राजकपूर-दिलीप, मोहनजोदड़ो के बहाने
पड़ौसी देश में कभी-कभार कुछ ताजा बयार के झोंके भी आने लगते हैं। ऐसी खबरें वहां कभी-कभार ही देखने-सुनने को मिलती हैं, अब वहां के पख्तूनवा प्रांत की सरकार ने भारतीय फिल्मों के महानायकों राजकपूर व दिलीप कुमार के पुश्तैनी घरों के रखरखाव व मरम्मत आदि के लिए 3.3 करोड़ रुपए की राशि आवंटित की है। यह आवंटन विश्वबैंक ‘केआईटीई’ कार्यक्रम के तहत किया गया है। इसका एक मकसद विश्वभर के फिल्मकारों, फिल्म प्रेमियों के लिए पर्यटन के द्वार खोलना है, अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या भारत से भी कपूर व दिलीप परिवारों के साथ-साथ कुछ फिल्म प्रेमियों को भी एक पर्यटक के रूप में वहां जाने की इजाजत मिलेगी?
पाकिस्तान में छुटपुट प्रयास तो पहले भी हुए हैं, मगर अभी भी वह देश भारतीय एवं अन्य विदेशी पर्यटकों के लिए यात्रा-सुरक्षा की गारंटी नहीं दे पा रहा। ‘श्री करतारपुर साहिब कॉरीडोर’ और ‘कटासराज-यात्रा’ का प्रयोग सफल रहा लेकिन ये यात्राएं अभी भी पर्यटन कमाई के दरवाजे खोल नहीं पाईं। कुछ समय पूर्व लाहौर में भी सर गंगाराम की हवेली एवं कोठी के द्वार उनके परिवार के लिए खोले गए थे, मगर वह सिलसिला आगे नहीं बढ़ पाया, वहां कुछेक स्थल वाकई ऐसे हैं जो एक ‘खाली कटोरे’ के रूप में चर्चित इस पड़ौसी देश के लिए राजस्व-कमाई के द्वार खोल सकते हैं। मसलन सभी सिख गुरुद्वारों के लिए पैकेज यात्रा, मुल्तान के आदित्य मंदिर व सिंध के हिंगलाज माता मंदिर तक की यात्रा, लाहौर के ‘लव-मंदिर’ व अन्य 19 कृष्ण मंदिरों की यात्रा, आदि यात्राएं यदि खोल दी जाएं तो पाकिस्तान के लिए राजस्व कमाई की खिड़कियां खुल सकती हैं। शर्तें दो हैं- पहली शर्त यह है कि मुल्ला-मौलवियों एवं कट्टरपंथियों पर लगाम लगे। दूसरी शर्त यह है कि ‘आईएसआई’ सरीखे सरकारी आतंकी संगठनों की भी बैरकों में वापसी सुनिश्चित हो। भूगोल भले ही बदल जाए है मगर विरासत नहीं बदलती। खण्डहरों के बयान, मुझे लगभग पांच हज़ार वर्ष पीछे ले जाते हैं। यह सिंध प्रांत है। इसी का एक जिला है लरकाना। इसी जिले का एक भाग है मोहनजाेदड़ो। सिंधी भाषा में इसका अर्थ है ‘मुर्दों का टीला।’ जाहिर है इस भूखण्ड का वास्तविक नाम यह नहीं है। यह स्थल लरकाना शहर से 25 मील दक्षिण में स्थित है। यह सिंध नदी के किनारे पर बसा है। इतिहास के पृष्ठ बताते हैं कि सिंध के पूर्व में मिहरान नदी बहती थी। मिहरान और सिंध, दोनों नदियों के साझे जल ने इस क्षेत्र को उपजाऊ बनाया।
‘मुर्दों के टीलों’ के नीचे सोया है एक शहर, जिसने विदेशी हमलावरों को भी झेला है, लुटेरों को भी और दबे अज्ञात खजानों की तलाश में निकले ग्रामीणों को भी। जिसके हाथ जो लगा वह साथ ले गया। कुछ अंग्रेज इंजीनियर भी इस विध्वंस में शामिल थे, मगर अपनी गवाहियों के दर्ज होने की प्रतीक्षा में अवशेष अब तक मौजूद हैं। वैसे मोहनजाेदड़ो के काल की सही निशानदेही अब भी पहेली बनी हुई है। ईसा से लगभग 25 सदी पूर्व की मुहरों का इन खण्डहरों से मिलना यह गवाही तो देता ही है कि लगभग 30वीं सदी ईसा पूर्व यहां एक सभ्यता अपने पूरे जोबन पर मौजूद थी। खण्डहर यह गवाही भी देते हैं कि मोहनजोदड़ो के नष्ट हो जाने पर भी हड़प्पा की बस्तियां बची रहीं। इन बस्तियों ने इस बात की गवाही भी दी है