चीन की बद-नीयती का जवाब
चीन भारत का ऐसा पड़ोसी देश है जो किसी न किसी अनावश्यक मुद्दे पर भारत के अन्दरूनी मामलों में टांग अड़ाता रहता है और फिर उसे अपने विस्तारवादी नजरिये से पेश करने की हिमाकत भी करता रहता है।
02:05 AM Jan 08, 2022 IST | Aditya Chopra
चीन भारत का ऐसा पड़ोसी देश है जो किसी न किसी अनावश्यक मुद्दे पर भारत के अन्दरूनी मामलों में टांग अड़ाता रहता है और फिर उसे अपने विस्तारवादी नजरिये से पेश करने की हिमाकत भी करता रहता है। हाल ही में कुछ सांसदों ने तिब्बत से सम्बन्धित एक कार्यक्रम में भाग लिया था जिस पर चीन ने कड़ी आपत्ति दर्ज करते हुए अपने भारत स्थिति दूतावास के माध्यम से इन सांसदों को जो पत्र लिखा वह कूटनीतिक शिष्टाचार की सीमाएं तोड़ने वाला था। लोकतान्त्रिक भारत में आम जनता के प्रतिनिधि होने के नाते सांसदों को किसी भी मुद्दे पर अपने तरीके से सोचने की स्वतन्त्रता है, जिसे चीन जैसा कम्युनिस्ट देश नहीं समझ सकता मगर यह भारत की समस्या नहीं है अतः विदेश मन्त्रालय ने चीन की इस हरकत का संज्ञान लेते हुए इसे राजनयिक शिष्टाचार के विरुद्ध बताया और दोनों देशों के सामान्य कूटनीतिक सम्बन्धों की गरिमा के प्रतिकूल माना। पिछले दिनों ही यह खबर आयी थी कि चीन ने लद्दाख के इलाके में पेगांग झील के अपनी तरफ एक पुल का निर्माण किया। वास्तव में चीन ने 1962 के युद्ध के बाद से ही इस क्षेत्र पर कब्जा किया हुआ है जिसे वह अब अपना जैसा मानने लगा है।
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भारत सरकार ने इस पुल के निर्माण पर भी कड़ी आपत्ति जताते हुए साफ किया है कि पिछले साठ वर्षों से यह भूमि चीन के अवैध कब्जे में है जिस पर पुल का निर्माण किया गया है, अतः भारत को इस पर सख्त एतराज है। पिछले दिनों इस पुल के पास चीनी सैनिकों की अपने देश का झंडा लहराते हुए तस्वीर भी सार्वजनिक हुई थी जिसके जवाब में भारतीय सैनिकों ने भी अपने क्षेत्र में खड़े होकर पेगोंग झील के किनारे ही तिरंगा झंडा फहरा कर साफ कर दिया कि चीन अपनी नीयत पर काबू रखे। वास्तव में यह चीन की नीयत का ही सवाल है कि वह 1962 के बाद से भारत की 35 हजार वर्ग कि.मी. भूमि से अधिक अपने कब्जे में दाबे पड़ा है। इसके बाद 1963 में उसे पाकिस्तान ने अपने कब्जे वाले कश्मीर की पांच हजार वर्ग कि.मी. से अधिक भूमि खैरात में दे दी और चीन से नया सीमा समझौता कर लिया। मगर भारत ने 2003 में तब ऐतिहासिक भूल कर दी जब इसने तिब्बत को चीन का स्वायत्तशासी अंग स्वीकार कर लिया। वास्तव में भारत की सीमाएं तिब्बत से ही मिलती थीं और अंग्रेजी भारत की सरकार इसे स्वतन्त्र देश मानती थी। इसी वजह से 1914 में भारत, चीन व तिब्बत देशों के प्रतिनिधियों के बीच शिमला में हुई बैठक में तीनों देशों की सीमाएं निर्धारित करने के लिए मैकमोहन रेखा खींची गई थी मगर चीन ने इसे स्वीकार ही नहीं किया और इस बैठक में तिब्बत की उपस्थिति पर एतराज जताते हुए इसका बहिष्कार कर दिया। बाद में 1949 में चीन के स्वतन्त्र होने पर इसकी फौजों ने 1950 से ही तिब्बत पर आक्रमण करना शुरू कर दिया और बाद में इसे हड़प लिया।
