वरिष्ठजन बदलाव को स्वीकार करें
एक प्रश्न सभी से—क्या आपको अपनी सबसे पुरानी ऐसी कोई बात याद है, जिसे सोचते ही आज भी रोमांच हो उठता है? कभी बचपन का कोई खेल, कभी भाइयों-बहनों के साथ की तकरार या स्कूल में सहपाठियों के साथ बिताए पल। याद कीजिए वह समय जब छोटे-छोटे झगड़े भी होते थे लेकिन उनमें एक मिठास होती थी। थोड़ी देर में सब सामान्य हो जाता था। परिवार के साथ छुट्टियों में किसी रिश्तेदार के यहां जाना या किसी तीर्थ स्थल की यात्रा - ऐसे अनेक पल जो आज भी स्मृतियों में जीवित हैं।
अब प्रश्न उठता है-क्या आज के बच्चे या हमारे पोते-पोतियां ऐसी ही भावना से गुजर रहे हैं? शायद नहीं। आज का जीवन परिवर्तित हो चुका है। परिवारों का ढांचा बदल गया है, एकल परिवारों का प्रचलन बढ़ा है, सामाजिकता कम हो गई है और डिजिटल युग ने बच्चों की दुनिया ही अलग बना दी है। यह बदलाव केवल सामाजिक परिवेश तक ही सीमित नहीं है, बल्कि तकनीक, सोच, शिक्षा, संबंध, रहन-सहन या यूं कहें तो हर क्षेत्र में परिवर्तन आया है। यह मान लेना कि बदलाव गलत है, केवल इसलिए कि वह हमारे समय से भिन्न है, यह दृष्टिकोण नकारात्मक ही माना जाएगा। परिवर्तन जीवन का शाश्वत सत्य है। हर पीढ़ी अपने समय में जो कुछ जीती है, वही उसके लिए आदर्श बनता है। वरिष्ठजनों का दायित्व है कि वे इस बदलाव को केवल आलोचना की दृष्टि से न देखें, बल्कि इसे समझें और स्वीकार करें। यदि हम नई पीढ़ी के साथ संवाद स्थापित रखना चाहते हैं तो उनकी दुनिया को समझना और उसमें खुद को ढालना आवश्यक है। आज बच्चे ऑनलाइन पढ़ाई करते हैं, मित्रता भी सोशल मीडिया पर निभाते हैं, वीडियो गेम्स उनकी दिनचर्या का हिस्सा हैं, और ज्ञान का दायरा इंटरनेट ने व्यापक कर दिया है। यह सब भले ही हमें अपरिचित और शुष्क लगे, लेकिन इन्हीं में वे अपनी रुचि, समझ और सामर्थ्य का विकास कर रहे हैं।
यदि वरिष्ठजन इस परिवर्तन को अस्वीकार कर देंगे तो पीढिय़ों के बीच की दूरी और बढ़ती जाएगी। दूसरी ओर यदि वे जिज्ञासा के साथ इन नई चीजों को सीखने का प्रयास करें तो उनके लिए भी यह एक नयी यात्रा बन सकती है। मोबाइल फोन, इंटरनेट, ऑनलाइन बैंकिंग, सोशल मीडिया-ये सब हमारे लिए भी उपयोगी हो सकते हैं बशर्ते हम इन्हें अपनाने को तैयार हों। ज्यादातर बुजुर्ग लोग भी बहुत कुछ सीख रहे हैं। दिक्कत यह होती है कि इनकी तकनीक में इतनी जल्दी जल्दी परिवर्तन या अपग्रेडेशन होते हैं कि उनके साथ चलना मुश्किल हो जाता है।
साथ ही, बदलाव का अर्थ केवल तकनीकी परिवर्तन नहीं है। सामाजिक मूल्यों, संबंधों के स्वरूप और जीवनशैली में भी परिवर्तन आया है। पहले संयुक्त परिवार होते थे, आज एकल परिवार हैं। पहले जीवन में धीमापन और धैर्य था, आज भागमभाग है। पहले जीवन सीमित आवश्यकताओं तक सिमटा था, अब विकल्प और आकांक्षाएं बढ़ गई हैं।
ऐसे में वरिष्ठजनों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। वे अपने अनुभव, जीवन मूल्य और सादगी की शिक्षा देकर नई पीढ़ी का मार्गदर्शन कर सकते हैं, लेकिन यह तभी संभव है जब वे खुद समय के साथ चलने को तैयार हों। समय की धार को रोकना संभव नहीं है, लेकिन उसमें बहना और अपनी दिशा बनाना अवश्य संभव है। हमें यह भी समझना होगा कि बदलाव केवल बाहर नहीं आता, भीतर से भी आता है। जब हमारी सोच लचीली होगी, तब ही हम बदलती दुनिया में प्रासंगिक बने रह सकते हैं। यदि हम अपने पोते-पोतियों से संवाद करना चाहते हैं, तो उनके खेल, उनकी पढ़ाई, उनकी तकनीक को जानने का प्रयास करना होगा। तभी वे भी हमारे अनुभवों को सुनना और समझना चाहेंगे। कई वरिष्ठजन शिकायत करते हैं कि अब कोई सुनता नहीं, बच्चे व्यस्त हैं, परिवार समय नहीं देता। पर हमने कभी सोचा कि क्या हमने उनके साथ समरसता का प्रयास किया? जब हम खुद को उनके नजरिए से देखने का प्रयास करेंगे तभी वे भी हमारी भावनाओं का सम्मान करेंगे। उम्र का अर्थ केवल वर्षों की गिनती नहीं, बल्कि अनुभव, समझ और लचीलापन होना चाहिए। ध्यान रहे, समय बदलता है, पर मूल्य वही रहते हैं-प्यार, अपनापन, संवाद और सहयोग। हम इन मूल्यों के साथ बदलाव को अंगीकार करें, तो जीवन हर उम्र में सुंदर हो सकता है।