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सम्पूर्ण सिंह कालड़ा यानि गुलज़ार दीनवी

03:04 AM Aug 26, 2024 IST | Shera Rajput

क्या आयु सम्पूर्ण सिंह कालड़ा या गुलज़ार दीनवी को जानते हैं? दो दिन पूर्व 90 वर्ष के हो चुके इस शख्स ने साहित्य, सिनेमा, संस्कृति और चित्रकला की दुनिया में समय की दीवार पर अपने हस्ताक्षर दर्ज कर दिए हैं और अभी भी वह ‘नाट-आउट’ हैं। विभाजन के समय अपने परिवार व परिजनों के साथ बम्बई में जा बसे थे। तब शुरुआती दौर में घर की रोटी रोजी के लिए एक मैकेनिक के रूप में जि़ंदगी की पहली इबारत लिखी। जब भी वर्कशाप से लौटते, पढ़ने या लिखने बैठ जाते। पिता ने रोका, ‘लिखने लिखाने, शायरी वायरी में कुछ नही रखा।’ मगर आज पिता जीवित होते तो फख्र करते, ‘मेरा पुत्तर पूरे मुल्क की जायदाद बन गया है।’
वाकई आज गुलज़ार पूरे राष्ट्र की सम्पत्ति हैं। केंद्रीय साहित्य अकादमी का अवार्ड 2002 में ही मिल गया था। वर्ष 2004 में पद्मभूषण और 2013 में दादा साहब फालके अवार्ड और अब ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिल गया था। अब, अवार्ड उनके सम्मान में इजाफा नहीं करते, उनका नाम अब अवार्डों की प्रतिष्ठा बढ़ाता है। ‘पुखराज’, ‘रात पशमीने की’ और ‘त्रिवेणी’ के बाद अब उनकी आत्मकथा पर आधारित कृति 'धूप को आने दो’ आई है तो एक अनूठा तहलका मचा है।
उम्र के इस मोड़ पर भी वह पूरी तरह प्रासंगिक बने हुए हैं। आज भी कुछ कहते हैं या लिखते हैं तो सुर्खियों में चर्चा होती है। शुरुआती दौर में एक बुकशॉप में किताबों की झाड़-फूंक की अदना सी नौकरी की तो मकसद यही था कि इस बहाने जब भी फुर्सत मिलेगी, एकाध अच्छी किताब पढ़ने को मिल जाएगी। राखी के साथ उनके वैवाहिक संबंधों के विवाद कुछ समय चले, मगर गुलज़ार ने लिखना, पढ़ना नहीं छोड़ा। परिणाम यही कि अब विवाद ने थक हार कर गुलज़ार की जि़ंदगी से विदा ले ली। बेटी मेघना गुलज़ार पर उन्हें आज भी गर्व है।
यदि आज भी उनकी हर रचना को पूरे गौर व गंभीरता के साथ पढ़ा जाता है तो कारण यही है कि वह नयापन और ताज़गी बनाए रखते हैं। अपने प्रशंसक, पाठक, दर्शक के अलावा स्वयं अपने आपको ऊबने नहीं देते। उनकी एक नई कविता देख लें-
इतवार
हर इतवार यही लगता है
देरे से आंख खुली है मेरी
या सूरज जल्दी निकला है
जागते ही मैं थोड़ी देर को
हैरां-सा रह जाता हूं
बच्चों की आवाज़ें हैं
न बस का शोर
गिरजे का घंटा क्यों इतनी
देर से बजता जाता है
क्या आग लगी है?
चाय...
चाय नहीं पूछी ‘आया’ ने
उठते-उठते देखता हूं जब
आज अख़बार की रद्दी कुछ ज़्यादा है
और अख़बार के खोंचे में रक्खी ख़बरों से
गर्म धुआं कुछ कम उठता है...
याद आता है...
अफ्फो! आज इतवार का दिन है। छुट्टी है!
ट्रेन में राज़ अख़बार के पढ़ने की
कुछ ऐसी हुई है आदत
ठहरीं सतरें भी अख़बार की,
हिल-हिल के पढ़नी पड़ती हैं !
गुलज़ार की एक विशेषता यह भी है कि वह निरंतर पढ़ते रहते हैं, किताबें भी और अपने आपको भी। यही पढ़ना-लिखना उन्हें प्रासंगिक भी बनाए रहता है और समकालीन परिवेश के लिए दिलचस्पी का केंद्र भी बनाए रखता है। उनकी एक कविता इन्हीं पुस्तकों को समर्पित है।
किताबें झांकती हैं बंद अलमारी
के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होती
जो शामें इनकी सोहबतों में कटा करती थीं
अब अक्सर गुजऱ जाती हैं
‘कम्प्यूटर’ के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं
जो क़दरें वो सुनाती थीं
कि जिनके ‘सैल’ कभी मरते नहीं थे
वो क़दरें अब नजऱ आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनती थीं
वह सारे उधरे-उधरे हैं
कोई सफहा पलटता हूं तो इक
सिसकी निकलती है
कई लफ्ज़ों के माने गिर पड़ते हैं
बिना पत्तों के सूखे टुंडे लगते हैं
वो सब अल्फाज़
जिन पर अब कोई माने नहीं उगते
बहुत सी इसतलाहें हैं
जो मिट्टी के सिकूरों की तरह
बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरूक कर डाला
ज़ुबान पर ज़ायका आता था जो
सफहे पलटने का
अब ऊंगली ‘क्लिक’ करने से अब
झपकी गुजऱती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रिहल की
सुरत बना कर
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे,
छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा बाद में भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल और महके हुए रुक्के
किताबें मांगने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे उनका क्या होगा?
वो शायद अब नहीं होंगे !

- डॉ. चन्द्र त्रिखा

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