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संघ, औरंगजेब व दाराशिकोह

संघ की निगाह में औरंगजेब और दाराशिकोह का महत्व

11:30 AM Mar 24, 2025 IST | Aditya Chopra

संघ की निगाह में औरंगजेब और दाराशिकोह का महत्व

संघ  औरंगजेब व दाराशिकोह

भारत के इतिहास में यदि मुगल साम्राज्य को महिमा मंडित करके इस इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि बादशाह औरंगजेब एक सफल शासक इसलिए था कि उसके दरबार में हिन्दू मनसबदारों की संख्या पिछले मुगल शासकों के मुकाबले सर्वाधिक थी और उसका साम्राज्य भी सबसे बड़ा था तो यह ‘सिवाए’ आक्रमणकारी मानसिकता के अलावा और कुछ नहीं है। औरंगजेब ऐसा क्रूर शासक था जिसने भारत की संस्कृति को पैरों तले रौंदते हुए इस्लामी संस्कृति को तरजीह दी थी और सिद्ध किया था कि भारत की हिन्दू रियाया सिवाय उसकी गुलाम होने के अलावा और कुछ नहीं है। वह हिन्दू रीति-रिवाजों और भारतीय मान्यताओं से इस कदर चिढ़ता था कि उसने गीत-संगीत पर ही प्रतिबन्ध लगा दिया था और अपने दरबार में हिन्दू त्यौहारों को मनाये जाने की परंपरा को भी बन्द कर दिया था। जबकि दूसरी तरफ उसी का भाई दाराशिकोह हिन्दू दर्शन व मान्यताओं का दीवाना था। उसने उपनिषदों का अरबी-फारसी में अनुवाद कराया था। वह भारत के ज्योतिष विज्ञान का भी गंभीर अध्येता था।

उसके पिता शहंशाह शाहजहां ने उसके लिए कश्मीर में एक विशिष्ट शाही बाग का निर्माण कराया था जहां शान्ति व सुकून के साथ वह अपना काम कर सके। दाराशिकोह हिन्दू साधु-सन्तों का भी उतना ही सम्मान करता था जितना कि मुस्लिम पीर-फकीरों का। एक तरफ जहां औरंगजेब के निशाने पर हिन्दू मन्दिर रहते थे वहीं दूसरी तरफ दाराशिकोह इन्हें हिन्दोस्तान की पहचान मानता था। बेशक औरंगजेब ने कुछ मन्दिरों को दान भी दिया होगा मगर वह हर साल मक्का-मदीने के लिए भारी रकम जकात में भेजा करता था। औरंगजेब ने हिन्दुओं की अस्मिता रूप में जाने जाने वाले काशी-विश्वनाथ मन्दिर व मथुरा में श्री कृष्ण के केशवदेव मन्दिर को तोड़ने का फरमान जारी किया था। केशवदेव मन्दिर की प्रमुख ईष्ट मूर्ति को राजस्थान के राजाओं ने किसी प्रकार बचाया। आजकल नाथद्वारा में श्रीकृष्ण जी की जो मूर्ति है वह मूल रूप से केशवदेव मन्दिर में ही थी। अतः यह सिद्ध करने की जरूरत नहीं है कि औरंगजेब आक्रमणकारी प्रवृत्ति का था।

इसलिए यह कहना लाजिमी है कि वर्तमान स्वतन्त्र भारत में कुछ उलेमाओं द्वारा उसे ‘रहमतुल्लाह-अलैह’ के एजाज से नवाजना सिवाय औरंगजेबी मानसिकता के और कुछ नहीं है। इसी मानसिकता ने 1947 में भारत के दो टुकड़े कराये और मुसलमानों के लिए अलग से पाकिस्तान का निर्माण कराया। सवाल यह है कि इतिहासकारों ने दाराशिकोह के साथ न्याय क्यों नहीं किया जो हकीकत में गंगा-जमुनी तहजीब का बहुत बड़ा पैरोकार था? इस सिलसिले में राष्ट्रीय स्वयं संघ के सरकार्यवाह या महासिचव श्री दत्तात्रेय होसबोले का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि भारत के मुसलमान खुद को दाराशिकोह से क्यों नहीं जोड़ते जो हिन्दू-मुस्लिम एकता की हर स्तर पर वकालत करता था। श्री होसबोले ने यह भी कहा कि आक्रमणकारी मानसिकता राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा है।

