संसद का ‘सावन’ सत्र
संसद का सावन (वर्षाकालीन सत्र) आज से शुरू हो रहा है। इस सत्र में सत्ता और विपक्ष दोनों अपने-अपने कर्त्तव्यों का पालन करेंगे, एेसी अपेक्षा देशवासियों को करनी चाहिए। फिर भी पुराना इतिहास बताता है कि संसद हंगामे और आरोप-प्रत्यारोप के शोर-शराबे में डूब जाती है। हमारी संस्दीय लोकतान्त्रिक प्रणाली में संसद के प्रति जनता का विश्वास कभी टूटना नहीं चाहिए। मगर हम देख रहे हैं कि संसद के ‘सत्र-दर-सत्र’ जिस तरह खानापूर्ती में गुजर जाते हैं उससे देश की जनता में अच्छा संदेश नहीं जाता जिसका असर पूरे लोकतन्त्र पर पड़ता है। हमें सबसे पहले ध्यान रखना चाहिए कि संसद की जनता के प्रति जवाबदेही किसी भी सूरत में कम न हो। बेशक संसदीय प्रणाली स्थापित नियम-कायदों से ही चलती है जिसका ध्यान सरकार व विपक्ष दोनों को रखना पड़ता है। अगर जनता के प्रति सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों की जवाबदेही कम होती है तो लोकतन्त्र अन्दर से कमजोर हो जाता है। इसकी वजह यह है कि संसद में बैठने वाले सदस्यों को आम जनता ही चुनकर भेजती है। जो भी और जिस भी पार्टी के सदस्य संसद के सदस्य बनते हैं उन सभी की आवाज देश की 140 करोड़ जनता की होती है। इसीलिए संसद को सुचारू रूप से चलाने की जिम्मेदारी हमारे संविधान निर्माताओं ने सत्ता पक्ष पर डाली, क्योंकि विपक्ष में बैठने वाले सदस्यों का चुनाव भी आम जनता ही करती है। अतः संसद केवल वाद-विवाद का अखाड़ा नहीं होती, बल्कि यह देश हित व जनहित में फैसले करने वाली संस्था होती है। इसीलिए विपक्ष और सत्ता पक्ष के सदस्यों की खास जिम्मेदारी होती है कि संसद में बिना शोरगुल के जनता व देश के मुद्दे उठाये जायें। इन मुद्दों पर विपक्ष सरकार को घेरने की कोशिश करता है, जो कि उसका
दायित्व है।
सत्ता पक्ष का दायित्व भी संसदीय प्रणाली में इस प्रकार नियत है कि वह विपक्ष द्वारा उठाये गये हर जायज मुद्दे का जवाब दे। इस मामले में अगर राज्यसभा व लोकसभा दोनों में अहम की कोई लड़ाई छिड़ती है तो उसे हम अनावश्यक भी नहीं कह सकते क्योंकि स्थापित संसदीय परंपराओं के अनुसार संसद पर पहला अधिकार विपक्ष का ही होता है। इसकी वजह यह है कि विपक्ष के पाले में बैठने वाले सदस्य प्रायः अपेक्षाकृत रूप से आम जनता के सम्पर्क में ज्यादा रहते हैं। अतः उन्हें जन समस्याओं की जानकारी सीधे आम जनता ही देती है। यही कारण है कि विपक्ष में बैठी सबसे बड़ी पार्टी के किसी एक सदस्य को विपक्ष के नेता (लीडर आॅफ अपोजीशन) का रुतबा ‘अता’ किया जाता है और उसे किसी कैबिनेट मन्त्री के बराबर मिलने वाली सुविधाओं से नवाजा जाता है। संसद को चलाने में दोनों सदनों के अध्य़क्षों या सभापतियों को अधिकृत किया जाता है। अध्यक्ष की कुर्सी की तुलना भारतीय संस्कृति के महान न्यायविद सम्राट विक्रमादित्य के आसन से की जाती है क्योंकि वह सदस्यों के अधिकारों के संरक्षक होते हैं और उनका चुनाव सभी सदस्यों द्वारा प्रायः सर्वसम्मति से किया जाता है। उनका हर आदेश न्याय की कसौटी पर खरा उतरे, इसकी व्यवस्था हमारे संसदीय संविधान में ही पुख्ता तौर से की गई है। उनका हर फैसला पूरी तरह निष्पक्ष व पक्षपात से परे होना चाहिए। इस बारे में हमारे संविधान निर्माताओं ने जो व्यवस्था की है वह पूरी तरह संसद को सरकारी दबाव से मुक्त रखने की है।
