लोकसभा में शेरनी की गर्जना
प्रियंका गांधी को शेरनी कहना गलत नहीं होगा, जैसा कि कभी बीजेपी…
प्रियंका गांधी को शेरनी कहना गलत नहीं होगा, जैसा कि कभी बीजेपी के वरिष्ठ नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने उनकी दादी इंदिरा गांधी के लिए कहा था। दरअसल, अटल बिहारी वाजपेयी ने 1971 में भारत-पाक युद्ध के बाद जब भारतीय सेना ने पाकिस्तान को हराकर बंगलादेश बनाया, इंदिरा गांधी को ‘मां दुर्गा’ की उपाधि दी थी। हालांकि, बीजेपी ने इस बात से इन्कार किया है लेकिन कांग्रेस इस बात को बार-बार दोहराती रही है।
कांग्रेस से अलग सीपीएम के वरिष्ठ नेता सीताराम येचुरी ने भी कहा था कि 1971 के युद्ध के बाद वाजपेयी ने इंदिरा गांधी को “दुर्गा का अवतार” कहा था। हालांकि, कुछ असत्यापित रिपोर्ट्स के अनुसार वाजपेयी ने किसी समय इस बात का खंडन किया था और कहा था कि उन्होंने इंदिरा गांधी को दुर्गा नहीं कहा लेकिन इस उपाधि का असर आज तक बना हुआ है। विवाद अपनी जगह है लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं कि इंदिरा गांधी भारतीय जनता के मन में एक अजेय और अडिग देवी के रूप में उभरीं। लगभग पांच दशकों के बाद उनकी पोती प्रियंका गांधी में भी उनकी झलक दिखाई देती है, जिन्होंने हाल ही में संसद में अपना पहला भाषण दिया।
प्रियंका गांधी वायनाड से उपचुनाव जीतकर सांसद बनीं। यह वही सीट थी जिसे उनके भाई राहुल गांधी ने छोड़ा था। इस हफ्ते प्रियंका ने संसद में अपना पहला भाषण दिया। यह भाषण लगभग 30 मिनट का था, जिसमें उन्होंने शांत और संयमित रहकर भी संसद में हलचल मचा दी। इस भाषण में न कोई दिखावा था, न नाटक, न कोई गुस्सा और न ही उग्रता। हां, इसमें असंतोष और एक ऐसा आक्रमण ज़रूर था जिसने मोदी सरकार को घेरने का काम किया, पहले बात करते हैं दृश्यात्मकता की|
जब प्रियंका गांधी उस सुबह संसद में दाखिल हुईं तो सबकी नजरें उन्हीं पर थीं। उन्होंने नीली साड़ी और कोट पहन रखा था और उनकी गहरी डिंपल वाली मुस्कान साफ झलक रही थी जब उन्होंने पार्टी सदस्यों के अभिवादन का जवाब दिया। बड़े ही गरिमापूर्ण ढंग से वह लोकसभा की चौथी पंक्ति में अपनी सीट की ओर बढ़ीं। वहां पहुंचने के बाद उन्होंने अपने साथ लाए कागज़ों को व्यवस्थित किया। उनके भाई राहुल गांधी जो पहली पंक्ति में अपनी सीट पर जाते हुए उनके पास से गुज़रे और हल्के से उनकी पीठ थपथपाई। प्रियंका ने वाकई सरकार को जवाब दिया-धीमे, सौम्य और गरिमा बनाए रखते हुए, तीखे प्रहार किए लेकिन तीखापन उनके शब्दों के भाव में था न कि उनके स्वर में, जो पूरे समय सौम्य और स्त्रीत्व से भरा हुआ रहा।
तीखे मुद्दों को एक सौम्य और सरल अंदाज़ में पेश करना। इसका मतलब यह नहीं कि उन्होंने अपने शब्दों को हल्का किया। बिल्कुल नहीं। बल्कि, उन्होंने सीधे मुद्दों पर वार किया और उन समस्याओं को खुलकर उठाया जिनसे अन्य कांग्रेसी नेता बचते हैं। उदाहरण के तौर पर उन्होंने वंशवाद की राजनीति का मुद्दा उठाया -एक ऐसा विषय जिस पर बीजेपी हमेशा गांधी परिवार पर निशाना साधती रही है। एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, “परिवारवाद पर बहस से बचने के बजाय, प्रियंका ने इसे खुले दिल से स्वीकार किया।” इस क्रम में उन्होंने अपने परदादा जवाहरलाल नेहरू और दादी इंदिरा गांधी के योगदान पर प्रकाश डाला। साथ ही उन्होंने यह भी पूछा ‘आखिर कब तक आप नेहरू को पिछले 75 सालों के लिए दोषी ठहराते रहेंगे? आप उनसे सीख सकते हैं। आप अपने किए पर माफी भी मांग सकते हैं, आप क्यों नहीं सीखते?’
