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कट्टरपंथी संगठन मुस्लिम युवाओं को प्रभावित कर रहे हैं

03:55 AM Jul 05, 2025 IST | Editorial
कट्टरपंथी संगठन मुस्लिम युवाओं को प्रभावित कर रहे हैं

भारत के धार्मिक परिदृश्य के जटिल विन्यामस में, पहचान, विश्वास और सांप्रदायिक व्यवहार को आकार देने में मुस्लिम संगठन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनमें से जमात-ए-इस्लामी और तबलीगी जमात ने ऐतिहासिक रूप से खुद को इस्लामी पुनरुत्थानवादी आंदोलनों के रूप में स्थापित किया है। हालांकि वे सार्वजनिक रूप से हिंसा को नकारते हैं, लेकिन इस बात को लेकर चिंताएं बढ़ रही हैं कि उनके वैचारिक ढांचे और प्रभाव के नेटवर्क भारत में मुस्लिम युवाओं के एक हिस्से को संभवत: कट्टरपंथी बना रहे हैं। इस आलेख का उद्देश्य इस बात को उजागर करना है कि ये समूह किन तंत्रों, धारणाओं और परिपाटियों के माध्यम से काम करते हैं और इनके सिद्धांत किस तरह एकान्तिकता (या एक्सक्लयूसिविज्म), पृथकतावाद और यहां तक कि उग्रवाद की ओर झुक सकते हैं।
अबुल अला मौदूदी द्वारा 1941 में स्थापित जमात-ए-इस्लामी (जेईआई) केवल एक धार्मिक आंदोलन भर नहीं है। यह इस्लाम की राजनीतिक व्याख्या पर आधारित है, जिसका उद्देश्य शरिया द्वारा शासित इस्लामी राज्य की स्थापना करना है। जम्मू और कश्मीर में प्रतिबंधित होने के बावजूद, जेईआई पूरे भारत में, छात्र संगठनों और सामाजिक संगठनों में विभिन्न नामों और मोर्चों के तहत काम करना जारी रखे हुए हैं।
दूसरी ओर, तबलीगी जमात जाहिर तौर पर अराजनीतिक और आत्म विश्लेेषी है, जो व्यक्तिगत धर्मपरायणता और इस्लामी इंजीलवाद (दावा) पर केंद्रित है। लेकिन इस्लाम का इसका ब्रांड, कठोर, देवबंदी-आधारित और आधुनिकता-विरोधी, बहुलवाद को हतोत्साहित करता है और एक ऐसा विश्व दृष्टिकोण स्थापित करता है, जहां धार्मिक पहचान राष्ट्रीय पहचान से बढ़कर होती है। इस पर अक्सर युवाओं को समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग करने वाले इको चैंबर बनाने का आरोप लगाया जाता है। दोनों समूहों के तरीकों में भिन्नता होने, जेईआई के राजनीतिक रूप से सक्रिय होने और तबलीगी जमात के अति आध्यात्मिक होने के बावजूद दोनों ही द्विआधारी, अलगाव को जन्म देने वाली हम-बनाम-वे की धारणाओं को बढ़ावा देते हैं।
जमात-ए-इस्लामी की सबसे प्रमुख शाखा इसकी छात्र इकाई है। यद्यपि यह छात्र इकाई खुद को शिक्षा और सामाजिक न्याय के एक मंच के रूप में पेश करती है, लेकिन यह अक्सर धर्मनिरपेक्षता का विरोध करने, इस्लामी शासन का महिमामंडन करने और सांप्रदायिक पहचान को मजबूत करने वाले जमात के वैचारिक स्वर को प्रतिबिंबित करती है। केरल, पश्चिम बंगाल और दिल्ली के परिसरों में, जेईआई की छात्र इकाई ने वैचारिक रूप से अनुशासित एक कैडर तैयार किया है जो आधुनिक राजनीति और पश्चिमी उदारवाद को इस्लाम के विपरीत मानता है। इन युवा भर्तियों को अक्सर बौद्धिक इस्लाम की आड़ में लोकतंत्र विरोधी विचारों से परिचित कराया जाता है।
