भारतीय गणतन्त्र और औरंगजेब की प्रासंगिकता
इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि मुगल आक्रान्ता थे क्योंकि उन्होंने भारत पर आक्रमण करके ही इस पर अपना शासन किया था। परन्तु यह भी सत्य है कि बाद में उन्होंने भारत को ही अपना देश बना लिया और इसका शासन यहां की संस्कृति के अनुरूप चलाने की कोशिश की हालांकि उन्होंने अपने धर्म इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए भी लगातार काम किया। इस मामले में मुगल सम्राट औरंगजेब नाम सबसे अव्वल इसलिए रहा क्योंकि उसने उस समय के राजकीय कानूनों या नियमों को लिखित में लाने का प्रयास किया जो कि इस्लामी कानून ‘शरीया’ के अनुसार थे। ‘फतवा-ए-आलमगिरी’ लिखवा कर उसने भारत के सभी हिन्दू-मुसलमान नागरिकों को इसमें बांधने की कोशिश की थी मगर इस बीच उसका निधन हो जाने की वजह से यह काम अधूरा रह गया।
औरंगजेब कितना क्रूर शासक था इसका प्रमाण इस बात से मिलता है कि उसने शहंशाह बनने के लिए जहां अपने तीनों भाइयों को मरवाया वहीं अपने पिता शाहजहां को भी जेल में डाल कर नजरबन्द कर दिया। जबकि वास्तविकता यह है कि शाहजहां औरंगजेब के भाई दारा शिकोह को बादशाह बनाना चाहता था क्योंकि वह बहुत उदार हृदय था और हिन्दू दर्शन का भी अध्येता था। औरंगजेब ने इसी दारा शिकोह को चीथड़े पहना कर उसे हाथी पर बैठा कर दिल्ली में जुलूस निकाला था। इतना ही नहीं उसने दारा शिकोह का सिर कटवा कर उसे शाहजहां के पास एक तोहफे की तरह भेजा था। औरंगजेब की क्रूरता की यह शुरुआत थी। अतः बादशाह बनने पर उसने शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी महाराज को बेहद यातनाएं देकर मरवाने में जरा भी हिचक नहीं दिखाई।
अत्याचारी राजा वह होता है जो अपने स्वार्थ के लिए क्रूरता और जुल्म की सारी हदें पार कर जाता है अतः औऱंगजेब आम भारतीयों के लिए कभी नायक नहीं हो सकता। इसमें हिन्दू और मुसलमान सभी नागरिक आते हैं क्योंकि सबसे पहले वे भारतीय होते हैं। औरंगजेब के समर्थन में कोई भी भारतीय इसलिए नहीं हो सकता है क्योंकि पाकिस्तान का निर्माण कराने वाले मुस्लिम लीगी नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने मुसलमानों के लिए अलग से पाकिस्तान बनाने की मांग करते हुए अंग्रेजों के सामने यही दलील रखी थी कि एक ही देश में हिन्दू- मुसलमान दोनों एक साथ इसलिए नहीं रह सकते हैं क्योंकि इन दोनों का आपस में कुछ नहीं मिलता। हिन्दू-मुसलमानों के त्यौहार व रहन- सहन और खान-पान एक जैसा नहीं है और यहां तक कि इनके एेतिहासिक नायक व खलनायक अलग-अलग हैं। इनमें आपस में कुछ भी सांझा नहीं है। एेसा कह कर जिन्ना ने 1947 से पहले मुस्लिम राष्ट्र की पैरवी करते हुए साफ किया था कि हिन्दू और मुसलमान दो अलग-अलग कौमें हैं जिनकी मान्यताएं अलग–अलग हैं।
जिन्ना को जब पाकिस्तान मिलना पक्का हो गया तो 12 अगस्त 1947 को पाकिस्तान तामीर होने की पूर्व वेला में तत्कालीन अंग्रेज वायसराय लार्ड माउंटबेटन जब कराची इजलास में गये तो उन्होंने अपने सम्बोधन में जिन्ना की ओर देखते हुए कहा कि आपकी विरासत में अकबर जैसे बादशाह भी हुए हैं जिनसे प्रेरणा लेकर आप इस नये मुल्क का शासन चला सकते हैं। परन्तु जिन्ना ने इसके जवाब में कहा कि हमें किसी बादशाह से प्रेरणा लेने की जरूरत नहीं है क्योंकि हमारे सामने तो हजरत उमर व अन्य हजरतों का उदाहरण है और शरीया कानून है (इसका विवरण पाकिस्तान मूल के राजनीति वैज्ञानिक डा. इश्तियाक अहमद ने अपनी जिन्ना के बारे में लिखी पुस्तक में दिया है) इसलिए भारत के मुसलमानों के लिए जरूरी है कि वे भारतीय संस्कृति व इतिहास के नायकों और खलनायकों की पहचान भारतीय की नजर से करें। ईश्वर या अल्लाह की इबादत करने के अलग-अलग तरीकों से भारतीयता की अस्मिता अलग- अलग नहीं हो जाती है।
जाहिर है कि जब औरंगजेब हिन्दुओं के लिए खलनायक है तो एक ही देश में रहने वाले मुसलमानों के लिए वह नायक नहीं हो सकता। यह एेतिहासिक सत्य है कि उसने हिन्दुओं के मन्दिरों को तुड़वाया और भारत में तीर्थ यात्रा करने वाले हिन्दुओं पर जजिया कर पुनः लगाया। (मुगलों से पहले दिल्ली के सुल्तानों ने यह कर लगाया था)। अकबर ने अपने साम्राज्य में यह कर समाप्त कर दिया था। औरंगजेब ने भी कुछ कर हटाये थे जिनमें राहदारी कर प्रमुख था। मगर औरंगजेब ने बाद में हिन्दुओं के ब्राह्मणों पर जजिया समाप्त कर दिया था जबकि शेष अन्य सभी हिन्दुओं को यह कर देना पड़ता था।