उनके वक्तव्य का वजन इस वजह से बहुत ज्यादा है क्योंकि संघ सर्वदा हिन्दू एकता की बात करता है परन्तु वह मुसलमान जनता को भी मूल रूप से भारतीय स्वीकार करता है। संघ जिस सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करता है उसमें दाराशिकोह जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्व का मूल्यांकन भी समाहित है। हमें मुगल शासकों को महान दिखाने की प्रवृत्ति का परित्याग करते हुए यह बताना होगा कि उनके राज में भारतीय संस्कृति की कितनी स्वीकार्यता थी? यह कहना कि मुगल साम्राज्य के दौरान कुल विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 25 प्रतिशत से भी ज्यादा था, वास्तव में ऐतिहासिक तथ्य है मगर यह कार्य भारत के हिन्दू उद्यमियों व व्यापारियों द्वारा किया जा रहा था। औरंगजेब ने इसका भी फायदा उठाया और उसने केवल हिन्दू व्यापारियों से ही शुल्क वसूला।

भारत के व्यापारी यह कार्य 1756 तक अंग्रजों के भारत में पैर जमाने तक करते रहे। 1756 में जब ईस्ट इंडिया कम्पनी के लार्ड क्लाइव ने पलाशी के मैदान में बंगाल के युवा नवाब सिराजुद्दौला को हराया तो विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 24 प्रतिशत के लगभग था।

अंग्रेज चूंकि मूल रूप से व्यापारी थे अतः उन्होंने भारत के व्यापार पर ही कड़ी नजर रखी और कालचक्र के चलते हुए यह हिस्सा 1947 में केवल एक प्रतिशत ही रह गया। हद यह हो गई 1832 के आसपास अंग्रेजों ने भारतीय मुद्रा को ही बदल दिया और शहंशाह की जगह अंग्रेज सम्राट आ गया। इसका मतलब यह निकलता है कि मुगल साम्राज्य के दौरान हिन्दू व्यापारियों का भारत के सर्वांगीण विकास में बहुत बड़ा योगदान था जिसे अंग्रेजों ने अपनी वाणिज्य नीतियों से नाकारा बना दिया और भारत को उद्योग क्रान्ति से दूर रखा। उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों के बीच की खाई को इसलिए अधिक बड़ा बनाया क्योंकि उनका प्रमुख कार्य भारत की सम्पदा को लूटने का ही था। बेशक इसके लिए औरंगजेब का शासन एक तैयार जमीन की तरह उपयोग में आया।

क्योंकि औरंगजेब हर स्तर पर हिन्दुओं को यह एहसास कराता था कि वे उसकी गुलामी में जी रहे हैं। उसने अपने साम्राज्य को विस्तार देने के लिए हिन्दू मनसबदारों का भी जमकर उपयोग किया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सबसे बड़ी कार्याकरी संस्था “अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा’ का तीन दिवसीय सम्मेलन कर्नाटक के बेंगुलुरु में सम्पन्न हुआ। जिसमें देश की वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों पर भी मनन हुआ होगा।

अतः श्री होसबोले का यह कहना कि दाराशिकोह का चिन्तन भारतीय परंपराओं के अनुरूप था जबकि औरंगजेब इनके खिलाफ था, पूरी तरह इतिहास की कसौटी पर खरा उतरता है। इस देश में जरूरत है कि हम उन व्यक्तित्वों को हाशिये पर न जाने दें जिन्होंने भारत की अस्मिता को अपना आदर्श माना। बिना किसी शक के इतिहासकारों को यह स्वीकार करना चाहिए कि औरंगजेब के मुकाबले दाराशिकोह जैसा व्यक्तित्व भारत के मुसलमानों के लिए आदर्श हो सकता है परन्तु यह भी सत्य है कि महाराष्ट्र के संभाजी नगर के करीब मौजूद औरंगजेब की कब्र पर विवाद भी निर्रथक है। हमें यह देखना चाहिए कि वर्तमान में दाराशिकोह की प्रासंगिकता को ऊपर रखते हुए हम औरंगजेब के दुःशासन को तरजीह न दें जिससे हर मुसलमान गर्व के साथ भारत की विरासत को अपनी विरासत कह सके। हिन्द के रहने वाले मुसलमानों की पहचान भी मक्का-मदीने में ‘हिन्दी’ कह कर जानी जाती है। हिन्द की विरासत दाराशिकोह की विरासत है न कि औरंगजेब की।

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Aditya Chopra

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