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साधू, पालघर और महाराष्ट्र सरकार

कोरोना के खिलाफ युद्ध के चलते भारत के महाराष्ट्र राज्य की धरती पर जो राक्षसी कांड हुआ है उसके परिमार्जन की कोई सूरत अभी तक नजर नहीं आ रही है

12:19 AM Apr 27, 2020 IST | Aditya Chopra

कोरोना के खिलाफ युद्ध के चलते भारत के महाराष्ट्र राज्य की धरती पर जो राक्षसी कांड हुआ है उसके परिमार्जन की कोई सूरत अभी तक नजर नहीं आ रही है

साधू  पालघर और  महाराष्ट्र सरकार
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कोरोना के खिलाफ युद्ध के चलते भारत के महाराष्ट्र राज्य की धरती पर जो राक्षसी कांड हुआ है उसके परिमार्जन की कोई सूरत अभी तक नजर नहीं आ रही है और इस राज्य की तिकड़ी ‘शिवसेना-कांग्रेस-राष्ट्रवादी कांग्रेस’ सरकार सोच रही है कि इस कांड का असर उसके स्थायित्व पर किसी भी रूप में नहीं पड़ेगा। लगभग छह महीने पहले इस सरकार को बनाने में राष्ट्रवादी कांग्रेस के ‘घाघ’ नेता कहे जाने वाले माननीय शरद पवार की मुख्य भूमिका थी। इस सरकार के मुख्यमन्त्री पद पर शिवसेना के कर्ताधर्ता श्री उद्धव ठाकरे को बैठा कर उन्होंने सारी गोटियां अपने कब्जे में इस प्रकार कर ली थीं कि हिन्दू हृदय  सम्राट के नाम से विख्यात उद्धव के पिता स्व. बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत दम तोड़ने लगे मगर इसकी शुरूआत पालघर में जूना अखाड़े के दो सन्तों व उनके सारथी की हत्या से इस तरह होनी थी इसकी कल्पना तो कोई राजनीतिक पंडित सपने में भी नहीं कर सकता था।  यह नृशंस हत्याकांड माॅब लिंचिंग के नाम पर उस समय हुआ है जब श्री ठाकरे के मुख्यमन्त्री पद पर ही सवालिया निशान खड़ा हो रहा है क्योंकि आगामी मई महीने के तीसरे सप्ताह तक उन्हें राज्य के विधानमंडल दल का सदस्य बनना होगा। उनके लिए एकमात्र रास्ता विधान परिषद की सदस्यता का है। इस सदन में प्रवेश करने के लिए भी उनके पास अधिक विकल्प नहीं हैं। एकमात्र विकल्प राज्यपाल के कोटे से मनोनीत होना है।
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भारत के संसदीय इतिहास में यह संभवतः पहली घटना होगी कि मुख्यमन्त्री  वह व्यक्ति बने जिसका नामांकन राज्यपाल ने किया हो। श्री ठाकरे का छह महीने के भीतर सदन का सदस्य बनना जरूरी है तभी वह आगे मुख्यमन्त्री रह सकते हैं वरना उन्हें यह पद छोड़ना होगा। वह एक या दो दिन के लिए इस्तीफा देकर पुनः मुख्यमन्त्री भी नहीं बन सकते हैं क्योंकि इस सन्दर्भ में सर्वोच्च न्यायालय पूर्व में पंजाब के एक मन्त्री द्वारा एेसा रास्ता अपनाये जाने को पूरी तरह असंवैधानिक व अनैतिक करार दे चुका है। राज्यपाल के पास यह अधिकार होता है कि वह कला, संस्कृति या समाजसेवा क्षेत्र में विशिष्ट योगदान करने वाले दो महानुभावों का नामांकन विधान परिषद में करें। उनका यह अधिकार संवैधानिक समीक्षा से ऊपर है अर्थात उनके निर्णय को किसी न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।  उद्धव ठाकरे  एक शौकिया फोटोग्राफर हैं। फिर भी राज्यपाल कोटे से सदन में जाने का मतलब होगा कि उनकी राजनीतिक पृष्ठभूमि इतनी कमजोर है कि वह चुनाव लड़ कर सदन में पहुंचने काबिल नहीं हैं।
