तीन आईएएस बेटियों की मां शांता कटारिया
विभाजन विभीषिका के संदर्भ में कुछ विलक्षण शख्सियतों को याद करना अत्यंत आवश्यक है। ऐसी ही एक उद्यमीय संवेदनशील व समर्पित महिला थीं श्रीमती शांता कटारिया। श्रीमती शांता कटारिया भारत-पाक सीमा पर स्थित नगर अबोहर की एक ऐसी संवेदनशील समाज सेविका थीं जिसने भारत विभाजन के समय सीमा पार से उजड़ कर आने वाले परिवारों की महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए अनेक उपक्रम आरंभ किए। इस दिशा में उन्होंने विस्थापित महिलाओं के लिए सिलाई-कढ़ाई का प्रशिक्षण केंद्र स्थापित किया, बल्कि उन्हें सिलाई मशीनें भी वितरित कराईं। असंख्य निरक्षर महिलाओं को साक्षर बनाया और उनके लिए नियमित निःशुल्क कक्षाएं भी आयोजित कराईं।
उन्होंने अपनी संतानों को उच्च शिक्षा एवं सामाजिक प्रतिबद्धता के संस्कार दिए। परिणामस्वरूप उनकी तीन बेटियां भारतीय प्रशासनिक सेवा में चयनित हुईं और अन्य बेटियों ने पंजाब-हरियाणा के विभिन्न कॉलेजों पर प्राध्यापन कार्य किया। उनकी सबसे छोटी बेटी रश्मि ने शारीरिक एवं मानसिक विकलांगों के लिए कुरुक्षेत्र में एक सामाजिक संस्था की स्थापना की। उनके पति श्री सरदारी लाल जीवनपर्यंत गांधीवादी विचारक एवं समाज सेवा में समर्पित रहे।
परिवार आर्य समाज की संस्थाओं से जुड़े होने के बावजूद उन्होंने अपने नगर में आचार्य महामण्डलेश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी, गीता मनीषी, स्वामी ज्ञानानंद जी व अन्य आध्यात्मिक संतों के प्रवचनों का भी आयोजन किया। यह भी विशेष उल्लेखनीय है कि उन्हीं की प्रेरणा से उनकी बेटियों ने अपने गृहनगर अबोहर में एक वृद्धाश्रम भी स्थापित कराया है, जिसमें उनके जीवन से सकारात्मक व सोद्देश्यता के रंग भरे गए हैं।
श्रीमती शांता की शादी जब हुई (1946) तब मैट्रिक परीक्षा की तैयारी कर रहीं थीं। पति श्री सरदारी लाल कटारिया ने स्वयं उनका दाखिला देवसमाज स्कूल फिरोजपुर में कराया और शांता जी ने मैट्रिक की परीक्षा हॉस्टल में रह कर दी जो 1946 में एक क्रांतिकारी पहल थी। विभाजन के समय उजड़ी औरतों के कपड़ों में उनके गहने सिल कर उन्हें सुरक्षित स्थानों पर पहुंचाने में मदद की। पाकिस्तान से आयीं विस्थापित महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए पूनियां कातने का काम शुरू करवाया और इस सामुदायिक पहल में नेतृत्व प्रदान कर अनेकों लोगों को जोड़ा। नवविवाहिता पति-पत्नी ने तय किया था कि उनके बच्चे गुलाम देश में जन्म नहीं लेंगे। उनकी सबसे बड़ी बेटी नीलम जो बाद में केंद्र में आईएएस बनीं, का जन्म जुलाई 1948 में हुआ।
पति-पत्नी की स्वयं खूब पढ़ने, कॉलेज जाने की चाह तो दुनियावी चुनौतियों के चलते पूरी ना हुई, पर अपने सपनों को उन्होंने अपनी सभी बेटियों को उच्च शिक्षा देकर पूरा किया। सभी बेटियों का ‘करियर’ लेक्चरर के रूप में शुरू हुआ और बाद में तीन बेटियां आईएएस बनीं। सनातनी विचारधारा की प्रबल समर्थक थीं और पूजा-पाठ में भी उनकी गहन रुचि थी। पति श्री सरदारी लाल जी कट्टर आर्यसमाजी थे। मगर घर में हवन और पूजन दोनों नियमित होते थे। शांता जी न केवल बहुत खूबसूरत महिला थी, उनकी विनम्रता और व्यवहार की गरिमा ने अबोहर और कुरुक्षेत्र में उन्हें बहुत लोकप्रियता दिलाई। अबोहर में उनका रुतबा ‘जगत चाची या जगत मासी’ के रूप में बना रहा। शांता जी ने हिंदुस्तान-पाकिस्तान युद्ध में फौजियों के लिए स्वेटर, जुराबें बुनी भी और बुनवाईं भी।
