तो क्या चार टुकड़ों में बंटेगा पाकिस्तान?
14 अगस्त 1947 को जब पाकिस्तान अस्तित्व में आया तब बलूचिस्तान उसके नक्शे में नहीं…
14 अगस्त 1947 को जब पाकिस्तान अस्तित्व में आया तब बलूचिस्तान उसके नक्शे में नहीं था। यह एक स्वतंत्र देश था, जिस पर कबीलों का कब्जा था। वहां के कबीलों ने एक साझे बयान में भारत में शामिल होने का मसौदा भी तैयार किया, मगर भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इसे स्वीकार नहीं किया। आखिर कलात व कुछ अन्य कबीलों ने मार्च 1948 में पाकिस्तान में शामिल होने का फैसला लिया। मगर इसे एक प्रांत का दर्जा तब भी नसीब नहीं हुआ। यह दर्जा 1970 में ही मिल पाया और उसके बाद शुरू हुआ दमन व शोषण का सिलसिला।
किसी पड़ौसी के इतनी टूूटन, बिखराव और अब चार-चार टुकड़ों में बंटने की आशंका भारत के लिए भी अनेकों नई मुसीबतें खड़ी कर सकती है। फैज, मंटो, नूरजहां और बाबा फरीद, वारिस शाह, बाबा बुलेशाह का देश अब टुकड़ों में बंटने के कगार पर है। तो क्या यह मान लिया जाए कि देर-सवेर पाकिस्तान भी चार भागों में विभाजित हो जाएगा? बलूचिस्तान में यात्री-रेल का अपहरण इसी आशंका की ओर संकेत करता है। आशंका यह भी व्यक्त की जा सकती है कि एक दशक के बाद पाकिस्तान सिर्फ पाक-पंजाब तक ही सीमित रह जाएगा।
बलूचिस्तान में बदलाव की आग का किस्सा बहुत पुराना है। यह आग दरअसल 1947-48 में ही सुलगनी आरंभ हो गई थी, जब वहां के शासकों ने भारत में विलय का एक प्रस्ताव भारत की सरकार को वर्ष 1948 में भेज दिया था। मगर हमारे तत्कालीन प्रधानमंत्री ने इसे स्वीकार नहीं किया था। इस तथ्य का खुलासा वीपी मेनन की नवीनतम कृति में विस्तार से दर्ज है।
उधर, बहावलपुर-मुल्तान में भी अलगाववाद की आग सुलगने लगी है। वहां ‘सरायकिस्तान’ को तत्काल अलग प्रांत का दर्जा देने की मांग पिछले कुछ वर्षों से जारी है। खैबर-पख्तूनवा प्रांत पहले ही अलगाव के तेवर दिखा रहा है। वहां के अनेक संगठन पख्तूनिस्तान की मांग उठा चुके हैं। सिंध कुछ हद तक नियंत्रण में है मगर वहां भी ‘जीए-सिंध’ आंदोलन अभी भी सुलग रहा है।
बलूचिस्तान में व्यापक आक्रोश अपनी सीमाएं लांघ चुका है। वहां स्कूली स्तर पर बच्चों में भी गुस्सा उबल रहा है। वैसे भी पाकिस्तान की सरकार बलूचिस्तान से बलूचों को खदेड़ने के लिए बार-बार सैन्य कार्रवाई करती रही है। इस कार्रवाई की दो बड़ी वजह हैं। पहली- बलूचिस्तान की भौगोलिक स्थिति, जो इसे दुनिया के कुछ सबसे अमीर स्थानों में खड़ा कर देती है। दरअसल, यह इलाका पाक के दक्षिण-पश्चिम में है जिसके क्षेत्रफल में ईरान और अफगानिस्तान की भी जमीनें शामिल हैं। यह 347190 वर्ग किमी में फैला है। इस हिसब से यह पाक का सबसे बड़ा प्रांत है। देश का 44 फीसदी भूभाग यहीं है जबकि इतने बड़े क्षेत्र में पाक की कुल आबादी के सिर्फ 3.6 फीसदी यानी 1.49 करोड़ लोग ही रहते हैं। दूसरी वजह यह है कि इसी जमीन के नीचे मौजूद तांबा, सोना, कोयला, यूरेनियम और अन्य खनिजों का अकूत भंडार है। इसी आधार पर यह पाक का सबसे अमीर राज्य भी है। यहां की ‘रेको दिक’ खान दुनिया की सोने और तांबे की बड़ी खदानों में से एक है। यह चगाई जिले में है, जहां 590 करोड़ टन खनिज होने का अनुमान है। इसके प्रति टन भंडार में 0.22 फीसदी सोना और 0.41 फीसदी तांबा है। इस हिसाब से इस खान में 40 करोड़ टन सोना छिपा है जिसकी अनुमानित कीमत 174.42 लाख करोड़ रुपए तक हो सकती है। इसके बावजूद यह इलाका पाकिस्तान के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है। पाकिस्तान ये बेशकीमती खदानें चीन को देकर अपनी किस्मत चमकाना चाहता है। उस पर 124.5 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज है जो उसकी जीडीपी का 42 फीसदी है।
