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श्रीराम : शुभ घड़ी आई-4

भारत जैसे राष्ट्र में गरिमामय यही होता कि श्रीराम मंदिर जन्म भूमि का हल आपस में मिल-बैठकर बहुत पहले निकाल लिया जाता।

12:08 AM Aug 04, 2020 IST | Aditya Chopra

भारत जैसे राष्ट्र में गरिमामय यही होता कि श्रीराम मंदिर जन्म भूमि का हल आपस में मिल-बैठकर बहुत पहले निकाल लिया जाता।

भारत जैसे राष्ट्र में गरिमामय यही होता कि श्रीराम मंदिर जन्म भूमि का हल आपस में मिल-बैठकर बहुत पहले निकाल लिया जाता। मैं यह भी मानता हूं कि 6 दिसम्बर 1992 में जो घटना घटी वह दुर्भाग्यपूर्ण थी, परन्तु नियमित ने हमें उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया था तो यह भारतवासियों का दायित्व था कि परिस्थितियों को देखते हुए सतर्कता से काम लेते। मस्जिदों और मन्दिरों के निर्माण स्थल तो बदले जा सकते हैं लेकिन जन्म स्थान नहीं बदले जा सकते।
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अगर भारतवर्ष के करोड़ों लोग उस स्थान को राम जन्म भूमि मानते हैं तो इस राष्ट्र के मुस्लिम बंधुओं को चाहिए था कि वे मन्दिर के निर्माण में सहायक बनते और कोई बाधा खड़ी नहीं करते। वार्तायें होती रहीं, साधु-संतों से लेकर नकली शंकराचार्यों तक ने मध्यस्थता की कोशिश की।
मीडिया में बयानबाजी  कर अच्छी-खासी सुर्खियां बटोरीं लेकिन कोई रजामंद नहीं हुआ। धर्मगुरुओं ने बहुत प्रयास किए, बुद्धिजीवियों ने बहुत भाषण दिए, उन्मादियों ने बहुत नारे लगा दिए लेकिन हर बार हिन्दू और मुस्लमां होते गए। राम मंदिर चुनावी मुद्दा बन गया और जब भी चुनाव आते वह मनुष्य को मनुष्य नहीं रहने देते।
26 सितम्बर 1990 को सोमनाथ से अयोध्या की रथ यात्रा और उसके सारथी लाल कृष्ण अडवानी की हुंकार पर भारत का हिन्दू उठ खड़ा हुआ। यह इतिहासजनक तथ्य सदैव रहेगा कि इस रथ यात्रा ने हिन्दुओं में आत्मसम्मान को जगा दिया। समूचे राष्ट्र में यही उद्घोष सुनाई देने लगा ‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’, फिर 6 दिसम्बर 1992 को विवादित ढांचा गिरा दिया गया, जिसको लेकर नारे लगे थे कि मन्दिर वहीं बनायेंगे।
मेरा मानना है कि अडवानी की रथ यात्रा की शुरूआत के समय ही वैचारिक समुद्र मं​थन की शुुरूआत हुई। रथ यात्रा के दौरान जनता का सैलाब उमड़ पड़ा जो इस बात का प्रमाण था कि कोई राष्ट्र धर्म और इतिहास की धड़कन से शून्य नहीं हो सकता। यह बात सभी सभ्यताओं और सभी राष्ट्रों पर समान रूप से लागू होती है। जब भी कौम को धर्म और इतिहास शून्य बनाने की जितनी कोशिशें हुई उस सबका परिणाम असफलता ही रहा।
पूर्व यूरोपीय और सोवियत संघ जैसे कई देशों में धर्म-इतिहास शून्य नया इंसान गढ़ने की कोशिशें हुई। कंबोडिया के पोल पॉट से लेकर सोवियत संघ के स्टालिन शासन में करोड़ों लोगों का नरसंहार हुआ लेकिन परिणाम असफलता था। अडवानी की रथ यात्रा से ही हिन्दू आकांक्षाओं को पंख लगे। उसके अवचेतन में प्रतिक्रिया होने लगी। उसे अपनी अस्मिता, अपने अस्तित्व की चिंता होने लगी और भारत भगवा होता चला गया। इतिहास में कभी-कभी ऐसे प्रसंग भी आते हैं जो कालजयी हैं, वे किसी जाति, वर्ग और धर्म विशेष के लिए नहीं होते, वे सारी मानवता के लिए उपदेश होते हैं।
उसका विस्तार दिल से दिल तक  होता है। कई बार अशुभता में भी शुभता छिपी होती है। बाबरी विध्वंस हुआ, उसके बाद देशभर में साम्प्रदायिक दंगे हुए, अनेक लोगों की जानें चली गईं। यह सब कुछ अशुभ था लेकिन इससे श्रीराम जन्म भूमि पर भव्य मंदिर बनाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। जमकर सियासत भी हुई।
भारत का बाबर से कोई संबंध नहीं था। वह एक विदेशी विधर्मी हमलावर था। बाबर मध्य एशिया का था। उसने पहले अफगानिस्तान जीता, बाद में भारत आया था। बाबर की कब्र अफगानिस्तान में है। भारत का एक प्रतिनिधिमंडल वर्षों पहले अफगानिस्तान गया था तो उसने पाया कि वह कब्र जीर्ण-शीर्ण अवस्था में थी। तब अफगानी नेता बबरक कमाल से पूछा गया कि कब्र की ऐसी बुरी हालत क्यों है? तो उसने उत्तर दिया कि बाबर विदेशी हमलावर था, उसने हम पर आक्रमण किया, हमें गुलाम बनाया। वह मुसलमान था इसलिए हमने यह कब्र नहीं गिराई परन्तु जिस दिन गिरेगी उस दिन हर अफगानी को आनंद होगा।
बबरक कमाल 1981 में अफगान प्रधानमंत्री बने थे। इंडोनेशिया की 90 फीसदी आबादी मुस्लिम है। वह घोषित मुस्लिम देश है परन्तु उनका सर्वश्रेष्ठ आदर्श आज भी ‘राम’ है। वहां के प्राथमिक विद्यालय में रामायण का अध्ययन अनिवार्य है। इंडोनेशिया 700 वर्ष पहले हिन्दू-बौद्ध राष्ट्र था। उन्होंने अपनी परम्परायें नहीं छोड़ीं। ईरान मुस्लिम देश है परन्तु वे रुस्तम सोहराब को राष्ट्रीय पुरुष मानते हैं। रुस्तम सोहराब पारसी थे।
मिस्र देश में पिरामिड राष्ट्रीय प्रतीक हैं। पिरामिड तीन हजार से भी अधिक वर्ष पूर्व के हैं और उस समय इस्लाम था ही नहीं। काश! ईरान, इंडोनेशिया और मिस्र के मुस्लिमों का आदर्श यहां के मुस्लिम रखते तो समस्या खड़ी ही नहीं होती। भगवान श्रीराम भारत की पहचान, राष्ट्रीयता का प्रतीक है।
राम मंदिर निर्माण राष्ट्रीयता का ​विषय है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देश के मुस्लिम समाज ने भी स्वीकार किया और पूरे देश में सद्भाव बना रहा। अब कोई विवाद नहीं रह गया। अल्लामा इकबाल जैसे शायर ने श्रीराम के पावन व्यक्तित्व पर नाज करते हुए लिखा था।
‘है राम के वजूद पे हिन्दोस्तान को नाज, 
अहले नजर समझते हैं, उनको इमामे हिन्द।’  
वास्तव में आज भारत को श्रीराम के आदर्शों की बड़ी जरूरत है।
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