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भारत-चीन सीमा की सुरक्षा

भारत-चीन सीमा सम्बन्धों में 1962 के बाद से उतार-चढ़ाव आता रहा है। चीन की सरकार की विस्तारवादी नीति के चलते भारत को चीनी सैनिकों के अतिक्रमण का सामना भी कई बार करना पड़ा है।

11:19 AM Oct 22, 2024 IST | Aditya Chopra

भारत-चीन सीमा सम्बन्धों में 1962 के बाद से उतार-चढ़ाव आता रहा है। चीन की सरकार की विस्तारवादी नीति के चलते भारत को चीनी सैनिकों के अतिक्रमण का सामना भी कई बार करना पड़ा है।

भारत-चीन सीमा सम्बन्धों में 1962 के बाद से उतार-चढ़ाव आता रहा है। चीन की सरकार की विस्तारवादी नीति के चलते भारत को चीनी सैनिकों के अतिक्रमण का सामना भी कई बार करना पड़ा है। मगर भारत-चीन के बीच सीमा रेखा विवाद भी बहुत लम्बा है। इसकी वजह यह है कि दोनों देशों के बीच सीमा को लेकर अलग-अलग अवधारणाएं हैं। चीन 1914 में खींची गई ‘मैकमोहन लाइन’ को नहीं मानता है। यह लाइन 1914 में ब्रिटिश हुकूमत के दौर में भारत, चीन व तिब्बत के बीच खिंची थी और चीन ने उस समय अंग्रेज कूटनीतिज्ञ श्री मैकमोहन ने तीनों देशों के बीच सीमा रेखा निर्धारित करने के लिए बैठक भारत के शहर शिमला में बुलाई थी। चीन ने इस बैठक का यह कहते हुए बहिष्कार कर दिया था कि वह तिब्बत को एक स्वतन्त्र देश नहीं मानता है और तिब्बत उसी का हिस्सा है। इसके बाद चीन ने 1949 में अपने स्वतन्त्र होने के बाद से ही तिब्बत पर हमला कर दिया था और 1959 तक इस देश के अस्तित्व को ही समाप्त करके अपने में समाहित कर लिया था।

भारत ने चीन द्वारा निर्दिष्ट सीमा रेखा को कभी स्वीकार नहीं किया और तिब्बत के शासनाध्यक्ष धर्मगुरु दलाई लामा को अपने यहां शरण दी और दलाई लामा ने हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला शहर में अपनी निर्वासित सरकार बनाई। यदि आधिकारिक दस्तावेजों को खंगाला जाये तो नेहरू युग तक भारत ने चीन के इस प्रस्ताव को ठुकराया कि दोनों देशों के बीच नियन्त्रण रेखा होनी चाहिए। देश के प्रथम प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने चीन को साफ कर दिया था कि नियन्त्रण रेखा जैसी अवधारणा कुछ नहीं होती बल्कि अन्तर्राष्ट्रीय सीमा होती है। तब हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा लगाते हुए चीन ने अचानक 1962 में भारत के विरुद्ध जंग छेड़ दी और हमारा अक्साई चिन इलाका हड़प लिया। चीन ने भारत विशेषकर पं. नेहरू के साथ बहुत बड़ा विश्वासघात किया था क्योंकि पं. नेहरू चाहते थे कि एशिया महाद्वीप में भारत व चीन आपसी सहयोग करते हुए आगे बढें़। इसी वजह से पं. नेहरू ने चीन से पंचशील समझौता भी किया था। मगर दलाई लामा के 1959 में भारत में शरण लेने के बाद चीन ने अपनी खीझ उतारते हुए 1962 में अचानक भारत पर हमला बोला और उसकी फौजें असम के तेजपुर तक पहुंच गईं। बाद में भारत के पक्ष में अन्तर्राष्ट्रीय शक्तियां होने की वजह से चीनी फौजें पीछे हटीं मगर अक्साई चीन उन्हीं के कब्जे में रहा।

