकी संयम और आम सहमति की प्रतिष्ठा ही थी जिसने भाजपा आलाकमान द्वारा उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के चयन के दौरान उनके पक्ष में वोट डाला। राधाकृष्णन पिछले उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के बिल्कुल विपरीत हैं, जिनका तीन साल का संक्षिप्त कार्यकाल उथल-पुथल भरा और विवादों से भरा रहा था।
धनखड़ का विपक्ष के साथ अक्सर टकराव होता रहा, जिसके परिणामस्वरूप रोज़ाना व्यवधान और हंगामा होता रहा। उनके कार्यकाल में विपक्षी सांसदों के निलंबन की संख्या भी सबसे ज़्यादा रही। उम्मीद है कि राधाकृष्णन राज्यसभा में कुछ शिष्टाचार और व्यवस्था वापस लाएंगे और मुद्दों पर पार्टी लाइन पर अड़े रहते हुए सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चलाएंगे। ज़ाहिर है, उपराष्ट्रपति पद पर धनखड़ का साया मंडरा रहा है क्योंकि मोदी सरकार उनके साथ हुए अपने दुखद अनुभव को दोहराने को तैयार नहीं है।
आवारा कुत्तों के विवाद में आरएसएस की एंट्री
दिल्ली में चल रहे आवारा कुत्तों के विवाद में आरएसएस की एंट्री हो गई है। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में कहा कि गली के कुत्तों को आश्रय स्थलों में नहीं रखा जाना चाहिए, जैसा कि पिछले हफ्ते सुप्रीम कोर्ट ने प्रस्तावित किया था। उन्होंने यह भी कहा था कि पकड़ो-नसबंदी करो-टीका लगाओ-छोड़ो की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आजमाई और परखी हुई विधि से उनकी संख्या कम की जानी चाहिए। भागवत के बयान के बाद आरएसएस समर्थक और कार्यकर्ता पशु अधिकार कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का विरोध करने लगे जिसमें दिल्ली नगर निगम को गली के कुत्तों को स्थायी रूप से आश्रय स्थलों में भेजने का आदेश दिया गया था जबकि शहर में उसका कोई आश्रय स्थल नहीं है।
कई नुक्कड़ विरोध रैलियों में हर-हर महादेव, जय श्रीराम और जय माता दी के नारे सुनना दिलचस्प था। इससे पता चलता है कि कुत्तों को खाना खिलाने और उनकी देखभाल करने वाले सिर्फ़ बड़ी कारों में बैठी दक्षिण दिल्ली की आंटियां नहीं हैं (जैसा कि कुछ आलोचकों ने उपहास किया है) बल्कि आरएसएस के समर्थक भी हैं। कहने वाले कह रहे हैं कि इन रैलियों में सुनाई देने वाली बातचीत और भी महत्वपूर्ण थी, उन्हीं भगवा समर्थकों द्वारा उस दिन को याद करना जब उन्होंने भाजपा को वोट दिया था और 27 साल बाद दिल्ली में भाजपा की सरकार बनीं थी।
प्रदर्शनकारियों का व्यवहार काफी उग्र था। ज़ाहिर है, आरएसएस सड़कों पर इस प्रदर्शन को लेकर चिंतित है। माना जा रहा है कि भागवत की आवारा कुत्तों के प्रबंधन के लिए आश्रयों की बजाय नसबंदी पर टिप्पणी भाजपा को इस मुद्दे को अधिक सहानुभूतिपूर्ण और मानवीय तरीके से संबोधित करने का संकेत है। यह बात धार्मिक नेताओं के एक सम्मेलन में उस समय कही थी जब दिल्ली के आवारा कुत्तों को बचाने का अभियान अपने चरम पर था। हालांकि कई नेता भागवत की बात से सहमत नहीं दिख रहे थे और आवारा कुत्तों को सड़कों से हटाने का अभियान चलाने के पक्ष में थे। हालांकि शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतिरम फैसले में कहा है कि जिन कुत्तों की वैक्सीनेशन की गई है उन्हें वहीं छोड़ा जाएगा जहां से उन्हें पकड़ा गया था। जो कुत्ते खूंखार या रेबीज पीडि़त हैं उन्हें नहीं छोड़ा जाएगा इस फैसले का सर्वत्र स्वागत किया जा रहा है।