नेहरू के संदर्भ में उन्होंने कहा कि सत्ताधारी वर्ग उनके नाम का उल्लेख करने से बचता है लेकिन अक्सर अपना बचाव करने के लिए उनका सहारा लेता है। प्रियंका गांधी ने विवादित व्यवसायी गौतम अडानी का भी जिक्र किया और कहा कि सरकार 142 करोड़ नागरिकों के हितों के बजाय एक व्यक्ति के हितों को प्राथमिकता दे रही है लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात थी संविधान पर उनकी टिप्पणी। संविधान को “सुरक्षा कवच” बताते हुए उन्होंने इसे न्याय, एकता और अभिव्यक्ति के अधिकार का कवच कहा लेकिन उन्होंने तब सख्त प्रहार किया जब उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधते हुए कहा कि वे यह समझने में असफल रहे हैं कि संविधान ‘भारत का संविधान’ है, न कि ‘संघ का विधान।’ यह सीधा संकेत बीजेपी की विचारधारा के गुरु, आरएसएस की ओर था।
यही नहीं, उन्होंने प्रधानमंत्री को अन्य गंभीर मुद्दों पर भी घेरा। उन्होंने हाथरस, संभल और मणिपुर के लोगों को न्याय दिलाने में विफलता का मुद्दा उठाया और प्रधानमंत्री के जनता का सामना न कर पाने पर सवाल खड़े किए। इस संदर्भ में उन्होंने उस राजा का उदाहरण दिया जो आम जनता की समस्याएं समझने के लिए साधारण वेश में उनके बीच जाता था। उन्होंने कहा लेकिन आज का राजा वेश तो बदलता है लेकिन न जनता के बीच जाने की हिम्मत है, न आलोचना सुनने की। इसमें कोई शक नहीं कि प्रियंका गांधी ने बेहद प्रभावी तरीके से अपनी बात रखी। अपनी दादी इंदिरा गांधी से की जा रही तुलना से परे, प्रियंका ने यह साबित कर दिया कि वह खुद का अलग मार्ग तैयार करने और कांग्रेस पार्टी को मज़बूत करने के लिए दृढ़ संकल्पित हैं।
हालांकि, बड़ा और पेचीदा सवाल यह है कि क्या कांग्रेस का कार्यकर्ता वर्ग प्रियंका गांधी को राहुल गांधी से ज़्यादा मान्यता देगा? राहुल ने भले ही अपनी पहचान बनाई हो लेकिन जब समझदारी और सूझबूझ भरे फैसले लेने की बात आती है तो वह कमज़ोर साबित होते हैं। उदाहरण के तौर पर अडानी के खिलाफ उनके अभियान को देखें-यहां तक कि इंडिया ब्लॉक के सहयोगियों को नाराज़ करने की कीमत पर भी राहुल गांधी और कांग्रेस ने पीछे हटने से इन्कार कर दिया।
यह तथ्य कि गठबंधन के सहयोगी अब ‘किसी और’ को नेतृत्व सौंपने की बात कर रहे हैं, कांग्रेस के लिए शुभ संकेत नहीं है। हालांकि, इसका यह मतलब नहीं कि प्रियंका गांधी राहुल गांधी का विकल्प हैं। शायद वह पार्टी के अंदर विकल्प हो सकती हैं लेकिन भाई-बहन के बीच मजबूत रिश्ते को देखते हुए यह संभावना बहुत कम है कि वह राहुल के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की कोशिश करें, उनसे आगे निकलने की बात तो दूर प्रियंका हमेशा की तरह राहुल गांधी से एक कदम नहीं बल्कि कई कदम पीछे रहने को तैयार रहेंगी और यह वह पूरी स्वेच्छा और खुशी से करेंगी। जब तक, निश्चित रूप से, राहुल खुद स्वेच्छा से अपनी जगह उन्हें न दें लेकिन यह निकट भविष्य में होता नहीं दिखता।
यह निश्चित रूप से एक छोटा सा कदम है और अभी यह निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगा कि उनका ‘भविष्य उज्ज्वल’ है लेकिन यह ज़रूर दिखाता है कि उनमें संभावनाएं हैं और कांग्रेस के झंडे तले परिवार की विरासत को आगे बढ़ाने का दृढ़ संकल्प भी। यह गुण प्रियंका में उनके भाई की तुलना में अधिक दिखाई देता है। इसलिए जब राहुल गांधी ने कहा कि प्रियंका का पहला भाषण, उनके लगभग बीस साल पहले दिए गए पहले संसदीय भाषण से बेहतर था, तो यह बयान शायद भविष्य में परिस्थितियों को आकार देने में एक भूमिका निभा सकता है।