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शाह का माओवाद समाप्त करने का प्रण

02:57 AM Jul 19, 2025 IST | Rakesh Kapoor
शाह का माओवाद समाप्त करने का प्रण

पिछले पांच दशकों में श्री अमित शाह देश के एेसे पहले गृहमन्त्री हैं जिन्होंने नक्सलवाद या माओवाद की समस्या को निपटाने के लिए कठोर और निर्णायक कदम उठाये हैं। श्री शाह कह रहे हैं कि साल 2026 तक यह समस्या जड़ से समाप्त हो जायेगी। उनके इस दावे का ठोस आधार है क्योंकि 2024 से लेकर अब तक कुल 1450 माओवादी समर्पण कर चुके हैं। माओवादी छत्तीसगढ़ से लेकर झारखंड, ओडिशा, प. बंगाल व आन्ध्र प्रदेश व महाराष्ट्र तक में फैले हुए हैं। पिछले छठे दशक के अन्त से यह समस्या प. बंगाल से शुरू होकर अन्य राज्यों तक पहुंची थी। छठे व सातवें दशक में इनका नारा हुआ करता था कि सत्ता ‘बैलेट बाक्स’ से नहीं बल्कि ‘बन्दूक की गोली’ (बुलेट) से बदली जाती है। यह एेसा हिंसक विचार है जिस पर पूरा साम्यवाद टिका हुआ है।
भारत में इस पर आजादी मिलते ही प्रतिबन्ध लगा दिया था। जिसकी वजह से भारत के कम्युनिस्टों को स्वतन्त्र भारत में चुनाव लड़ने की तभी इजाजत मिली जब इन्होंने भारतीय संविधान को स्वीकार किया और यह कसम उठाई कि वे संसदीय व अहिंसक लोकतान्त्रिक तरीकों से सत्ता परिवर्तन में विश्वास रखेंगे और चुनावों को इसका माध्यम मानेंगे। मगर इसके बाद प. बंगाल में 1967 के बाद से नक्सलबाड़ी आंदोलन शुरू हुआ और पूरे राज्य में कत्लोगारत का बाजार गर्म हो गया। नक्सलबाड़ी आन्दोलन पर सत्तर के दशक में प. बंगाल के तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री सिद्धार्थ शंकर राय ने काबू पाने में सफलता तो प्राप्त की मगर इसके बाद देश के अन्य राज्यों में माओवादी पैदा होने लगे। तब से लेकर आज तक यह समस्या गंभीर बनी हुई है। मगर केन्द्र की मौजूदा मोदी सरकार ने इस समस्या को जड़ से खत्म करने का बीड़ा श्री अमित शाह के नेतृत्व में उठा रखा है।
श्री शाह की घोषित नीति है कि पहले की सरकारों की तरह माओवादियों से कोई बातचीत नहीं होगी और उन्हें आत्मसमर्पण हथियार डाल कर करना होगा। श्री शाह का यह कड़ा रुख बताता है कि गैर संवैधानिक रूप से कुछ राज्यों के खास-खास इलाकों में बन्दूक के जोर पर अपनी समानान्तर सरकार चला रहे माओवादियों के दिन अब गिने-चुने रह गये हैं। ये माओवादी अपने प्रभाव वाले इलाकों में कोई भी सरकारी विकास परियोजना चलाने नहीं देते हैं और फिरौती वसूल करते हैं। बन्दूक का राज कायम करने का इनका इरादा श्री शाह के समक्ष तब टूटा जब गृहमन्त्री ने यह साफ कर दिया कि भारत का संविधान न मानने वालों से कैसी बातचीत और क्यों बातचीत? हालांकि पिछली मनमोहन सरकार में खुद प्रधानमन्त्री स्व. मनमोहन सिंह ने एक बार जरूर यह कहा था कि माओवादियों की समस्या आतंकवाद से भी बड़ी है मगर उनकी सरकार के गृहमन्त्रियों का माओवादियों के प्रति रुख नरम और बातचीत से समस्या का हल ढंूढना ही रहा।
संसद के दोनों सदनों 2004 से लेकर 2014 के बीच कई बार इस मुद्दे पर बहस भी हुई मगर नतीजा कोई खास नहीं निकला। बेशक आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमन्त्री स्व. वाई.एस.आर. को कुछ माओवादियों का आत्मसमर्पण कराने में सफलता मिली थी। मगर छत्तीसगढ़ से लेकर झारखंड व महाराष्ट्र में एेसा कुछ नहीं हो पाया। पं. बंगाल में भी ममता दी को आंशिक सफलता मिली मगर ओडिशा में बीजू जनता दल की 20 साल चली सरकार के दौरान माओवादी सक्रिय रहे। गृहमन्त्री राष्ट्रीय स्तर पर माओवाद की समस्या का हल ढूंढ रहे हैं और इस मामले में वह किसी प्रकार का समझौता करने को तैयार नहीं हैं।