तिब्बत के प्रति भारत का रुख मानवीय अधिकारों को संरक्षण देने का रहा और इसने तिब्बत के सर्वोच्च शासक व धर्म गुरू दलाई लामा को भारत में शरण दी। तिब्बत हड़पने के बाद चीन की लगातार यही कोशिश रही कि वह इससे लगी भारतीय सीमाओं पर अपना कब्जा जमाये और अपनी रणनीतिक स्थिति को मजबूत करे। संभवतः इसी वजह से 1962 में चीन ने भारत को धोखा देते हुए इस पर आक्रमण किया और इसकी फौजें असम के तेजपुर तक आ गईं। मगर बाद में भारत के पक्ष में अन्तर्राष्ट्रीय दबाव पड़ने पर चीन की सेनाएं वापस अपने ही मुकर्रर किये गये स्थानों पर लौट गईं। चीन ने तभी तिब्बत से लगे पहाड़ी प्रान्त नेफा (जिसे अब अरुणाचल प्रदेश कहा जाता है) को विवादास्पद बनाने की कोशिश की और इसकी हद तब हुई जब 2003 में भारत द्वारा तिब्बत को चीन का हिस्सा स्वीकार कर लिये जाने के बाद इसने अरुणाचल प्रदेश का राग छेड़ दिया। यह राग वाजपेयी शासन के दौरान अरुणाचल को चीन के नक्शे का भाग दिखा कर छेड़ा गया। इस पर तब भारत की संसद में भारी हंगामा मचा था और चीन की नीयत पर शक जाहिर किया गया था। मगर इसके बाद 2004 में केन्द्र में सरकार बदल जाने के बाद चीन ने नये तेवर दिखाये और अरुणाचल वासियों को अपने देश के भ्रमण का वीजा जारी करने की नई विधि पासपोर्ट के साथ वीजा की पर्ची नत्थी करके अपनाई जिस पर भारत में पुनः कड़ा विरोध हुआ और लोकसभा में तत्कालीन विपक्ष के भाजपा नेता श्री लालकृष्ण अडवानी ने यह तक मांग कर डाली कि संसद में अरुणाचल के बारे में उसी तरह का प्रस्ताव पारित किया जाये जिस तरह का 1992 में जम्मू-कश्मीर के बारे में इसे भारत का अटूट हिस्सा मानते हुए किया गया था परन्तु उनकी यह मांग इस आधार पर स्वीकार नहीं की गई कि पूरा अरुणाचल प्रदेश भारत की आजादी के पहले से ही भारत का अभिन्न अंग रहा है। लेकिन इसके बावजूद चीन अपनी हरकतों से बाज नहीं आया और इसने तत्कालीन प्रधानमन्त्री डा. मनमोहन सिंह के अरुणाचल प्रदेश दौरे और इस प्रान्त के विकास के लिए स्वीकृत की गई परियोजनाओं का विरोध किया।
भारत ने तब इसका कड़ा विरोध किया और चीन से जवाबतलबी की वह पाक अधिकृत कश्मीर की 1963 में मिली धरती पर किस तरह परियोजनाएं चला रहा है जबकि वह भूमि मूल रूप से भारत की ही हैं। उस समय भारत ने इस क्षेत्र में एशियाई विकास बैंक में भी उसकी मदद से चलने वाली चीनी परियोजनाओं का विरोध किया था। परन्तु इस घटनाक्रम के बाद भी चीन अपनी हरकतों से बाज नहीं आया और यदा-कदा अरुणाचल प्रदेश को विवादास्पद बनाने की हरकतें करता रहा। हाल ही में उसने अरुणाचल की सीमा पर तीन नये गांव बसा कर उनका नाम भी अपनी मर्जी से रख दिया है जिस पर भारत सरकार ने आपत्ति करते हुए कहा कि नये नाम रख देने से जमीनी हकीकत नहीं बदल सकती। दरअसल चीन जिस दिशा में चलना चाहता है उसमें भारत व उसके बीच की बनी नियन्त्रण रेखा का परिवर्तन शामिल है। भारत उसकी इन हरकतों को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता । यही सन्देश कूटनीतिक शालीनता के दायरे में भारत ने देने की कोशिश की है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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