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‘भोर’ की तलाश में ‘रजनीकांत’

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08:58 PM Jan 01, 2018 IST | Desk Team

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दक्षिण भारत के तमिलनाडु राज्य की राजनीति 1967 के बाद से विशुद्ध क्षेत्रीय द्रविड़ व तमिल तेवरों की ऐसी राजनीति रही है जिसका राष्ट्रीय धारा से कोई सीधा विरोध नहीं रहा है। इसका श्रेय यदि किसी को जाता है तो वह भारत के महान संविधान को जाता है जिसमें राज्यों के अधिकारों की बहुत स्पष्टता के साथ व्याख्या की गई है। 1967 तक इस राज्य में कांग्रेस पार्टी का शासन रहा जिसके जननेता स्व. कामराज नाडार थे। श्री कामराज का व्यक्तित्व और राजनीतिक कृतित्व इतना जनमूलक था कि उनके समक्ष द्रविड़ या राष्ट्रीय अस्मिता एकाकार हो गए थे किन्तु 1963 के आखिर में उनके कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के बाद स्व. भक्तवत्सलम उनकी विरासत की देखभाल मुख्यमंत्री के रूप में करने में समर्थ नहीं हो सके जिसकी वजह से स्व. सी.एन. अन्नादुरै की द्रमुक पार्टी ने इस राज्य की राजनीति पर अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफलता प्राप्त की और बाद में स्वयं कांग्रेस पार्टी ने इस हकीकत को स्वीकार करके अपनी भूमिका को तमिलनाडु के राष्ट्रीय स्वरों में सीमित किया।

कालान्तर में कांग्रेस के कमजोर होने पर यह भूमिका भी द्रमुक व 1972 में उससे अलग हुए अन्नाद्रमुक दल ने अपने हाथ में ले ली। गौर से देखा जाए और वैज्ञानिक विश्लेषण किया जाए तो 1967 से तमिलनाडु में द्रमुक के मूल सिद्धान्तों की राजनीति ही चली आ रही है बेशक बीच में एम.जी. रामचन्द्रन व जयललिता जैसी फिल्मी शख्सियतों के आने के बाद से इसका कलेवर बदला हो। लोकप्रिय फिल्म अभिनेता रजनीकांत द्वारा राजनीति में प्रवेश करने की घोषणा को इसी सतह पर रखकर देखा जाना चाहिए और सोचा जाना चाहिए कि इस राज्य की आने वाली राजनीति में किस प्रकार का परिवर्तन संभव है? पहली नजर में रजनीकांत में यह योग्यता और क्षमता है कि उनकी लोकप्रियता पिछले अभिनेता से राजनेता बने ‘एम.जी.आर.’ व ‘जयललिता’ का रिकार्ड तोड़ सकती है क्योंकि उन्होंने अपनी अभिनय कला से तमिलनाडु के युवा वर्ग को बहुत ज्यादा प्रभावित किया है। एमजीआर व जयललिता ने तमिलनाडु की राजनीति में नायकत्व​(हीरोइज्म) का पुट जोड़कर द्रविड़ पक्ष को कहीं न कहीं जरूर हल्का किया जिसकी वजह से द्रमुक पार्टी को भी परिवारवाद की शरण में जाने में सुविधा हुई मगर इससे तमिलनाडु की राजनीति सिद्धान्तमूलक तत्वों को छोड़कर अधिनायकवाद की तरफ मुड़ गई।