अकबर ने जजिया कर जहां गलत माना था वहीं औरंगजेब ने इसे उचित समझा। इतना ही नहीं औरंगजेब शिया मुसलमानों से भी भेदभाव करता था। उसने एक तरफ जहां होली पर प्रतिबन्ध लगाया वहीं मुहर्रम के अवसर पर निकलने वाले शिया मुसलमानों के ताजियों पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया था। अतः निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि वह कट्टर सुन्नी मुसलमान था। इसलिए गौर से सोचने वाली बात यह है कि औरंगजेब किसी भी सूरत में हिन्दू-मुस्लिम एकता का पैरोकार नहीं था। हां उसके दरबार में सभी मुगल बादशाहों के मुकाबले सबसे ज्यादा हिन्दू मनसबदार थे। मगर इन सब मनसबदारों को बादशाह का हुक्म मानना पड़ता था।
यह भी सत्य है कि शिवाजी महाराज को मुगल साम्राज्य के साये में अपनी रियासत चलाने के लिए हिन्दू राजा जय सिंह ने ही मनाया था और वही उन्हें सन्धि पत्र लिखवा कर बादशाह के दरबार में लाये थे। परन्तु औरंगजेब ने उनसे अपने दरबार में जो व्यवहार किया उससे शिवाजी बहुत खफा हो गये थे। सवाल खड़ा किया जाता है कि औरंगजेब व शिवाजी की लड़ाई दो राजाओं की लड़ाई थी और इस लड़ाई में जंग के सिपाहसालार औरंगजेब की तरफ से हिन्दू मनसबदार थे और शिवाजी की फौज में भी कई मुसलमान सिपाहसालार थे।
बेशक यह दो राजाओं की लड़ाई थी मगर शिवाजी हिन्दवी स्वराज के लिए लड़ रहे थे और उनका मानना था कि भारत में बाहर से आये आक्रान्ता हमे अपना गुलाम नहीं बना सकते। लेकिन यह भी सत्य है कि 1932 में जर्मनी से पढ़ाई पूरी करके लौटे समाजवादी नेता डा. राम मनोहर लोहिया ने जब भारत की इतिहास की पुस्तकों का अध्ययन किया तो उन्होंने पाया कि शिवाजी महाराज को अंग्रेजी शासन के दौरान छापामार लड़ाकू सिपाही ही नहीं बल्कि लुटेरा तक लिखा जा रहा है तो उहोंने इसके खिलाफ आवाज उठाई और शिवाजी को स्वराज की लड़ाई लड़ने वाला जननायक पाया क्योंकि शिवाजी ने मुगलों के खिलाफ अपनी जो सेना तैयार की थी उसमें किसान व दस्तकार प्रमुख रूप से थे। शिवाजी वास्तव में जनता के राजा थे और अपना राज भारत की सांस्कृतिक विरासत के अनुरूप चलाना चाहते थे। उनके पुत्र संभा जी की भी यही नीति रही। जीते जी शिवाजी मुगलों से नहीं हारे जिसकी वजह से औरंगजेब के दिल में मराठा राज न जीत पाने की भारी टीस रही होगी और उसने अपना बदला संभा जी पर जुल्म ढहा कर लिया।
औरंगजेब ने सिखों के गुरु तेगबहादुर पर भी जुल्मों-सितम का बाजार गारद किया और उनकी हत्या कराई। मगर वर्तमान समय में औरंगजेब किसी भी रूप में प्रासंगिक नहीं है क्योंकि भारत एक एेसा गणतन्त्र है जिसमें सभी हिन्दू- मुसलमान नागरिकों की बराबर की भागीदारी है। भारत की विशाल विविधता में संविधान के अनुसार किसी भी धर्म के मानने वाले नागरिक के प्रधानमन्त्री बनने का प्रावधान है। भारत के राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद पर मुसलमान नागरिक बैठ भी चुके हैं जिनमें डा. जाकिर हुसैन, अब्दुल कलाम, फखरुद्दीन अली अहमद व न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला के नाम लिये जा सकते हैं। जाहिर है कि इन सभी लोगों ने उच्चतम संवैधानिक पदों की शोभा बढ़ाई है।
इससे यही सिद्ध होता है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत को हमारे मुसलमान भाई भी स्वीकार करते हैं। यह विरासत भारत के गांवों तक में फैली पड़ी है जिसमें हिन्दू व मुसलमान मिलकर आपस में हाथ बंटाते नजर आते हैं। अतः जगजाहिर है कि औरंगजेब जैसे आततायी राजा को कोई भी मुसलमान नागरिक ‘रहमतुल्लाह अलैह’ कैसे कह सकता है। इन कुतर्क करने वाले रहनुमाओं से कोई यह तो पूछे कि क्या भारत की विरासत उनकी विरासत नहीं है। मगर इसके साथ यह भी साफ होना चाहिए कि औरंगजेब भारत के इतिहास की एक सच्चाई है। अतः उसे सूफी या पीर का एजाज बख्शना किसी भी नजरिये से तार्किक नहीं है। वर्तमान में उसकी प्रासंगिकता इतनी ही है कि इस लोकतान्त्रिक देश भारत में उसकी तुलना केवल किसी क्रूर शासक से ही की जाये।
यह कोई दलगत मामला नहीं है कि इस पर राजनीति की जाये बल्कि यह भारतीय अस्मिता का सवाल है और भारत का जर्रा-जर्रा कह रहा है कि इसके हिन्दू- मुस्लिम नागरिकों की मुत्तैहदा कौमियत है।