लोकसभा के अध्यक्ष सरकार का अंग नहीं होते। संसद परिसर में उनका ही आदेश चलता है। बेशक वह लोकसभा में बहुमत प्राप्त सरकार के राजनैतिक दल के टिकट पर ही चुनाव जीतते हों मगर आसन पर बैठने के बाद वह ‘अराजनैतिक’ हो जाते हैं। पहले यह परम्परा थी कि जो भी सदस्य लोकसभा का अध्यक्ष चुना जाता था वह अपनी पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे देता था। मगर स्व. इन्दिरा गांधी के शासनकाल में इस प्रथा को छोड़ दिया गया जो अभी तक जारी है। सदन के सभापति या अध्यक्ष इस हकीकत से वाकिफ रहते हैं कि संसद में विपक्ष के सवालों का उत्तर देने के लिए सरकार बाध्य होती है। इसके बावजूद संसद के हर सत्र में शोर-शराबा व नारेबाजी आम बात हो गई है। यह स्थिति ठीक नहीं है क्योंकि सत्ता पक्ष व विपक्ष दोनों ही एक-दूसरे पर संसद न चलने की जिम्मेदारी डालते हुए नजर आते हैं। जाहिर है कि लोकतन्त्र में जनता की नजरों में चढ़ने के लिए विपक्ष सत्ता पक्ष पर हमलावार होना चाहेगा जिसे निरूत्तर करने की जिम्मेदारी सत्ता पक्ष को उठानी होगी। मगर इसके जवाब में संसद में गतिरोध का उत्पन्न होना किसी भी सूरत में उचित नहीं है। क्योंकि सरकार की तरफ से एक संसदीय कार्यमन्त्री की नियुक्ति भी होती है और उसी की यह जिम्मेदारी होती है कि वह विपक्ष व सत्ता पक्ष के बीच सामंजस्य स्थापित करे जिससे संसद सुचारू रूप से चल सके। आज से चालू सावन सत्र में विपक्ष ने घोषणा कर दी है कि वह पहलगांव घटना से लेकर बिहार में हो रहे मतदाता सूची की पुनरीक्षण का मामला उठायेगा और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बयानों को केन्द्र में लेगा। विपक्ष मोदी सरकार की विदेश नीति खासकर चीन, पाकिस्तान व फलस्तीन के बारे में उसके रुख पर संसद में चर्चा कराना चाहेगा। विपक्ष द्वारा उठाये जाने वाले हर मुद्दे का जवाब सरकारी पक्ष से मिले, इसकी व्यवस्था अध्यक्ष व सभापति ही करते हैं। मगर हम देख रहे हैं कि पिछले सत्रों में जब भी अपना मुद्दा उठाने के लिए विपक्ष कार्य स्थगन प्रस्ताव लेकर आया उसकी अनुमति आसन की तरफ से नहीं दी गई और इसी बात पर संसद में शोर-शराबा व गतिरोध तक पैदा हुआ। एेसी स्थिति से निपटने के लिए संसद की नियमावली में जो उपाय हैं वे भी बहुआयामी हैं। सवाल सिर्फ इस बात का है कि संसद चलनी चाहिए। मौजूदा सत्र में सरकार आठ नये विधेयक लेकर आ रही है और सात पुराने विधेयकों को पारित कराने जा रही है। विपक्ष को इन सरकारी विधेयकों पर भी गौर करना होगा जिससे संसद ठीक-ठाक तरीके से चल सके। लोकतन्त्र को जीवन्त बनाये रखने के लिए बहुत जरूरी है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों एक-दूसरे का सम्मान करें।