सामान्यतः जब लोग रिटायर होते हैं, उस उम्र में शांता कटारिया के करियर की नई शुरूआत हुई। उनके मन में कहीं ये भी रहा कि कोई ये ना कह दे कि वो बेटियों कि कमाई पे निर्भर हैं, इसीलिए अपने गुजर-बसर की जिम्मेवारी तो उन्होंने स्वयं उठायी ही, साथ ही साथ आयुपर्यंत हर वर्ष प्रधानमंत्री रिलीफ फण्ड, गौशालाओं, कुष्ठ आश्रम, आर्य समाज, वृद्ध आश्रम में भी वो योगदान भेजती थीं। उनका यही जज्बा बेटियों के लिए प्रेरणा बना कि उनकी बेटियों ने अबोहर में एक वृद्ध आश्रम और एक अनाथालय को 2022 से आरम्भ किया। हाल ही में एक दानी सज्जन ने इस प्रोजेक्ट के लिए भूमि दान दी है और अब परिवार अबोहर क्षेत्र से जुड़े लोगों को प्रेरित करके नये भवन का निर्माण कर रहा है। शांता जी की सोच से ही स्थापित हुआ, सार्थक संस्थान जो 1999 से एक उदारमना दानी पूर्णचंद अरोड़ा के सहयोग से मूक-बधीर बच्चों को शिक्षा के माध्यम से आत्मनिर्भर बनाने में उनकी बेटी रश्मि कटारिया की देखरेख में जुटा है। लगभग 25 बच्चे पूर्णतः स्वावलम्बी होकर बैंक, ऑफिसर्स व कृषि व्यापार के क्षेत्र में अपना योगदान दे रहे हैं।
सौम्यता और विचारों से प्रभावित शांता कटारिया ने गीता मनीषी स्वामी ज्ञानानंद जी की कृपा से उनसे दीक्षा ली और तमाम उम्र के जप-तप को एक दिशा मिली जिससे उन्हें पूर्णता का आभास हुआ। अपने गुरु की भक्ति में उन्होंने कुछ भजन भी लिखें जिन्हें विकास रलहन ने स्वरबद्ध किया। इसी शांता कटारिया जी के प्रयास और इच्छा का परिणाम था कि 2011 में जूना पीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी ने उनके गृहनगर में सात दिवसीय भागवत कथा परायण किया जिस्की स्मृतियां अबोहर वासियों के दिलों में अब भी अक्षुण हैं। कथा समापन के दिन शांता कटारिया ने भावविह्वल हो कर कहा था, हम अब अबोहर में नहीं रहते, पर अबोहर हमारे दिल में बसता है, हम जहां भी हैं, खुश हैं क्याेंकि पूरा हिंदुस्तान हमारा है। कथा समापन के ठीक 15वें दिन शांता कटारिया स्वर्ग सिधार गयीं और छोड़ गयीं अनगिनत यादें जो उनकी पहचान एक सशक्त, महिलाओं, निराश्रितों के सशक्तिकरण को समर्पित व्यक्तित्व के रूप में हमेशा उन दिलों में जिंदा रखेगा जिन्होंने उन्हें देखा, जाना, सान्निध्य में रहने का अवसर पाया।
तीन लाख की रायल्टी : अब कई दिन तक इस खबर की भी चर्चा चलेगी। रायपुर में आयोजित हिंद युग्म उत्सव के पहले दिन साहित्यकारों, संस्कृति कर्मियों, पाठकों एवं छत्तीसगढ़ के विभिन्न अंचलों से आए हुए युवाओं का सैलाब रोमांचित करने वाला था। सभी तरफ केवल भीड़ ही भीड़। सभागृह में, बुक स्टालों में, कला दीर्घाओं में, खुले मंच में, विभिन्न कलाओं और सेल्फी जोन में सब जगह साहित्य और कला प्रेमियों का जैसे जनसैलाब उमड़ आया था। यह सैलाब सरकारी सैलाब और संस्कृति विभाग के दिखावा और फूहड़ता का सैलाब नहीं था, बल्कि आत्म प्रेरणा स्वतः स्फूर्त साहित्य और कला प्रेमियों का एक व्यापक जनसमूह था। हिन्दी कवि विनोद कुमार शुक्ल पर केंद्रित इस दो दिवसीय आयोजन शानदार उपलब्धि थी इसी प्रकाशन द्वारा उनकी चार किताबों की रॉयल्टी के रूप में तीस लाख रुपए का चेक प्रदान किया जाना। आज तक किसी भी लेखक को एक वर्ष की रॉयल्टी के रूप में तीस लाख रुपए हिंदी के किसी भी प्रकाशक द्वारा किसी भी लेखन को प्रदान नहीं किया गया। अब इसके बाद निरंतर चर्चा में है भारतीय लेखकों की ‘रॉयल्टी’ का सवाल। अंग्रेजी प्रकाशनों में तो अब विक्रम सेठ, चेतना भगत सरीखे लेखकों को लाखों की राशि अग्रिम रूप में देने का प्रावधान चल निकला है।
बॉय-बॉय सोना : अब इस गीत पर भी पुनर्विचार की ज़रूरत है, ‘ना मांगूं सोना-चांदी, ना मांगू हीरा-मोती, ये मेरे किस काम के।’ सोना अब शिखर पर है। अब सोने से जुड़ी अनेक कहावतें भी चर्चा में उतर आई हैं। ‘सोने पे सुहागा’, ‘खरा सोना’, ‘सोने की खान’, ‘चांदी की चम्मच’ मुंह में लेकर पैदा होने वालों की चर्चा। वैसे अब सोने का आम आदमी से संबंध टूटता जा रहा है और अंत में .... मां बरसों पहले कह रही थी- बेटा, सोना-चांदी तो घणा महंगा है, आज धनतेरस पर तकिया ही खरीद लेना, वो भी सोने की ही चीज है।