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संसद में समुद्र मंथन

प्रकृति का यह नियम होता है कि जब वर्षा के समय समुद्र में तेज लहरें किनारे की तरफ उठती हैं तो उसमें समाया हुआ सारा अघुलनशील

11:35 PM Jul 20, 2018 IST | Desk Team

प्रकृति का यह नियम होता है कि जब वर्षा के समय समुद्र में तेज लहरें किनारे की तरफ उठती हैं तो उसमें समाया हुआ सारा अघुलनशील

प्रकृति का यह नियम होता है कि जब वर्षा के समय समुद्र में तेज लहरें किनारे की तरफ उठती हैं तो उसमें समाया हुआ सारा अघुलनशील अपशिष्ट बाहर तट पर फैल जाता है। संसद के वर्षाकालीन सत्र में पेश हुए अविश्वास प्रस्ताव पर जो नजारा सामने आया है उसने प्रकृति के इस नियम का पालन करते हुए ही देशवासियों के सामने उन मुद्दों को उछाल कर बाहर फैंक दिया है जिन्हें बड़े यत्न से अभी तक आवरण में रखने के प्रयास किये जा रहे थे। स्वतन्त्र भारत का यह इतिहास रहा है कि यहां के राजनीतिक दलों ने जब भी जनता की नजर से बचा कर कुछ भी एेसा करने का प्रयास किया है जिसे लोकतन्त्र में लोक हितों के विरुद्ध समझा जाता हो तो उसका पर्दाफाश भी खुद राजनैतिक दलों ने ही किया है। यही हमारे लोकतन्त्र की ताकत है जो हमें सदैव सत्ता को जमाभिमुखी बनाये रखने की प्रेरणा देती रहती है। यह अविश्वास प्रस्ताव विपक्षी दलों ने मौजूदा सरकार को हटाने के लिए नहीं रखा था क्योंकि लोकसभा में संख्या बल उनके साथ नहीं था। बल्कि यह 2019 के चुनावों से पहले संसद में वह तथ्यात्मक वैचारिक मंथन करने के लिए रखा गया था जिससे राष्ट्र के समक्ष उन मुद्दों पर भी चर्चा हो सके जो लोगों में संशय का वातावरण बना रहे हैं।

कांग्रेस अध्यक्ष श्री राहुल गांधी ने जब यह कहा था कि अगर उन्हें संसद में केवल 15 मिनट बोलने का अवसर दिया जाए तो राजनीति में भूकम्प आ जाएगा। उनके इस कथन का भाजपा के हर सांसद ने जम कर मजाक उड़ाया था। मगर आज उनकी बात तब सच्ची होती लगी जब उन्होंने फ्रांस की एक कम्पनी के साथ हुए राफेल लड़ाकू विमानों के सौदे की तफ्सील को बाहर निकाल कर रख दिया। यह भूकम्प किसी सूरत में नहीं आ सकता था यदि रक्षामन्त्री इस बारे में हुए सौदे को रहस्य के आवरण में छुपाने में न लगी रहतीं किन्तु एेसा करके उन्होंने विपक्ष के हाथ में दूसरा बोफोर्स प्रकरण पकड़ा दिया। यह दुर्भाग्य है कि रक्षा सौदों के बारे में पिछले 30 साल से जिस तरह विवाद और आरोप–प्रत्यारोप लगते रहे हैं उससे भारत की सेनाओं के आधुनिकीकरण को धक्का पहुंच रहा है। इस मामले में जिस तरह राष्ट्र को संवेदनहीन बनाने की कोशिशें होती रही हैं उससे इस देश को जल्दी ही उभरना होगा और सरकार को जनता के सामने वे तथ्य रखने होंगे कि क्यों इस सौदे को देश की हवाई जहाज बनाने वाली सरकारी कम्पनी हिन्दुस्तान एयरोनाटिक्स लि. की जगह एक गैर विमानन कम्पनी को तीन गुना दाम पर 45 हजार करोड़ रु. की बढ़ौतरी के साथ दिया गया।

