वक्फ जमीनों की ‘सदाकत’
1947 में भारत को काट कर जब पाकिस्तान का निर्माण खालिस हिन्दू-मुसलमान…
1947 में भारत को काट कर जब पाकिस्तान का निर्माण खालिस हिन्दू-मुसलमान के आधार पर किया गया तो यह समझा गया कि भारत में मुसलमानों की समस्या अब वैसी नहीं रहेगी जैसी कि बंटवारे से पूर्व थी। पाकिस्तान का निर्माण मुस्लिम लीग ने केवल मुसलमानों के लिए चाहा था और कहा था कि हिन्दू व मुस्लिम दो राष्ट्रीयताएं हैं जिनका आपस में कुछ भी सांझा नहीं है। तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने जिन्ना का यह तर्क स्वीकार किया और पाकिस्तान का निर्माण पंजाब व बंगाल को बांट कर कर दिया। परन्तु भारत ने 15 अगस्त, 1947 को आजाद होने के बाद भारत में बचे 9.8 प्रतिशत मुसलमानों के लिए उनकी धार्मिक आजादी को पूरी तरह कायम रखा जिसकी व्याख्या इसके संविधान में की गई। भारत का संविधान पूरी तरह मानवतावाद पर टिका हुआ है जिसमें हिन्दू-मुसलमानों के बराबर के अधिकार हैं। परन्तु तर्क दिया जा सकता है कि पाकिस्तान का निर्माण विशुद्ध मजहब के आधार पर हुआ तो स्वतन्त्र भारत में मुसलमानों की संस्थाओं का क्या औचित्य रहता है? इस बहस को अगर आगे बढ़ाया जाये तो तर्क दिया जा सकता है कि भारत में सबसे पहले 1913 में बने मुस्लिम वक्फ कानून का भी क्या औचित्य हो सकता है, जिसे 1923 में संशोधित किया गया। इसके बाद 1954 में इसमें स्वतन्त्र भारत में संशोधन हुआ और 1984 में भी और बाद में 1995 व 2013 में भी।
अंग्रेज हर सूरत में हिन्दू-मुसलमानों में बंटवारा करके अपना राज पुख्ता करना चाहते थे और एेसा उन्होंने किया भी। अंग्रेजों के बनाये कानून को स्वतन्त्र भारत अपने ऊपर लाद कर चलता रहा और 1950 में भारत के प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू व पाकिस्तान के तत्कालीन वजीरे आजम लियाकत अली खां के बीच समझौता हुआ कि दोनों देश अपने-अपने अल्पसंख्यकों के धार्मिक अधिकारों की रक्षा करेंगे और इस बाबत अल्पसंख्यक आयोगों का गठन करेंगे। इस पर भारत ने तो पूरी स्वेच्छा के साथ अमल किया परन्तु पाकिस्तान में इसके बावजूद हिन्दू व सिखों का धर्म परिवर्तन कराया जाता रहा। केवल सिन्ध को छोड़ कर पश्चिमी पाकिस्तान से हिन्दू व सिखों का सफाया पहले ही हो चुका था। अतः सवाल उठना लाजिमी है कि जिस जमीन पर पाकिस्तान का निर्माण हुआ वह जमीन किसकी थी? जिन्ना ने लड़कर यह जमीन हथियाई और इसका नाम पाकिस्तान रख दिया। इसीलिए पाकिस्तान को एक नाजायज मुल्क कहा जा सकता है जो भारत के हिन्दुओं की जमीन पर ही तामीर किया गया। अतः सर्वोच्च न्यायालय में मुस्लिम वक्फ संशोधन कानून पर जो बहस चल रही है उस पर भारत के गांवों से लेकर शहरों तक के नागरिकों की कड़ी नजर है। जब यह कानून केवल मुसलमानों के लिए ही है तो सवाल पैदा हो सकता है कि वक्फ की जमीनें आखिरकार मूल रूप से किस समुदाय की हैं।
