राजनाथ सिंह, पं.नेहरू और बाबरी मस्जिद
आज 6 दिसम्बर है । इसी दिन 1992 में अयोध्या स्थित बाबरी मस्जिद या विवादास्पद ढांचे को ढहा दिया गया था। यह कार्य कुछ ऐसे हिन्दू संगठनों द्वारा किया गया था जो यह मानते थे कि विवादित ढांचे के भीतर ही वह पुण्य स्थान है जहां मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम का जन्म हुआ था। इस जन्म स्थान को लेकर वर्ष 1985 से ही पूरे भारत में भारी आन्दोलन चल रहा था और कहा जा रहा था कि हिन्दुओं की आस्था के अनुसार इस मस्जिद या ढांचे को मुस्लिम समाज द्वारा हिन्दुओं को सौंप दिया जाना चाहिए। इस आन्दोलन को तब की विपक्षी पार्टी भाजपा की तरफ से भी चलाया जा रहा था। इस आन्दोलन की बागडोर भाजपा नेता श्री लाल कृष्ण अडवानी ने संभाल रखी थी। उनका कहना होता था कि ‘मन्दिर वहीं बनायेंगे, जहां राम का जन्म हुआ था।’ श्री अडवानी के इस आन्दोलन को भारत के लगभग पूरे हिन्दू समाज का समर्थन मिल रहा था जिसकी वजह से राम मन्दिर आन्दोलन एक राष्ट्रीय आन्दोलन में तब्दील हो गया था। श्री लाल कृष्ण अडवानी की लोकप्रियता उस समय चरम पर थी। इस आन्दोलन की सबसे बड़ी और खास बात यह थी कि भारतीय जनता पार्टी जिसे शहरों की पार्टी माना जाता था वह शहरी सीमाएं तोड़कर गांवों तक में पहुंच गई थी । उत्तर भारत के इलाके को फांद कर यह पार्टी पूर्व व पश्चिम भारत में भी जानदार तरीके से उभार पर आ गई थी। केवल दक्षिण भारत इसके प्रभाव से बाहर रह गया था मगर इस क्षेत्र में भी कर्नाटक राज्य में राम मन्दिर आन्दोलन के चलते ही भाजपा की लोकप्रियता बढ़ी थी। यह आन्दोलन 1985 से लेकर 1992 तक कई प्रकार के पड़ावों से गुजरा जिसमें श्री लाल कृष्ण अडवानी की गुजरात के सोमनाथ मन्दिर से लेकर अयोध्या तक की रथ यात्रा सबसे महत्वपूर्ण पड़ाव थी। 6 दिसम्बर 1992 को जब बाबरी मस्जिद ढहाई गई तो केन्द्र में कांग्रेस की पी.वी. नरसिम्हाराव सरकार काम कर रही थी और उत्तर प्रदेश राज्य में भाजपा की कल्याण सिंह सरकार विद्यमान थी। इन दोनों सरकारों के रहते ही 6 दिसम्बर को बाबरी मस्जिद ढहाई गई थी। धर्म या पंथ निरपेक्ष स्वतन्त्र भारत में अपने किस्म की यह पहली घटना थी। इस मस्जिद के स्थान पर अब राम मन्दिर स्थापित हो चुका है मगर यह कार्य सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर हुआ।
2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने इस आशय का फैसला दिया था। अपने फैसले में न्यायालय ने मस्जिद पुनः बनाये जाने के लिए भी जमीन का आवंटन किया था। अयोध्या विवाद समाप्त हुए अब छह वर्ष से अधिक का समय बीत चुका है मगर अब भी यदा-कदा 6 दिसम्बर को याद कर ही लिया जाता है। भारत के मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी मानते हैं कि यह मस्जिद की शहादत का दिन है जबकि अतिवादी हिन्दू मानते हैं कि यह हिन्दुओं के लिए शौर्य दिवस है क्योंकि इससे गुलामी की पहचान हटी है। यह सच है कि मुगल सम्राट बाबर एक आक्रान्ता था और उसी के नाम पर हिन्दुओं के पवित्र स्थल अयोध्या में बाबरी मस्जिद तामीर की गई थी। जाहिर है कि हिन्दुओं को इस बात की पीड़ा थी कि बाबर के नाम पर राम जन्म स्थान पर जो मस्जिद 16 वीं शताब्दी में खड़ी की गई थी , उसके पीछे भारत में मुगलों का दबदबा कायम करना था। मगर क्या 1950 में भारत के स्वतन्त्र होने के बाद देश के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू चाहते थे कि बाबरी मस्जिद का आधुनिकीकरण या जीर्णोद्धार सरकारी खर्च पर किया जाये? रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने इस आशय का वक्तव्य देकर इतिहास के सच को ही उजागर किया है। इसके पीछे अपनी एक पृष्ठभूमि है। 15 अगस्त 1947 को भारत के आजाद होने के बाद गुजरात के जीर्ण-शीर्ण सोमनाथ मन्दिर के पुनर्निर्माण की मांग बहुत तेजी से उठा थी। इस मन्दिर पर सुल्तान महमूद गजनवी ने 16 बार आक्रमण किया था और इसका सारा धन-धान्य जमकर लूटा था। तब गुजरात के ही लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल नेहरू सरकार में गृहमन्त्रालय संभाले हुए थे। उनके सामने जब यह मांग आयी तो धर्म निरपेक्ष भारत के सामने धर्म संकट खड़ा हो गया था। तब यह रास्ता निकाला गया कि मन्दिर का पुनर्निर्माण जनता द्वारा दिये गये धन से ही होना चाहिए और इसमें सरकार की भागीदारी नगण्य हो। तब एक न्यास का गठन हुआ जिसे आम जनता ने चन्दा दिया। इस चन्दे में सितम्बर 1950 तक तीस लाख रुपये जमा हो गये थे। 