यह प्रश्न सरकार की उस साख से जुड़ा हुआ है जो लोकतन्त्र में पारदर्शिता की शर्त से इस प्रकार बंधी होती है कि राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े गोपनीय मुद्दों के अलावा वह हर तथ्य को राष्ट्रीय हित में समालोचना के लिए खुला छोड़ती है। हालांकि निर्मला सीतारमण ने आरोपों का जवाब भी दिया परन्तु लड़ाकू विमानों की कीमत किसी भी तरह गोपनीय सूचना के दायरे में नहीं आती और इस बारे में किन्ही भी दो देशों के बीच कोई गोपनीय समझौता नहीं होगा। देश की सुरक्षा से जुड़े सभी संजीदा मामलों के बारे में सभी भूतपूर्व रक्षामन्त्रियों को पूरी जानकारी रहती है मगर वे कभी भी सत्ता से बाहर होने के बावजूद उनका खुलासा नहीं करते लेकिन रक्षा सौदों को इस श्रेणी में कभी भी नहीं रखा गया। बल्कि इसके विपरीत जब पूर्व राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी रक्षामन्त्री थे तो उन्होंने अपनी आफ सेट खरीद नीति के तहत आयातित फौजी साजो-सामान की प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण के लिए सख्त नियम बना दिये थे और रक्षामन्त्रालय की वेब साइट पर खुली निविदाएं भरने की प्रणाली लागू की थी।

इस प्रणाली पर उनके बाद बने रक्षामन्त्री ए.के. एंटोनी ने भी अमल किया और जिस सौदे पर भी उनके कार्यकाल में अंगुली उठी उसकी उन्होंने जांच के आदेश भी दिए। वस्तुतः एंटोनी तो रक्षा मन्त्रालय में ‘जांच मन्त्री’ के तौर पर मशहूर हो गये थे। इसके साथ ही जिस तरह देश में सामाजिक वातावरण को हिंसा और बेसब्री के वातावरण में तब्दील करने की कुछ लोग कोशिश कर रहे हैं उसका संज्ञान लोकसभा ने लेते हुए उस हिन्दोस्तान की कैफियत बयान की है जिसकी वजह से यह मुल्क दुनिया भर से आने वाले कारवाओं का मुकाम बनता गया और हिन्दोस्तान बसता गया लेकिन अविश्वास प्रस्ताव को केवल संख्या बल का खेल समझने वाले लोग भारत के संविधान की खूबसूरती को नहीं पहचान सकते और उन्हें संसद की पाकीजगी और ताकत का ईल्म नहीं हो सकता जिसके जरिये यह आम जनता को लगातार आगे बढ़ने की प्रेरणा देती रहती है।

यह सब-कुछ केवल विचार विनिमय के जरिये ही होता है समय-समय पर इन सदनों की संरचना बेशक बदलती रहती है मगर जो नहीं बदलता वह इसका लोक कल्याणकारी स्वरूप। यह स्वरूप वह होता है जिसमें गरीबों दलितों, पिछड़ों अल्पसंख्यकों व महिलाओं को संवैधानिक रूप से बिना किसी भेदभाव के सशक्त किया जाता है। सवाल कांग्रेस या भाजपा का बिल्कुल नहीं है बल्कि उस भारत का है जिसमें विभिन्न धर्मों व मतों तथा जीवन शैली का अनुसरण करने वाले लोग सदियों से इकट्ठा रह रहे हैं, हमारी रंग– बिरंगी संसद इसका शुरू से ही प्रमाण रही है। अतः इसमें हुए मंथन से हमें जो मिलेगा वह हार–जीत न होकर हमारी वैवध्यपूर्ण तो होगी।

इसका प्रमाण यह है कि उस तथाकथित विपक्षी एकता का भंडाफोड़ भी इस मंथन में हो गया है क्योंकि शिवसेना, बीजद और तेलंगाना राष्ट्रीय समिति जैसी क्षेत्रीय पार्टियों ने इस मंथन से स्वयं को बाहर ही रखने में भलाई समझी। इसका राजनीतिक अर्थ यह निकलता है कि यह तीनों पार्टियां कहीं न कहीं सदन के भीतर सरकार को बचाना भी चाहती हैं और बाहर सड़क पर उनका विरोध भी करना चाहती हैं। इससे यह तो स्पष्ट हो गया कि विपक्ष दलों में एकजुटता में संसद और संसद से बाहर बहुत फर्क है। इससे अगर सावधान होने की जरूरत है तो वह कांग्रेस जैसी उस राष्ट्रीय पार्टी को ही है जो इन दलों के भरोसे विकल्प प्रस्तुत करने का प्रयास कर रही है।

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