For the best experience, open
https://m.punjabkesari.com
on your mobile browser.
Advertisement

शहादात को सलाम

सर्वोच्च न्यायालय की यह चिन्ता पूरी तरह जायज है कि फौजदारी या आपराधिक मामलों की चल रही जांच की जानकारी मीडिया या प्रेस को इस प्रकार दी जानी चाहिए जिससे ऐसे मामलों में फंसे अरोपियों के बारे में मीडिया स्वयं ही किसी जज की हैसियत में आकर निष्कर्ष न निकालने लगे।

01:53 AM Sep 15, 2023 IST | Aditya Chopra

सर्वोच्च न्यायालय की यह चिन्ता पूरी तरह जायज है कि फौजदारी या आपराधिक मामलों की चल रही जांच की जानकारी मीडिया या प्रेस को इस प्रकार दी जानी चाहिए जिससे ऐसे मामलों में फंसे अरोपियों के बारे में मीडिया स्वयं ही किसी जज की हैसियत में आकर निष्कर्ष न निकालने लगे।

शहादात को सलाम
सर्वोच्च न्यायालय की यह चिन्ता पूरी तरह जायज है कि फौजदारी या आपराधिक मामलों की चल रही जांच की जानकारी मीडिया या प्रेस को इस प्रकार दी जानी चाहिए जिससे ऐसे मामलों में फंसे अरोपियों के बारे में मीडिया स्वयं ही किसी जज की हैसियत में आकर निष्कर्ष न निकालने लगे। मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चन्द्रचूड़ की तीन सदस्यीय पीठ के समक्ष यह मामला पुलिस मुठभेड़ों की जांच प्रक्रिया के सन्दर्भ में उठा। यह तो सर्व विदित है कि आपराधिक मामलों में मीडिया की भी रुचि होती है और वह एेसे मामलों की रिपोर्टिंग पुलिस से प्राप्त जानकारी के आधार पर ही करता है मगर यदि मीडिया केवल रिपोर्टिंग तक ही सीमित रहे तो इसमें कोई बुराई नहीं है मगर टीवी चैनलों पर इन जानकारियों के आधार पर ही जिस प्रकार निष्कर्ष निकाले जाने लगते हैं और आरोपी को न्यायालयों से  फैसला आने से पूर्व ही जिस तरह अपराधी घोषित किया जाने लगता है उससे न्याय प्रक्रिया पर असर पड़ने की संभावनाएं पैदा हो जाती हैं। इसे ही ‘मीडिया ट्रायल’ कहा जाता है।
Advertisement
 हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि भारत की न्याय प्रणाली जिस मूल सिद्धान्त पर टिकी हुई है वह यह है कि किसी ‘निरपराधी’ को किसी भी सूरत में सजा नहीं मिलनी चाहिए। यदि कोई निरपराध व्यक्ति अपराधी या खतावार बन जाता है तो उससे न्याय की अवधारणा को ही गहरी चोट पहुंचती है। बेशक लोकतन्त्र में जानकारी प्राप्त करने का अधिकार जनता को होता है और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता भी भारत में मौलिक अधिकारों में शामिल है मगर इसका उपयोग किसी आरोपी व्यक्ति को अपराधी घोषित करने के लिए नहीं किया जा सकता। ऐसा केवल फौजदारी मामलों में ही नहीं होता बल्कि कभी-कभी राजनैतिक मामलों में भी हो जाता है। स्वतन्त्र भारत में एेसा पहला मामला 1958 के करीब आया था। उस समय प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू की सरकार के वित्त मन्त्री श्री टी.टी. कृष्णमाचारी के खिलाफ संसद के भीतर सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के सांसद व पत्रकार स्व. फिरोज गांधी ने आरोप लगाया था कि उन्होंने एक पूंजीपति हरिदास मून्दड़ा को भारतीय जीवन निगम से उनकी कम्पनी के शेयरों के बदले सवा करोड़ रुपए का कर्ज दिया है। इन शेयरों की कीमत ज्यादा आंक कर यह ऋण दिया गया। श्री फिरोज गांधी स्व. इंदिरा गांधी के पति व नेहरू जी के दामाद थे। अपने दामाद द्वारा अपनी सरकार के वित्त मन्त्री के विरुद्ध लगाये गये इस आरोप को देखते हुए नेहरू जी ने तभी तुरत- फुरत स्व. एम.सी. चागला के नेतृत्व में एक जांच आयोग गठित कर दिया। श्री चागला प्रसिद्ध न्यायविद् व पूर्व न्यायाधीश थे।