भारत पर आठ सौ साल तक मुस्लिम सुल्तानों व शहंशाहों का शासन रहा है अतः हमारे ही घर में घुसकर हम पर राज करने वाले लोग हमारी ही जमीनों के मालिक हो गये और वक्फ में जमीने देने लगे। वक्फ कानून जो 1923 में बना पूरे संयुक्त भारत के लिए था अतः जब धर्म के आधार पर भारत का बंटवारा हमेशा के लिए हो गया तो फिर इस कानून का क्या औचित्य बनता है। भारत ने संसदीय लोकतन्त्र अपनाया और इसे गणराज्य घोषित किया। 1947 में भारत एक भौगोलिक सीमा मूलक देश (टेरीटोरियल स्टेट) बना जिसके किसी भू-भाग में रहने वाला किसी भी धर्म का व्यक्ति इसका नागरिक कहलाया। एेसा केवल इसीलिए हो पाया कि भारत में हिन्दू धर्म के मानने वाले लोगों की बहुलता 80 प्रतिशत के लगभग थी। इसका कारण यह था कि हिन्दू धर्म जातिवादी कुव्यवस्था के बावजूद बहुत उदार व सहिष्णु था।
भारत की हिन्दू जनता ने कभी इस बात का बुरा नहीं माना कि स्वतन्त्र भारत में बचे हुए मुसलमानों को उनकी धार्मिक स्वतन्त्रता न दी जाये। हिन्दुओं ने खुले दिल से भारतीय संविधान के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को स्वीकार किया मगर इसका मतलब यह नहीं था कि मुस्लिमों का तुष्टिकरण करने के लिए सरकारें किसी भी हद तक आगे चली जाएं। अतः कांग्रेस सरकारों के जमाने में धार्मिक स्वतन्त्रता के नाम पर मुस्लिम समाज में कठमुल्लावाद जमकर फला-फूला और हद यह हो गई कि पूरा मुस्लिम समाज ही अच्छी शिक्षा-दीक्षा से वंचित रह गया। उसे धर्म की चारदीवारी में ही कैद रहने दिया गया। अतः फिलहाल वक्फ पर उठे विवाद को हम इस दृष्टि से भी देखेंगे। मुस्लिम उलेमाओं को सोचना होगा कि भारत अब 21वीं सदी के वैज्ञानिक युग में रह रहा है। अतः वह मुगलकाल में नहीं जी सकता इसलिए अंग्रेजों के जमाने के कानूनों का कोई औचित्य नहीं हो सकता। मुस्लिम वक्फ बोर्डों को यह अधिकार कैसे दिया जा सकता है कि वे जिस जमीन पर हाथ धर दें वह जमीन वक्फ की हो जाये और वक्फ बोर्डों के ट्रिब्यूनलों का रुतबा अदालतों से भी ऊपर हो जाये। यह सरासर तुष्टिकरण के अलावा और कुछ नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय ने फिलहाल संशोधित वक्फ कानून की संवैधानिक वैधता को लेकर जो चुनौती दी गई है उसे न्यायालय ने अगली सुनवाई तक के लिए टाल दिया है और यथा स्थिति बनाये रखने का आदेश दिया है। इस मामले में भारत सरकार के वकीलों ने न्यायालय को आश्वस्त किया है कि इस पर अमल होगा।
असल मुद्दा वक्फ बोर्डों में हिन्दू सदस्यों का होना है। वक्फ एक प्रशासनिक अधिकरण होता है और उसमें यदि हिन्दू नागरिक भी शामिल होते हैं तो इसमें क्या हर्ज हो सकता है। इससे क्या साम्प्रदायिक सौहार्द और नहीं बढे़गा। हमें ध्यान रखना चाहिए कि हिन्दू-मुसलमानों के बीच लकीरें खींच कर हम साम्प्रदायिकता को ही बढ़ावा देते हैं। भारत में एेसा कोई भी सार्वजनिक हिन्दू धार्मिक आयोजन नहीं होता जिसमें मुस्लिमों की भागीदारी न होती हो। दूसरा मुद्दा वक्फ बाई यूजर (पहले से ही चले आ रहे वक्फ की जमीन का मसला) क्या एेसी जमीनों के कागजात नहीं होने चाहिएं। किसी भी जमीन पर मजार बनाकर उसे पुश्तैनी बता देना भारत में आम बात है। एेसा हिन्दू मन्दिरों के बारे में भी कहा जा सकता है। अतः सरकार को कागजात तो देखने ही होंगे।