1951 से सोमनाथ मन्दिर न्यास ने मन्दिर का पुनर्निमाण शुरू किया। तब तक सरदार पटेल की मृत्यु हो चुकी थी। मगर श्री राजनाथ सिंह का कथन एेतिहासिक सच पर आधारित है क्योंकि सरदार पटेल की पुत्री स्व. मणिबेन पटेल ने अपने पिता के कार्यकलापों पर आधारित एक पुस्तक ‘द इनसाइडर आफ सरदार पटेल’ लिखी है जिसमें इस बात का खुलासा किया गया है कि पं. नेहरू ने सरदार पटेल से सलाह की थी कि बाबरी मस्जिद का जीर्णोद्धार सरकार अपने खर्च पर कराये। सरदार पटेल ने इसका विरोध करते हुए साफ कहा कि सरकार का काम मन्दिर या मस्जिद का निर्माण या पुनरुद्धार कराना नहीं है क्योंकि गुजरात में जिस सोमनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण होगा वह सरकारी धन से नहीं बल्कि लोगों के धन से होगा। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि पं. नेहरू दिल से धर्म निरपेक्षतावादी थे। मगर वह मुस्लिम समाज को स्वतन्त्र भारत में जरूरत से ज्यादा संरक्षण देने के हिमायती भी थे। एेसा मत मेरा नहीं है बल्कि प्रगतिशील कहे जाने वाले प्रोफेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल का भी है। प्रोफे. अग्रवाल जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय में पढ़ाते रहे हैं। उनका यह मत है कि पं. नेहरू ने आजाद भारत के मुसलमानों को मुल्ला- मौलवियों के रहमो-करम पर छोड़ दिया था और इस समाज में सुधार या आधुनिकीकरण का काम उस तरह नहीं किया जिस तरह उन्होंने हिन्दू समाज के लिए किया। मुस्लिम समाज को धार्मिक आजादी की शर्त पर इसमें रूढि़वादी परंपराएं जारी रहीं। श्री नेहरू हिन्दू समाज को आधुनिक बनाने के लिए कई कानून लाये जिनमें हिन्दू कोड बिल सबसे प्रमुख कहा जा सकता है। हिन्दू स्त्रियों को पैतृक सम्पत्ति में बराबर की भागीदारी देने के अलावा पुरुष बहुविवाह पर प्रतिबन्ध लगाया गया। लेकिन मुस्लिम समाज को उन्होंने उसे उसके हाल पर ही छोड़ना बेहतर समझा। स्व. नेहरू की इसी नीति को भाजपा तुष्टीकरण की नीति कहती है। मगर जहां तक बाबरी मस्जिद का प्रश्न है तो इस बात की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने सरदार पटेल से इसके बारे मे सलाह- मशविरा न किया हो। फिर मणिबेन ने सरदार पटेल की दैनिक डायरी के आधार पर ही ‘द इनसाइडर आफ सरदार पटेल’ लिखी है। अतः रक्षामन्त्री राजनाथ सिंह का खुलासा केवल तथ्यों पर ही आधारित है। जहां तक मणिबेन का सवाल है तो वह गुजरात से ही कई बार कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा की सदस्य रहीं परन्तु बाद में उन्होने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की स्वतन्त्र पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर ली थी जिसका साठ व सत्तर के दशक में गुजरात में खासा दबदबा था। इसके बाद वह जनता पार्टी की सदस्य भी रहीं क्योंकि स्वतन्त्र पार्टी का 1974 में चौधरी चरण सिंह की पार्टी लोकदल में विलय हो गया था और 1977 में लोकदल का विलय जनता पार्टी में हो गया था। दर असल श्री राजनाथ सिंह के बयान पर जो विवाद पैदा हुआ वह इतिहास के पन्नों को सही न पढ़ने की वजह से हुआ। पं. नेहरू के सुझाव के पीछे भी एक पृष्ठभूमि हो सकती है क्योंकि उस समय पाकिस्तान बन जाने के बाद जो मुसलमान भारत में रह रहे थे उन्हें पूरी तरह संरक्षण देना भी सरकार का काम था। मगर इसके साथ उन्हें राष्ट्रीय धारा में लाने का दायित्व भी सरकार पर था।
इस मामले में एक समान नागरिक आचार संहिता का अभी तक न बनना भी एक समस्या है। स्वतन्त्रता के बाद यदि यह काम हो जाता तो मुस्लिम समाज राष्ट्रीय धारा में सम्पूर्ण रूप से घुल-मिल जाता। संविधान निर्माता डा. अम्बेडकर मूल रूप से यही चाहते थे।

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