 भारत के आज तक के इतिहास का यह ऐसा जांच आयोग था जिसने अपनी रिपोर्ट केवल 12 दिन में ही दे दी थी। इस रिपोर्ट में श्री कृष्णमाचारी के ऊपर सन्देह की सुई उठाई गई थी जिसे देखते हुए नेहरू जी ने श्री कृष्णमाचारी से इस्तीफा ले लिया और मामला जांच के लिए उच्च न्यायालय में भेज दिया गया जहां से श्री कृष्णमाचारी बेदाग निकले। श्री फिरोज गांधी तब अंग्रेजी के इंडियन एक्सप्रेस अखबार के प्रबन्ध सम्पादक भी थे और सांसद भी थे। यह मात्र एक उदाहरण है। परन्तु आज कल तो हालात पूरी तरह बदल चुके हैं। किसी पर आरोप लगने के साथ ही उस व्यक्ति का ‘मीडिया ट्रायल’ विभिन्न टीवी चैनलों पर शुरू हो जाता है और गवाह से लेकर पीडि़त तक के साक्षात्कार शुरू हो जाते हैं और निष्कर्ष भी निकाले जाने शुरू हो जाते हैं। कोई भी व्यक्ति तब तक निरपराध ही माना जाता है जब तक की अदालत उसे सजा न सुना दे। मगर सार्वजनिक रूप से जिस प्रकार टीवी चैनल या अखबार में पुलिस से प्राप्त जानकारी के आधार पर फैसले जैसे निष्कर्ष निकाले जाते हैं, उससे सबसे ज्यादा पीड़ित ‘न्याय’ ही होता है। क्योंकि किसी भी मामले की जारी जांच के बीच कोई निर्णयात्मक निष्कर्ष निकालना पूरी तरह न्याय की भावना के विरुद्ध ही माना जायेगा। इसकी वजह भी सर्वोच्च न्यायालय की तीन सदस्यीय पीठ ने बताई है और कहा है कि जांच प्रक्रिया के दौरान ही गवाहों को प्रभावित होने से पूरी न्याय प्रक्रिया पर असर पड़ सकता है। ऐसा नहीं है कि इस तरफ देश के गृह मन्त्रालय का ध्यान नहीं हैं। 2010 में गृह मन्त्रालय ने पुलिस के लिए एक निदेशिका बनाई थी जिसमें पुलिस द्वारा फौजदारी मामलों की चल रही जांच के दौरान मीडिया को जानकारी देने के लिए कुछ सिद्धान्त बनाये गये थे। मगर तब से लेकर अभी तक आपराधिक मामलों के बारे में मीडिया की जिज्ञासा बहुत बढ़ चुकी है।
हकीकत यह है कि टीवी चैनलों के बीच ऐसे मामलों की रिपोर्टिंग में प्रतियोगिता जैसा माहौल बन चुका है। अतः सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश दिया है कि मन्त्रालय तीन महीने के भीतर एक नई नियम निदेशिका पुलिस के लिए तैयार करे। न्यायमूर्तियों का मानना है कि फौजदारी के चल रहे मामलों की जानकारी देने के लिए पुलिस की तरफ से एक विशिष्ट अधिकारी तय किया जाना चाहिए जो मीडिया के साथ समय-समय पर जांच से जुड़े तथ्यों की जानकारी देने के लिए अधिकृत हो। यह जानकारी हर आपराधिक मामले के अलग होने पर अलग तरह की ही होगी और सब चीजों का ध्यान रखते हुए होगी और इस तरह होगी कि उसके आधार पर मीडिया ट्रायल न हो सके। न्यायालय ने सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशकों को निर्देश दिये हैं कि वे एक महीने के भीतर इस बाबत अपने सुझाव गृह मन्त्रालय को दे दें जिससे मन्त्रालय तीन महीने के भीतर नई निदेशिका लागू करने के लिए तैयार हो सके। इस बारे में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को भी शामिल किया जाना चाहिए।
Advertisement
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
Advertisement
Author Image

Aditya Chopra

View all posts

Aditya Chopra is well known for his phenomenal viral articles.

Advertisement
×