सबरीमला : आस्था और कानून
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केरल के सबरीमला मन्दिर में सैकड़ों साल से चली आ रही परम्परा उस वक्त टूट गई, जब करीब 40 वर्ष की दो महिलाओं ने मन्दिर में प्रवेश कर एक नया इतिहास रच दिया जिसके बाद से ही बवाल मच गया। सबरीमला मन्दिर समिति इसके खिलाफ खड़ी है जबकि केरल सरकार मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश के पक्ष में है। भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी कार्यकर्ताओं के बीच हुई झड़प में सबरीमला कर्म समिति के एक कार्यकर्ता की मौत हो गई। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पिछले वर्ष 28 सितम्बर को हर आयु वर्ग की महिलाओं को मन्दिर में प्रवेश की अनुमति देने का फैसला किए जाने के बाद से सबरीमला में हिन्दू समूहों द्वारा लगातार इस फैसले के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किए जा रहे हैं। उनका कहना है कि यह फैसला धार्मिक परम्परा के खिलाफ है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि हमारी संस्कृति में महिला का स्थान आदरणीय है। यहां महिलाओं को देवी की तरह पूजा जाता है और मन्दिर में प्रवेश से रोका जा रहा है, यह स्वीकार्य नहीं हो सकता।
सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद महिलाएं सबरीमला मन्दिर में प्रवेश नहीं कर रही थीं लेकिन दो महिलाओं ने हजारों साल की परम्परा को आखिर तोड़ ही दिया। एक तरफ हिन्दू संगठन आस्था और परम्पराओं की बात करते हैं तो दूसरी तरफ केरल की वामपंथी सरकार कह रही है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण उसके हाथ बंधे हैं और वह हर किसी को जो अयप्पा भगवान के दर्शन करना चाहता है, उसको सुरक्षा देने के लिए वचनबद्ध है। राज्य में हिन्दुवादी संगठनों ने मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ बन्द रखा तो दूसरी ओर यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट ने राज्य में काला दिवस मनाया। केन्द्रीय मंत्री अनंत कुमार हेगड़े ने सबरीमला मन्दिर मामले के संचालन को लेकर केरल सरकार पर हमला बोला और कहा कि जिस तरह से सरकार इस मामले को हैंडल कर रही है उससे यह मामला अब हिन्दुओं से दिनदहाड़े ‘रेप’ की तरह हो चला है। कानून-व्यवस्था राज्य का विषय है इसलिए उसे देखना चाहिए था कि जनता के विश्वास को ठेस पहुंचाए बिना कूटनीतिक रूप से प्रबन्ध किया जा सकता है। कांग्रेस के नेता रमेश चेन्निथला ने भी कहा कि दोनों महिलाएं पुलिस संरक्षण में मन्दिर पहुंचीं। पुलिस ने मुख्यमंत्री के निर्देशानुसार काम कर जनभावनाओं को आघात पहुंचाया है।
मन्दिर में महिलाओं की एंट्री को लेकर भी केरल भाजपा नेताओं के विचार बंटे हुए हैं। कुछ भाजपा नेताओं का मानना है कि भगवान अयप्पा महिलाओं से नफरत नहीं करते और मासिक चक्र प्रकृित का नियम है और इसे पवित्र माना जाना चाहिए। यह तथ्य भी नहीं भूलना चाहिए कि भगवान अयप्पा ने देवी मलिकापुरम को सबरीमला में अपनी बगल में स्थान दिया है। मन्दिर में महिलाओं का आना वर्जित होने के पीछे मान्यता यह है कि यहां जिस अयप्पा भगवान की पूजा होती है वे ब्रह्मचारी थे इसलिए यहां 10 से 50 साल तक की लड़कियां और महिलाएं प्रवेश नहीं कर सकतीं। इस मन्दिर में ऐसी छोटी बच्चियां आ सकती हैं, जिनको मासिक धर्म शुरू न हुआ हो या ऐसी वृद्ध महिलाएं जो मासिक धर्म से मुक्त हो चुकी हों।
अयप्पा भगवान को ‘हरिहर पुत्र’ कहा जाता है यानी विष्णु और शिव का पुत्र। सबरीमला का नाम शबरी के नाम पर है। वही शबरी जिनका उल्लेख रामायण में आता है जिसने भगवान राम को जूठे बेर खिलाए थे। एक मिहला के नाम पर बने मन्दिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित होना भी अपने आप में आश्चर्यजनक है। सुप्रीम कोर्ट ने भी सबरीमला मन्दिर में महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देने का फैसला यह कहते हुए दिया था कि धर्म के नाम पर पुरुषवादी सोच ठीक नहीं। उम्र के आधार पर मन्दिर में प्रवेश से रोकना धर्म का अभिन्न हिस्सा नहीं। सुप्रीम कोर्ट ने लैंगिक समानता को देखते हुए 4-1 से फैसला सुनाया था लेकिन पीठ में शामिल अकेली महिला न्यायाधीश जस्टिस इन्द्र मल्होत्रा की राय बहुमत के फैसले से अलग थी। इन्द्र मल्होत्रा ने अपने फैसले में कहा था कि इस फैसले का व्यापक असर होगा। धर्म का पालन किस तरह से हो, यह उसके अनुयायियों पर छोड़ा जाए। यह कोर्ट तय नहीं कर सकता। उन्होंने कहा था कि मौलिक अधिकारों के साथ ही धार्मिक मान्यताओं को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
दूसरी तरफ पीठ के अन्य न्यायाधीशों ने कहा कि महिलाएं दिव्यता और अध्यात्म की खोज में बराबर की हिस्सेदार हैं। बनी-बनाई मान्यताएं इसके आड़े नहीं आनी चाहिएं। समाज को भी सोच में बदलाव लाना होगा। महिलाएं पुरुषों के समान हैं। हर धर्म ईश्वर तक पहुंचने का जिरया है तो महिलाओं को किसी धार्मिक प्रक्रिया से बाहर रखना सही नहीं। अब सवाल यह भी है कि आस्था कानून से ऊपर है या नहीं? निश्चित रूप से आस्था व्यक्तिगत मुद्दा है और कानून समाज के लिए है। सवाल यह भी है कि अगर कानून का पालन नहीं किया जाए, सुप्रीम कोर्ट के फैसले की अवज्ञा की जानी लगे, लोग उसके फैसले मानने को तैयार ही न हों तो फिर देश में अराजकता ही फैल जाएगी। सवाल यह भी है कि क्या अदालतों को धर्म और आस्था से जुड़े मामलों पर फैसले देने ही नहीं चाहिएं। ट्रिपल तलाक को अवैध करार दिए जाने के बावजूद तलाक के मामले सामने आ रहे हैं। सबरीमला विवाद अब पूरी तरह सियासती हो चुका है। वोट बैंक की राजनीति हो रही है। फैसले के पक्ष और विरोध में ध्रुवीकरण का खेल चल रहा है। इसका पिरणाम क्या होगा, अभी भविष्य के गर्भ में है।