राजनीति का यही चेहरा रजनीकांत को सबसे अधिक मदद करेगा। राज्य की राजनीति में भ्रष्टाचार का बोलबाला होने की भी यही वजह है। राज्य की मौजूदा अन्नाद्रमुक सरकार का इकबाल फिलहाल जिस तरह मिट्टी में मिला हुआ है उसकी वजह भी यही है कि जयललिता जैसे ‘वट ​वृक्ष’ की छाया में हर तरह के बेल-बूटे फल-फूल रहे थे। रजनीकांत जैसे लोकप्रिय अभिनेता को ऐसे माहौल में किसी राजनीतिक दर्शन व सिद्धान्तों की जरूरत पड़ेगी। इसमें संदेह है क्योंकि राज्य की जनता को द्रविड़ मूलकों से बांधे रखने की उतनी जरूरत नहीं है जितनी भ्रष्टाचार से संलिप्त राजनीति से छुटकारा दिलाने की मगर यह मानना फिजूल होगा कि तमिलनाडु की जनता अपनी मूल पहचान को छोड़ना चाहेगी। उत्तर भारत की राजनीति और तमिलनाडु की राजनीति में यही सबसे बड़ा अंतर है कि यहां के लोग सामाजिक अन्याय के विरुद्ध युद्ध को ही राजनीति समझते हैं जबकि उत्तर भारत में यह पक्ष अब जाति युद्ध में बदल चुका है जिसे भाजपा ने पिछले चुनावों में राष्ट्रवाद में समाहित करने में सफलता प्राप्त की।

तमिलनाडु में यह संभव नहीं है क्योंकि द्रविड़ उपराष्ट्रवाद केवल राष्ट्रीय संकट के समय ही पिछले पायदान पर बैठता है। बेशक जयललिता के सत्ता में आने पर इसमें कमी आई थी मगर इसकी कोई गारंटी नहीं दी जा सकती है कि श्री रजनीकांत में ऐसी क्षमता है क्योंकि उनकी छवि सम्पूर्ण भारत में तमिल के ‘विराट’ स्वरूप की है। हिंदी फिल्मों में भी वह इसलिए सफल रहे कि उत्तर भारत के लोग उन्हें तमिल अस्मिता का प्रतीक समझते थे। वैसे तो 1996 से ही उनके राजनीति में आने की अटकलें लगाई जा रही थीं मगर 2017 के अंतिम दिन को चुनकर उन्होंने साबित कर दिया है कि वह राजनीति में लम्बी पारी के खिलाड़ी साबित होंगे। इसकी असली वजह यह है कि चेन्नई के आरके नगर विधानसभा उपचुनाव में जिस तरह अन्नाद्रमुक की जेल में बंद शशिकला के भतीजे टीटीवी दिनाकरण की विजय हुई है वह स्व. जय​ललिता की ‘खड़ाऊ पूजन’ के अलावा कुछ नहीं है।

ऐसे माहौल में जनता के बीच महानायक की छवि रखने वाले रजनीकांत के लिए राजनीति में कूदना किसी फिल्मी ‘क्लाईमेक्स’ में नायक के आने के समान ही देखा जाएगा मगर यह सोचना लड़कपन होगा कि उन्हें कड़ी टक्कर नहीं मिलेगी। उन्हें यदि कोई कड़ी टक्कर देगा तो वह निश्चित रूप से श्री एम. करुणानिधि की द्रमुक पार्टी ही होगी। यह पार्टी बेशक फिलहाल परिवारवाद के घेरे में घिरी हुई है मगर इसकी मूल ​विचारधारा तमिलवासियों से दूर नहीं हो सकती जो कि सामाजिक अन्याय के खिलाफ लड़ाई की है। इतना ​निश्चित है कि अन्नाद्रमुक का अब कोई भविष्य नहीं है क्योंकि इसकी जड़ ही सूख चुकी है हालांकि श्री रजनीकांत ने कहा है कि वह नई पार्टी बनाकर तमिलनाडु विधानसभा की सभी 234 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे मगर इसमें अभी तीन साल से भी ज्यादा का समय है। उससे पहले 2019 के लोकसभा चुनाव आएंगे। उनकी पहली परीक्षा इन्हीं चुनावों में होगी। राज्य में भाजपा अपना अस्तित्व ढूंढने के लिए उनका सहारा लेना चाहेगी और कांग्रेस पार्टी भी उन्हें अपने साथ रखना चाहेगी मगर गौर से देखा जाए तो इन चुनावों में भी रजनीकांत के लिए कोई कम मु​िश्कल नहीं होगी। उनका कोई भी फैसला दिल्ली की किस्मत बदलने में ​निर्णायक साबित हो सकता है। देखना यह है कि रजनीकांत किस तरह भोर (सुबह) की तलाश करते हैं।

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