इस बीच, तबलीगी जमात युवा अनुयायियों का लो-प्रोफ़ाइल लेकिन गहरा नेटवर्क बनाए रखे हुए है, जिन्हें चिल्ला, (40-दिवसीय मिशनरी दौरे) के माध्यम से प्रशिक्षित किया जाता है। युवाओं को नियमित शिक्षा या नौकरी छोड़ने, खुद को गैर-इस्लामिक वातावरण से अलग करने और उम्माह को शुद्ध करने के लिए अपना जीवन समर्पित करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। अंध फर्माबरदारी, समान ड्रेस कोड और कठोर जेंडर अलगाव पर जोर वैचारिक कट्टरता का एक प्रारंभिक रूप है।
इको चैंबर्स, अलगाव और कट्टरपंथ का प्रवेशद्वार
घोषित रणनीति में दोनों समूह अहिंसक हैं, लेकिन इसका आशय यह नहीं है कि वे गैर-कट्टरपंथी हैं। कट्टरपंथ की प्रक्रिया हमेशा हिंसा से संबंधित नहीं होती, अपितु यह एक ऐसी मानसिकता तैयार करने से संबंधित होती है जो अलगाववाद, संवैधानिक मूल्यों की अस्वीकृति और ", अन्य & quot; के प्रति अविश्वास को सामान्य बनाती है। इन समूहों की ओर आकर्षित होने वाले अनेक मुस्लिम युवा सवाल उठाने लगते हैं :
आधुनिक कट्टरपंथ को मस्जिद की जरूरत नहीं है। इसको स्मार्टफोन, इंटरनेट कनेक्शन और अनियंत्रित सामग्री की जरूरत है। जेईआई और तबलीगी नेटवर्क दोनों ने ही इसे अपनाने में तेजी दिखाई है। मौदूदी या जाकिर नाइक की सामग्री को आगे बढ़ाने वाले व्हाट्सएप समूह, भारतीय मुख्यधारा में एकीकरण को हतोत्साहित करने वाले यूट्यूब उपदेश, भारत सरकार के खिलाफ षड्यंत्र के सिद्धांतों को साझा करने वाले टेलीग्राम चैनल। ये माध्यम अब सॉफ्ट कट्टरपंथ के लिए उपजाऊ जमीन बन गए हैं। इसके अलावा, दोनों आंदोलनों के मजबूत अंतर्राष्ट्रीय संबंध हैं। जेईआई को पाकिस्तान स्थित नेटवर्क से वैचारिक समर्थन मिलता है, और तबलीगी जमात बांग्लादेश, मलेशिया और यहां तक कि ब्रिटेन जैसे देशों में अपने समकक्षों के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई है, जहां उग्रवाद को बढ़ावा देने में उनकी भूमिका जांच के दायरे में आ गई है।
इन समूहों को केवल गैरकानूनी घोषित करना या प्रतिबंधित करना ही काफी नहीं होगा। इसके लिए सिविल सोसाइटी की सशक्त प्रतिक्रिया की आवश्यकता है। अब समय आ गया है कि केवल सरकार द्वारा ही नहीं, बल्कि सामाजिक संगठनों और स्वयं मुस्लिम समुदाय द्वारा भी मुखर, समावेशी रूप से कदम उठाए जाएं। कट्टरपंथ के खिलाफ लड़ाई केवल अदालतों या पुलिस स्टेशनों में नहीं जीती जा सकती। इसे सुधार, तर्क और जिम्मेदार नेतृत्व के माध्यम से दिमागों में, कक्षाओं में और डिजिटल प्लेटफॉर्म पर लड़ा जाना चाहिए।

- डा. सुजात अली कादरी
अध्यक्ष (मुस्लिम स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इंडिया)

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