सुस्त अर्थव्यवस्था और लुटता बाजार
कोरोना वायरस चीन ही नहीं भारत और बाकी दुनिया की अर्थव्यवस्था को भी बड़ी चपत लगा रहा है। इसके चलते बीएसई और एनएसई में भारी गिरावट से निवेशकों को करीब 11 लाख करोड़ की चोट लग चुकी है।
05:41 AM Mar 01, 2020 IST | Aditya Chopra
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कोरोना वायरस चीन ही नहीं भारत और बाकी दुनिया की अर्थव्यवस्था को भी बड़ी चपत लगा रहा है। इसके चलते बीएसई और एनएसई में भारी गिरावट से निवेशकों को करीब 11 लाख करोड़ की चोट लग चुकी है। रिलायंस से लेकर टाटा तक सभी दिग्गजों के शेयर धड़ाम हुए हैं। यह गिरावट दुनिया के बाकी शेयर बाजार की तर्ज पर है। अमरीका के डाउजोंस सहित सभी बड़े शेयर बाजारों का यही हाल है। कोरोना वायरस ने अब चीन से बाहर भी तेजी से पांव पसारना शुरू कर दिए हैं। अगर हालात जल्द काबू में नहीं किए गए तो दुनिया को बहुत बड़ी आफत का सामना करना पड़ सकता है। 135 वर्ष के इतिहास में जब भी डाउजोंस में ऐतिहासिक गिरावट हुई तो उसके कारण दुनियाभर के बाजार भी औंधे मुंह गिरे।
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गिरावट के कारणों में मंदी, युद्ध, सरकारी नीतियां, व्यापार और राजनीतिक उथल-पुथल के साथ सार्स और अब कोरोना वायरस संक्रमण शामिल हैं। बाजार से जुड़े लोग जानते हैं कि 2008 में जीडीपी के लगातार नकारात्मक आंकड़ों ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था की कमर तोड़ दी थी। इस दौरान अमेरिका में होम लोन और मार्गेज लोन न चुका पाने वाले ग्राहकों की संख्या तेजी से बढ़ी, जिसमें लेहमैन ब्रदर्स, मेरी लिंच, बैंक ऑफ अमरीका जैसे दिग्गज फंस गए थे और देखते ही देखते अमेरिका के 63 बैंकों में ताले लग गए थे। जब भी वैश्विक मंदी आई भारत पर इसका असर तो पड़ा लेकिन भारतीयों की बचत के चलते देश मंदी को झेल गया। भारतीयों में बचत की आदत बहुत पुख्ता है और वह भविष्य में सुख-दुख में काम आने के लिए कुछ न कुछ पूंजी बचत के लिए रखते हैं।
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चाहे वह बैंकों में जमा धन के रूप में हो या सोने के आभूषणों के रूप में। देश की अर्थव्यवस्था की रफ्तार पिछली तिमाही के मुकाबले थोड़ा तेज जरूर दिखी। 2019-20 की तीसरी तिमाही के आंकड़ों के मुताबिक जीडीपी की दर 4.7 फीसदी रही जबकि दूसरी तिमाही की आर्थिक वृद्धि दर 4.5 प्रतिशत रही थी। कई वित्तीय एजेंसियों ने मौजूदा वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही में विकास दर घटकर 4 फीसदी रहने का अनुमान जताया था। तीसरी तिमाही में जी.डी.पी. में मामूली वृद्धि को संतोषजनक नहीं माना जा सकता क्योंकि एक वर्ष पहले जी.डी.पी. की दर सात प्रतिशत थी जबकि इसकी पिछली तिमाही में यह 5 प्रतिशत थी। मौजूदा वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही यानी जुलाई-सितम्बर तिमाही में जीडीपी ग्रोथ रेट गिरकर 4.5 प्रतिशत पर आ गई थी।
पिछले 6 वर्ष में यह भारतीय अर्थव्यवस्था की सबसे धीमी विकास दर थी। यद्यपि वित्त मंत्रालय ने आर्थिक वृद्धि में हल्की-सी तेजी को अच्छा संकेत माना है लेकिन अभी यह नहीं कहा जा सकता कि अर्थव्यवस्था की सुस्ती पूरी तरह से दूर हो गई है। रेटिंग एजेंसी मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस ने इस वित्तीय वर्ष के लिए भारत की विकास दर का अनुमान घटाकर 5.4 फीसदी कर दिया है। इसके साथ ही उसने अगले वित्तीय वर्ष के लिए भी विकास दर अनुमान 6.7 फीसदी से घटाकर 5.8 फीसदी कर दिया है।कुछ समय पहले अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी चालू वित्त वर्ष में भारत की विकास दर के अनुमान में 1.3 फीसदी की कटौती करते हुए 4.8 फीसदी कर दिया था।
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष ने चीन और कुछ दूसरी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की विकास दर में भी कटौती की थी लेकिन भारत के मामले में यह सबसे ज्यादा थी। जब भी केन्द्र सरकार के प्रदर्शन की बात होती है तो उसे सबसे ज्यादा आर्थिक मोर्चे पर घेरा जाता है। आर्थिक मंदी, बढ़ती बेरोजगारी जैसे सवालों पर उसकी आलोचना होती है। 1991 में उदारीकरण वाली आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद अर्थव्यवस्था को लेकर होने वाली बहस में काफी परिवर्तन आया। आर्थिक सुधारों के विरोध के भी तरीके बदले। पहले प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का ही पूरी तरह विरोध किया जाता था, वहां अब विरोध इस बात का होने लगा है कि विदेशी निवेश का प्रतिशत कितना होना चाहिए।
मोदी सरकार आर्थिक मामलों में करीब-करीब संरक्षणवादी रुख ले चुकी है। संरक्षणवाद का मतलब है इस तरह की नीतियां बनाना जो आयात को हतोत्साहित करें और घरेलूू उद्योग को प्रमुखता मिले। यह विचार बुरा नहीं लेकिन सवाल यह है कि घरेलू उद्योग को कितनी प्रमुखता मिल रही है। केन्द्र सरकार को दुनिया की अर्थव्यवस्था के साथ तालमेल बनाकर चलना होगा। केन्द्र सरकार को आर्थिक सुधारों को लेकर उदारवादी नीतियां अपनानी होंगी। आर्थिक मोर्चे पर स्पष्टता नजर आनी ही चाहिए। अस्पष्टता के चलते टेलीकॉम इंडस्ट्री का जो हाल हुआ है उसे हम देख ही रहे हैं।

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