कि एक समय में भूमध्य सागर से अरब सागर तक समुद्री जलपोतों का आना-जाना भी लगा रहता था और जमीनी मार्ग पर भी कारवां चलते रहे। भले ही पड़ौसी राष्ट्र पाकिस्तान एक इस्लामिक स्टेट कहलाने में फक्र महसूस करता है, मगर अतीत एवं विरासत से कट पाना उसके लिए भी नामुमकिन हो चला है। इस उपमहाद्वीप की संरचना ही ऐसी है कि राजनीतिक, भौगोलिक एवं धार्मिक बदलावों के बावजूद साझेदारी से कटना मुमकिन नहीं है। भारत-पाक विभाजन के समय लगभग 44 लाख हिन्दुओं एवं सिखों ने भारतीय क्षेत्र में प्रवेश किया था जबकि लगभग 41 लाख मुस्लिम भारतीय क्षेत्रों से पाकिस्तान में प्रविष्ट हुए थे। वैसे विभाजन के समय के आंकड़ों के बारे में अभी भी विवाद है। कुछ विद्वानों एवं इतिहासज्ञों का दावा है कि लगभग 1.5 करोड़ लोग घरों से उजड़े थे। सरकारी आंकड़ों में दर्ज संख्या सिर्फ उनकी है जिन्होंने मुआवजों या राहत के लिए अपना नाम दर्ज कराया। लाखों लोग ऐसे भी थे जो दंगों में मारे गए या हाशिए पर ही अपने उजड़ने की दास्तां दोहराते रहे। 1998 की पाकिस्तानी जनगणना में वहां मात्र 25 लाख हिन्दू जनसंख्या ही दर्ज है। इनमें भी अधिकांश लोग सिंध प्रांत मेें बसते हैं। 1951 में हिन्दू पाकिस्तान की जनसंख्या का 22 प्रतिशत भाग थे लेकिन तब वर्तमान बंगलादेश पाकिस्तान का ही एक अंग था। अब बंगलादेश में 9.2 प्रतिशत हिन्दू हैं जबकि पाकिस्तान में मात्र 1.6 प्रतिशत। इतनी कम जनसंख्या के बावजूद पाकिस्तान के लगभग सभी प्रांतों, नगरों में हिन्दू आस्थाओं के अवशेष भी मौजूद हैं और समृद्ध विरासत के प्रतीक भी मौजूद हैं। पाकिस्तान न तो ‘मोहनजाेदड़ो’ से मुक्त हो सकता है, न कटासराज से, न आदित्य मंदिर से, न वरुणदेव मंदिर से और न ही लाहौर, कराची, मुल्तान व पिंडी के गली-कूचों में फैले हिन्दू मंदिरों के अवशेषों एवं अतीत की गाथाओं से मुक्ति मुमकिन है। लाहौर के गली-कूचों के नाम अभी भी गंगा-जमुनी हैं। अनारकली बाज़ार में ‘शीतला माता’ के मंदिर से धूप लोबान की सुगंध अभी भी आती है। लच्छो वाले मंदिर में छोटी-छोटी घंटियां अभी भी बज उठती हैं। लक्ष्मी मैंशन एवं लक्ष्मी मार्केट अभी भी विष्णु-पत्नी मां लक्ष्मी को समर्पित हैं। कृष्णा गली अभी भी कृष्णा गली है। रामसुत लव के नाम पर स्थापित लोह मंदिर अब भी मौजूद है। रावी रोड का कृष्ण मंदिर, बाल्मीकि मंदिर उर्फ नीला गुम्बद मंदिर और रामगली मंदिर, शाह आलमी गेट व लोहारी गेट के मध्य स्थित दूधवाली माता का मंदिर, अकबरी मंडी मंदिर, आर्य समाज मंदिर और माडल टाउन बी-ब्लॉक व डी-ब्लॉक वाले मंदिर अब भी मौजूद हैं। गढ़ी भाबडि़बयां लाहौर में जैन श्वेताम्बर, दिगम्बर जैन, शिखर मंदिर अभी तक कायम हैं। सिख गुरुद्वारों में धीमे स्वरों में गुरबानी का पाठ अब भी चलता है। गुरबाणी की गूंज अब भी जारी है, भले ही धीमे स्वरों में। प्रमुख गुरुद्वारों में गुरुद्वारा डेरा साहब, गुरुद्वारा प्रकाश अस्थान, श्री गुरु रामदास, गुरुद्वारा बापोली साहब, गुरुद्वारा चौमाला, गुरुद्वारा समाधि महाराजा रणजीत सिंह आदि। कुछ गुरुद्वारों में सीमित लंगर परम्परा भी जारी है और नियमानुसार पाठ के अलावा गुरपरब व अन्य कुछ त्यौहार भी मनाए जाते हैं। कुछ गुरुद्वारों में कुछ पुराने मुस्लिम परिवार भी कभी-कभार सामुदायिक सौहार्द के नाम पर आ जाते हैं।