आत्महत्या करते स्कूली बच्चे
हाल ही में कई राज्यों में स्कूली छात्रों द्वारा आत्महत्या किए जाने की खबरें दुखद तो हैं ही लेकिन समाज के लिए चिंताजनक भी हैं। इन घटनाओं के पीछे मुख्य रूप से मानसिक उत्पीड़न और स्कूल में धमकाया जाना कारण बताया जाता है। परीक्षा में फेल होने या परीक्षा में कम अंक प्राप्त करने के डर मात्र से ही बच्चे आत्महत्या करते रहे हैं लेकिन मानसिक उत्पीड़न के चलते आत्महत्याओं का सिलसिला बहुत सारे सवाल खड़े करता है। दिल्ली के एक स्कूल के 16 वर्षीय 10वीं कक्षा के छात्र ने मैट्रो स्टेशन से कूदकर आत्महत्या कर ली। छात्र ने सुसाइड नोट में कुछ शिक्षकों को जिम्मेदार ठहराया और इच्छा जताई कि किसी अन्य छात्र के साथ ऐसा नहीं होना चाहिए। इस मामले में 4 शिक्षकों को निलम्बित कर दिया गया है और पुलिस जांच-पड़ताल कर रही है। जयपुर में चौथी कक्षा की छात्रा ने स्कूल की इमारत से छलांग लगा दी। राजस्थान के एक गांव में 14 वर्षीय बालिका पेड़ से लटकी पाई गई जबकि मध्य प्रदेेश में एक 11वीं कक्षा की छात्रा ने अपने घर पर ही आत्महत्या कर ली।
इन सभी मामलों में एक बात समान थी कि प्रत्येक बच्चे ने मानसिक उत्पीड़न का आरोप लगाया। यह सभी मामले परिस्थितियों से उभरती हुई एक महामारी की तरफ इशारा करते हैं जो स्कूली बच्चों को चरम सीमा की ओर धकेल रहे हैं। इसी वर्ष जुलाई में शीर्ष शिक्षा संस्थानों में दुखद घटनाओं के बाद सुप्रीम कोर्ट ने स्वतः संज्ञान लेते हुए प्रणालीगत सुधारों पर बल दिया था लेकिन इसके बावजूद इस दिशा में ठोस कदम नहीं उठाए गए। आज हर घटना के साथ हमारी प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। हम संवेदनाओं पर ध्यान केन्द्रित करते हैं और करुणामई हो जाते हैं। इस तरह की घटनाएं पूरे समाज की अन्तर्आत्मा को झकझोर कर रख देती हैं लेकिन हम सभी समाधान की ओर बढ़ते नहीं हैं। सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या बच्चे आत्महत्या की मनस्थिति में अचानक पहुंच जाते हैं। क्या बच्चे सहनशीलता छोड़ रहे हैं और गुस्सैल होते जा रहे हैं? दूसरी तरफ क्या शिक्षकों का व्यवहार गुस्सैल और आक्रामक होता जा रहा है? अभिभावकों और शिक्षकों को बच्चों के साथ कैसे पेश आना चाहिए ताकि उनके भीतर संवेदनशीलता बची रहे और उनके बेहतर इंसान बनने की राह में कोई बाधा उत्पन्न न हो। इस विषय पर व्यापक मंथन की जरूरत आ पड़ी है।
कोई वक्त था बच्चे नोट्स बनाते थे, एक-दूसरे से आदान-प्रदान करते थे, बाहर खेलते थे। लोगों से मिलते, बातें करते थे। वे अपने अनुभवों से काफी कुछ सीखते थे लेकिन अब बच्चे मोबाइल और इंटरनेट पर ही निर्भर हैं। इससे उनका सामाजिक कौशल कमजोर हो रहा है। भागदौड़ भरी जिन्दगी में फंसे अभिभावकों के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं होता। बच्चे जो मांगते हैं अभिभावक उन्हें आसानी से लेकर दे देते हैं। ऐसे में बच्चों में एक अधिकार की भावना आ जाती है जो आगे चलकर परेशानी का कारण बनती है। बच्चों का मानसिक विकास बाधित हो रहा है। बच्चों का जल्दबाजी में हर फैसला लेना, किसी भी बात पर तुरन्त प्रतिक्रिया देना, छोटी-छोटी बातों पर उत्तेजित हो जाना या अतिसंवेदनशील हो जाना आदि ऐसी बातें हैं जो बच्चों के लिए फाल्स आइडैंटिटी के तौर पर सामने आता है। दूसरों से अपनी तुलना करने, तुरन्त सब कुछ पा लेने, सहपाठियों के बीच खुद को बेहतर दिखाने की होड़ के चलते बच्चों में कुंठा, तनाव, निराशा, बदला लेने की प्रवृत्ति घर करने लगती है। जब यह भावनाएं बेकाबू हो जाती हैं तो आत्महत्याएं जैसी घटनाएं देखने को मिलती हैं।
शिक्षण संस्थानों की बात करें वह तो शिक्षा के शॉपिंग मॉल बन चुके हैं। शिक्षक और प्रिंसिपल का पूरा ध्यान कमाई पर हाेता है। शिक्षकों का व्यवहार रूखा और आक्रामक होता जा रहा है। बच्चों को बिना वजह डांटा जाता है। कुछ बच्चे स्वभाव से थोड़ा शरारती होते हैं लेकिन शिक्षक उसके स्वाभाविक व्यवहार की ओर ध्यान देने की बजाय उन्हें अपमानित करते हैं। दिल्ली के जिस बच्चे ने आत्महत्या की है उस बच्चे ने सुसाइड नोट में अपने शरीर के अंगदान करने की बात कही है। इससे पता चलता है कि बच्चा कितना संवेदनशील रहा होगा लेकिन किसी ने उस की मनस्थिति पर ध्यान ही नहीं दिया। स्कूल परिसर में कई बच्चे साधारण बातों पर भी या तो आक्रामक हो जाते हैं या फिर भावुक हो जाते हैं। उन्हें सम्भालना या समझाना मुश्किल हो जाता है।
अब शिक्षकों, परिवार और समाज को सोचना होगा कि स्कूलों का स्वस्थ वातावरण कैसे बनाया जाए। किशोर से युवा होते बच्चों का कोमल मन-मस्तिष्क किभी जटिल परिस्थिति का विश्लेषण करने में हर बार सक्षम नहीं हो सकता। अगर कोई बच्चा किसी दबाव से गुजर रहा है तो उसे भी पहचाने जाने की जरूरत है। ऐसे कानूनी कदम उठाए जाने चाहिए कि कोई भी शिक्षक छात्रों को शारीरिक और मानसिक रूप से प्रताड़ित न कर सके। स्कूलों में मेंटल हैल्थ पर ध्यान दिया जाना चाहिए और उनकी काउंसलिंग की जानी चाहिए ताकि वह भविष्य की जिन्दगी के लिए तैयार हों और मानसिक रूप से मजबूत बन सकें। स्कूल प्रबंधन बच्चों के प्रति संवेदनशील बने न कि उन्हें पैसा उगलने की मशीन के रूप में देखें। जब तक स्कूलों का वातावरण स्वस्थ नहीं होगा तब तक ऐसी दुखद घटनाएं रोकी नहीं जा सकतीं।

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