बेशक पं. नेहरू की बुलंद व अजीम शख्सियत होने की वजह से चीनी फौजों को पीछे हटना पड़ा था। इस मौके पर अमेरिका ने भारत का साथ दिया था। इसके बाद से ही भारत के साथ चीन के सम्बन्ध खट्टे हो गये। इसके बाद से चीनी फौजों ने पीछे हटते हुए जहां ठहराव किया उसे ही नियन्त्रण रेखा मान लिया गया परन्तु 2003 में केन्द्र की भाजपा नीत वाजपेयी सरकार ने तिब्बत को चीन का अंग स्वीकार कर लिया। जाहिर तौर पर इसके बाद चीन को भारत के साथ अन्तर्राष्ट्रीय सीमा की निशानदेही करनी चाहिए थी मगर उसने एेसा करने के बजाय भारत के अरुणाचल प्रदेश को ही अपना हिस्सा कहना शुरू कर दिया। यह सारा इतिहास लिखने का मन्तव्य यही है कि चीन की ‘नीयत’ के बारे में भारत के लोग किसी मुगालते में न रहे। इसलिए हम समझ सकते हैं कि मई 2020 में भारत की लद्दाख सीमा में चीनी सैनिकों ने अतिक्रमण क्यों किया। इस सीमा की गलवान घाटी में 2020 के जून के महीने में अपने देश की रक्षा करते हुए भारतीय फौज के 20 जवान शहीद हो गये। चीनी सैनिक अनधिकृत तौर पर इस घाटी के भारतीय इलाके में घुस आये थे जिसकी वजह से दोनों देशों के फौजियों के बीच संघर्ष हुआ। इसके बाद से ही चीनी सैनिक भारतीय फौजों को अपने इलाके में गश्त लगाने से रोकने लगे और सीमा पर सैनिक अड्डे भी बनाने लगे। इसका भारत ने विरोध किया मगर चीन का कहना यही रहता है कि भारत के साथ सीमा की उसकी अपनी अवधारणा है। जून 2020 के बाद भारत व चीन के सैनिक कमांडरों के बीच वार्तां के डेढ़ दर्जन बार से भी अधिक दौर हो चुके हैं मगर कोई पक्का समाधान अब जाकर निकला है। यह सभी देशवासियों को पता होना चाहिए कि केन्द्र में स्व. नरसिम्हा राव की सरकार थी तो दोनों के बीच नियन्त्रण रेखा पर शान्ति व सौहार्द कायम रखने के लिए कई समझौते हुए थे। मगर 2020 में चीन ने इनका उल्लंघन किया और चोरी व सीनाजोरी दिखाते हुए भारतीय इलाकों को हड़पने की कोशिश की।

भारत सरकार के वर्तमान रक्षामन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने इस विवाद को जिस रणनीति के तहत सुलझाने का प्रयास किया है उसकी हर भारतीय प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता क्योंकि अब जाकर चीन ने गलवान घाटी में अपनी हदों में रहने के लिए समझौता किया है। चीन की हठधर्मिता को देखते हुए ही रक्षामन्त्री ने सीमा पर चीन को कड़ा जवाब देने हेतु 50 हजार से अधिक सैनिकों को तैनात कर दिया था और साथ ही कमांडरों के बीच वार्ताओं के दौर भी कराये थे। उन्होंने यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि आज का भारत 1962 का भारत नहीं है। अब चीन को राजी होना पड़ा है कि भारत की फौजें देपसंग पठार सहित दमचोक में भी पहले की भांति गश्त लगा सकेंगी परन्तु यह केवल सीमा के एक इलाके की घटना है। चीन से छह तरफ से भारत की सीमाएं लगती हैं अतः हमें हर सीमा क्षेत्र में सतत् सजग व जागरूक रहना पड़ेगा। क्योंकि चीन हमारे ही इलाके में घुस कर हमसे समझौता कर रहा है।

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