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 ध्यान देने वाली बात यह है कि शिवसेना ने कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस के खिलाफ ही भाजपा के साथ गठबन्धन बना कर विधानसभा चुनाव लड़ा था। चुनावी मैदान में कांग्रेस व राष्ट्रवादी कांग्रेस शिवसेना की शत्रु समझी जाती हैं।  शिवसेना उग्र हिन्दुत्व की एेसी प्रतीक पार्टी है जिसने सरेआम एेलान किया था कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस में उसके कार्यकर्ता शामिल थे, परन्तु दो सन्तों की हत्या होते देखने का पाप उद्धव ठाकरे के माथे पर लग चुका है जिसे साफ करने के लिए उन्हें अब नया राजनीतिक पैंतरा मारने को मजबूर होना पड़ सकता है वरना भारत भर के साधू व सन्त समाज का आक्रोश उन्हें सहना पड़ेगा क्योंकि सन्त समाज लाॅकडाऊन में ढील होने के साथ ही व्यापक आन्दोलन करने की तैयारी में लग चुका है। शिवसेना के सामने दिक्कत यह है कि दिल से वह साधू समाज के साथ है मगर दिमाग से सरकार में रहना चाहती है। इस ऊहापोह का फायदा शिवसेना के राजनीतिक प्रतिद्वन्दी क्यों नहीं उठायेंगे? राजनीति और जंग में सब कुछ जायज है और हो भी क्यों न, जब शिवसेना व कांग्रेस दोनों मिल सकते हैं तो कुछ भी संभव है मगर साधुओं के मिजाज को समझने में श्री ठाकरे  गलती कर गये हैं क्योंकि इस समाज की निजी इच्छा कुछ नहीं होती बल्कि यह समाज को कुछ देने के लिए भगवा वस्त्र धारण करते हैं। इनके समग्र गोस्वामी तुलसी दास के समय से बादशाहों की ड्योढियां भी किसी गोचर भूमि की तरह होती हैं। जिन्होंने शहंशाह अकबर के निमन्त्रण को यह कह कर ठुकरा दिया था कि ‘कहा मोको सीकरी सो काम।’  सन्त कबीर ने सच्चे साधुओं के बारे में ही कहा था कि इनसे बड़ा कोई दूसरा शाह नहीं होता बशर्ते वे सच्चे साधू हों। ‘‘चाह गई चिन्ता मिटी मनवा बेपरवाह 
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 जिनको कछु न चाहिए हैं शाहन के शाह।’’
सन्तों की मांग है कि पालघर हत्याकांड की जांच किसी केन्द्रीय जांच एजेंसी को सौंपी जानी चाहिए। इसकी असली वजह यह है कि पालघर धर्म परिवर्तन की घटनाओं का गढ़ रहा है। यहां के आदिवासियों को ईसाई धर्म में दीक्षित करने के अभियान चलते रहे हैं।  यही वजह है कि धर्मनिरपेक्षता के खुदाई खिदमतगार बने घूमने वाली कथित हस्तियां मुंह पर ताला लगा कर बैठ गई हैं और सोच रही हैं कि हिन्दू बहुल संख्या वाले देश में सन्तों या साधुओं की हत्या के मामले को उठाने से उन्हें क्या लेना-देना।
 भीड़ तो कुछ भी कर सकती है। पुलिस की मौजूदगी में अगर उन्हें हिंसक भीड़ को सौंप दिया गया तो सरकार ने कार्रवाई कर दी और 100 से अधिक लोगों को नामजद कर दिया। अब वे यह सवाल क्यों पूछें कि लाॅकडाऊन के चलते सैकड़ों लोग लाठी-डंडों समेत कहां से इकट्ठा हो गये? यही लोग इससे पहले गला फाड़-फाड़ कर माॅब लिंचिंग की घटनाओं पर कहा करते थे कि भारत पीर-फकीरों और ऋषि-मुनियों का देश है।  यह शान्ति का पैगाम देने वाला देश है मगर इन्हें शायद भारत की यह हकीकत नहीं पता कि
‘‘बादशाहों से भी बड़ा ‘फकीरों’ का रुतबा न था 
सारी दुनिया ‘जेब’ में पर हाथ में पैसा न था।’’
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