मुझे अच्छी तरह याद है कि जब 1999 से 2000 तक ओडिशा के मुख्यमन्त्री रहे स्व. हेमानन्द बिसवाल 2009 के चुनावों में कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा में चुन कर आये तो उन्होंने माओवादी समस्या पर हुई बहस में भाग लेते हुए कहा था कि माओवाद से निपटने का एक साधन यह है कि इससे प्रभावित राज्यों के युवाओं की सेना में भर्ती का विशेष अभियान चलाया जाये और एक पृथक रेजीमेंट स्थापित किया जाये। उनका कहना था कि माओवादी बने युवक जवानी के जोश में भटके हुए युवक हैं और गलत रास्ते पर चल पड़े हैं। ये हमारे बीच से ही गये हैं। अतः इन्हें सही रास्ता दिखाने के तरीके ढूंढे जायें। 2004 से 2008 तक देश के गृहमन्त्री रहे श्री शिवराज पाटील का नजरिया भी लचीला था। हालांकि 2004 से पहले वाजपेयी सरकार के गृहमन्त्री श्री लाल कृष्ण अडवानी का विचार सख्ती के साथ माओवादियों से निपटने का जरूर था। जिसके चलते उन्होंने नक्सल प्रभावित राज्यों के गृहमन्त्रियों व पुलिस महानिदेशकों से बातचीत भी की थी और एक संयुक्त पुलिस कमान गठित करने का सुझाव भी रखा था।
2019 में जब श्री अमित शाह गृहमन्त्री बने तो उन्हें यह समस्या विरासत में मिली। इस तरफ उन्होंनेे शुरू से ही कड़ा रुख रखा और माओवादियों से बातचीत करने के तरीके को सही नहीं माना। इसके चलते उन्होंने जो रणनीति बनाई उसके परिणाम स्वरूप माओवादियों का आत्मसमर्पण होना शुरू हुआ। 2024 में श्री शाह ने ‘नियाद नेलनार स्कीम’ के तहत श्री शाह ने नक्सली या माओवादी प्रभावित जिलों के गांवों में पुलिस शिविर लगा कर माओवादियों का मुकाबला करने की रणनीति बनाई। नक्सल प्रभावित राज्यों की पुलिस को अत्याधुनिक हथियारों से लैस किया गया लेकिन श्री शाह ने यह नीति भी बनाई है कि आत्मसमर्पण करने वाले प्रत्येक उग्रवादी को 50 हजार रुपये दिये जायेंगे और उसे किसी विशेष व्यवसाय के लिए निपुण किया जायेगा।
विगत 12 जुलाई को ही छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में 23 माओवादियों ने आत्मसमर्पण किया जिनमें कुछ एेसे भी उग्रवादी थे जिनके सिर पर पुलिस ने भारी रकम का इनाम रखा हुआ था। इन सभी पर पुलिस बल के सदस्यों व आदिवासी नागरिकों का कत्ल करने का आरोप था। ये सब राज्य के सुकमा जिले में सक्रिय थे। इनमें से आठ तो एेसे हैं जो माओवादी संगठन पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के सदस्य थे। सभी 23 माओवादी 35 वर्ष से कम उम्र के हैं। अतः गृहमन्त्री अमित शाह के व्यक्तित्व का यह एक पहलू है जो उनकी छवि कठोर स्पष्टवादी राजनेता की बनाता है मगर उनके व्यक्तित्व का दूसरा पहलू बहुत सम्मोहक व जनाभिमुखी है।
पूरी भाजपा में संसद में उन जैसा संसदीय बहस में प्रवीण नेता नहीं है। इस चातुर्य को उन्होंने लोकसभा व राज्यसभा दोनों में ही बड़ी प्रवीणता के साथ दिखाया है। इसी वजह से उन्हें संसद में भाजपा की नैया का खिवैया माना जाता है। इसके साथ ही श्री शाह को अपनी पार्टी की राजनीति का चाणक्य भी कहा जाता है। गृहमन्त्री भारत के हर राज्य के लिए अपनी पार्टी का एजेंडा तय करने वाले भी माने जाते हैं। केरल व तमिलनाडु में 2026 में विधानसभा चुनाव होने हैं। इनमें से तमिलनाडु के एजेंडे के बारे में मैं पहले ही इसी स्तम्भ में लिख चुका हूं। केरल के बारे में उनका एजेंडा है ‘विकसित केरल’। मगर इससे पहले केरल में स्थानीय शहरी निकायों के चुनाव होने हैं और इनके लिए शाह का लक्ष्य है कि प्रत्येक शहर में कम से कम 25 प्रतिशत वोट। भाजपा केरल राज्य में तमिलनाडु के मुकाबले ज्यादा मजबूत मानी जाती है।
भाजपा का ग्राफ यहां हर लोकसभा चुनाव में बढ़ रहा है। 2014 में इसे 11 प्रतिशत वोट मिले थे जो 2019 में बढ़ कर 16 प्रतिशत हो गये और 2024 में ये वोट बढ़ कर 20 प्रतिशत हो गये। इसलिए शहरी निकाय में शाह ने लक्ष्य 25 प्रतिशत वोटों का रखा है। केरल देश का एकमात्र राज्य है जहां संघ व भाजपा कार्यकर्ताओं की सबसे ज्यादा हत्याएं हुई हैं। अब 21 जुलाई से ही संसद का सावन सत्र शुरू हो रहा है। इस सत्र में इस विषय को लेकर चर्चा होना स्वाभाविक माना जा रहा है।

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