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रेड कारपेट व काले गाउन गुलामी की मानसिकता

02:12 AM Jan 05, 2024 IST | Shera Rajput

अधिकतर लोग जानते होंगे कि यह रेड कारपेट क्यों बिछाए जाते हैं। जब कोई व्यक्ति आम से खास बन जाता है तो उसके पांवों तले पांव भी नहीं, जूते पहने पांवों तले लाल कारपेट बिछाकर उनका स्वागत किया जाता है अथवा यूं कहिए नेताओं को, सत्तापतियों को यह अहसास करवाया जाता है कि आपका स्वागत विशेष है। आप उन लोगों से कुछ अलग हैं, खास हैं जिन्होंने आपके पक्ष में मतदान करके नेता या सत्तापति बना दिया है। वैसे जिस विश्वविद्यालय में कई प्रांतों के मुख्यमंत्री पधारे रहे उस विश्वविद्यालय में भी बहुत दूर-दूर तक यही लाल रंग के वैसे तो गलीचे नहीं थे, पर उन्हें रेड कारपेट ही कहा जाता है। जैसे सरकारी मशीनरी की देरी को रेड टेपिज्म अर्थात लाल फीताशाही कहा जाता है, वैसे ही यह वीआईपी स्वागत के लिए रेड कारपेट स्वागत शब्द चलता है। अपने भारत में हर प्रांत में यही चकाचौंध दिखाई जाती है।
अब प्रश्न यह उठा कि यह लाल कारपेट संस्कृति आई कहां से। वैसे तो 16वीं शताब्दी में एक ग्रीक नाटककार एस. काइलस ने एक नाटक में इसका वर्णन किया था। जब ग्रीक राजा अगाममेनॉन ट्राय का युद्ध जीतकर अपने देश लौटता है तो उसकी पत्नी क्लायटेमनेस्ट्रा अपने पति के स्वागत में रेड कारपेट बिछाती है। राजा डरते-डरते उस पर चला है क्योंकि उन दिनों में यह भी था कि जो लाल कारपेट पर चलेगा उसकी मौत हो जाएगी। इसके शीघ्र बाद ही राजा रानी के षड्यंत्र में ही मारा गया। अमेरिका में 1821 में अमेरिकी राष्ट्रपति जेम्स मनरो जब कैलीफोर्निया के जार्ज टाउन शहर पहुंचे तो उनके स्वागत में रेड कारपेट बिछाया गया था। उसी समय से बड़े राजनीतिक समारोहों और नेताओं के स्वागत के लिए यह लाल गलीचा बिछाने का चलन शुरू हुआ।
रेड कारपेट स्वागत मुहावरे का इस्तेमाल बीसवीं सदी में ही चलन में आया। न्यूयार्क की सेंट्रल रेल रोड कंपनी ने 1902 में एक खास एक्सप्रेस ट्रेन चलाई थी। उसमें मुसाफिरों का स्वागत इसी लाल कारपेट पर चलकर किया जाता था जिससे उन्हें खास होने का शाही अहसास हो। इसके बाद 1922 में रोबिन हुड फिल्म के प्रीमियर के लिए इजिप्शियन थिएटर के सामने एक लंबा सुर्ख कालीन बिछाया गया। इसके बाद तो सितारों के सारे बड़े बड़े कार्यक्रम आस्कर अवार्ड जैसे समारोह रेड कारपेट के साथ ही होने लगे।
अब प्रश्न यह है कि भारत में इसका कहां से और कब चलन हुआ। एक ही उदाहरण मिलता है कि जब बंग भंग आंदोलन के बहुत बढ़ जाने के बाद तत्कालीन वायसराय लार्ड हार्डिंग दिल्ली आए तो वहां जार्ज पंचम के स्वागत के लिए यह बिछाया गया था। भारत स्वतंत्र होने के बाद भारत के नेता, अभिनेता, वीआईपी कैसे इस लाल कारपेट का मोह छोड़ सकते थे। जैसे ही उन्हें लोगों के वोट मिलते हैं, वे खास हो जाते हैं। फूल मालाओं से लाद दिए जाते हैं। दिल्ली और प्रदेशों की राजधानियों के बंगले उनके लिए सुरक्षित हो जाते हैं। राजभवन ऐसे-ऐसे बन गए जहां आम आदमी का प्रवेश ही मुश्किल और उसके अंदर रहने वाले दो-चार व्यक्तियों के लिए कई एकड़ जमीन में बंगले बनते हैं, पर यह रिवाज सभी जगह देखने को मिलेगा, पूरे भारत में जब कोई ऐसा विशिष्ट व्यक्ति जिन्हें वीआईपी ही नहीं, वीवीआईपी कहा जाता है वे कहीं भी जाएं, धर्म स्थानों पर माथा टेकने भी जाए तो उनके लिए लाल गलीचे बिछते ही हैं।
धीरे-धीरे देश के कुछ विश्व- विद्यालयों और बहुत थोड़े कालेजों ने स्नातक और स्नातकोत्तर डिग्रियां देने के लिए यह गाऊन परंपरा छोड़ी है, पर उत्तर व मध्य भारत इस परंपरा का अधिक गुलाम है। सिर पर बेतुके टोप, गले में हुड के नारम पर लाल-पीला कपड़ा और काले या लाल गाउन पहने हमारे नेता भी, चांसलर, वाइस चांसलर भी, अध्यापक, प्रोफेसर भी ऐसे चलते हैं मानों वे आकाश से उतरे कोई विशिष्ट व्यक्तित्व के स्वामी हैं। कालेजों की तो चिंता कर ही रहे थे अब तो कुछ तथाकथित पब्लिक स्कूल पहली, दूसरी श्रेणी ही नहीं, उससे पहले प्री-नर्सरी तक के बच्चों को परीक्षा उत्तीर्ण के पश्चात ग्रेजुएट सेरेमनी करते हैं और नन्हें-मुन्ने बच्चों को काले परिधान जिसे गाउन कहते हैं ढक देते हैं। आश्चर्य है कि शिक्षा की देवी सरस्वती तो शुभ्रवसना है, पर सरस्वती का अभिनंदन कार्यक्रम काले वस्त्रों में करते हैं।
काला रंग तो अज्ञान, दुख, शोक का रंग है। किसी की मृत्यु हो जाए तो यूरोप में आज तक अंतिम संस्कार में जाने वाले काले कोट आदि पहनते हैं। किसी नेता का विरोध करना हो तो काले झंडे ही लहराए जाते हैं। किसी वरिष्ठ राजनेता का देहावसान हो जाए तो भी शोक में काले झंडे लगाए जाते हैं, पर मैकाले की गुलामी में फंसे हमारे देश के बहुत से लोग शिक्षा-दीक्षा का समारोह भी उन काले कपड़ों में ही करते हैं जो हमारी गुलामी के काले युग की मैकाले की देन है। प्रश्न यह है कि 76 वर्ष की स्वतंत्रता के पश्चात भी अमृत महोत्सव के हर नगर-शहर में गीत गाने और उत्सव मनाने के बाद भी न हम लाल गलीचा स्वागत का मोह छोड़ सके हैं और न ही काले गाउन की गुलामी को ठुकरा सके हैं। फिर एक ही सवाल है, नेताओं से नहीं देशवासियों से कब तक ये गुलामी के प्रतीक लाल गलीचे और काले गाउन का बोझ उठाते रहोगे। कब स्वतंत्र हो जाओगे?

- लक्ष्मीकांता चावला

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