इस एक रेल अपहरण से ढेरों अन्य तथ्य भी उजागर हुए हैं। एक तथ्य यह भी है कि समृद्ध खनिज भंडारों के बावजूद बलूचिस्तान मेें गरीबी अपने चरम पर है। कुछेक दूरदराज क्षेत्रों में तो बच्चों, बूढ़ों और औरतों को चुराकर ले जाने और उनके अंगों काे (किडनी-लिवर-आंख आदि) महंगे दामों पर अरब देशों व कुछ पाक-पंजाब के अस्पतालों में बेचे जाने की खबरें भी आई हैं। वहां की जवान औरतों के अपहरण और कुछ गांवों में सामूहिक बलात्कार व सामूहिक नरसंहार के किस्से भी चर्चा में रहे हैं।
बीएलए (बलूच लिबरेशन आर्मी) सरीखे संगठन अब इस बात पर आमादा हैं कि वे एक ‘स्वतंत्र बलूचिस्तान’ लेकर रहेंगे। यहां का प्राचीन इतिहास यहां पर अतीत में हिन्दू साम्राज्य की गवाही भी देता है। इतना तय है कि बलूय जाति का अतीत इस्लाम से सदियों पहले भी अस्तित्व में था। इनका अपना लिखित इतिहास भी है और साहित्य भी।
कमोबेश इसी तर्ज पर अलग सरायकिस्तान प्रांत की मांग भी ज़ोरों पर है। यह मांग भाषा, बोली, संस्कृति, खानपान व पहरावे को लेकर है। पाकिस्तान में इस का प्रभाव क्षेत्र मुल्तान, बहावलपुर व सिंध प्रांत और कुछ पाक-पंजाब का क्षेत्र शामिल है। बाबा फरीद, बाबा बुल्लेशाह, अब्दुल लतीफ मिताई, सचल अलमस्त, ‘गुलाम रसूल’ आदि अनेकों संत फकीर व अदीब इसी बोली के लोक आधार स्तम्भ हैं।
भारतीय क्षेत्रों में जिनमें बीकानेर, जैसलमेर, श्रीगंगानगर, राजपुरा, पटियाला, सोनीपत, पानीपत, हांसी, रोहतक, कुरुक्षेत्र व कैथल आदि शामिल हैं। कुल मिलाकर लगभग डेढ़ से दो करोड़ लोग इसी भाषा का प्रयोग करते हैं। पाकिस्तान में बहावलपुर, मुल्तान व कुछ सिंधी क्षेत्रों में इस बोली, इस भाषा पर आधारित प्रांत की मांग ज़ोरों पर है।
इस प्रदेश में भी अलग देश की मांग प्रबलता से उठाई जा रही है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भी पख्तूनों की सक्रियता का एक विशिष्ट इतिहास है। सीमांत गांधी अब्दुल खां को हमने भारत-रत्न का सम्मान भी दिया था। इस क्षेत्र का इतिहास भी ईसा से दो सदी पूर्व का है। इस प्रांत की बोली पश्तो है और इनका भी अपना संगीत, अपना साहित्य व अपनी अलग संस्कृति रही है। पाकिस्तान में इन पख्तूनों की आबादी दो करोड़ से भी ज्यादा है। इन तीनों क्षेत्रों की मुख्य शिकायत पाक-पंजाब से है। लगभग 55 प्रतिशत संसाधनों,सेना, राजनीति, न्यायपालिका व उद्योग-धंधों पर पाक-पंजाब का कब्ज़ा है। सत्ता के सभी सूत्र पाक-पंजाब के हाथों में हैं। शेष तीनों भागों को सिर्फ शोषण व दमन से बांधा जाता रहा है। विद्रोह, विरोध व अलगाव की अवधारणा,बलूचिस्तान व पख्तूनिस्तान में गहरी जड़ें जमा चुकी है। इन्हें लम्बी अवधि तक बंधक बनाए रखना पाक-पंजाब के बस में नहीं है। सारा प्रकरण भारत के लिए भी दुखद है।
एक कमज़ोर, कटा-फटा, बगावती तेवर वाला पड़ौसी भी कम खतरनाक नहीं होता। दुखद यह भी है कि हमारे अनेक पीर-फकीर भी इसी पाक-पंजाब से रहे हैं। यह बाबा नानक की भी धरती रही है और बाबा फरीद, बुल्लेशाह, फैज़, मंटो, उस्ताद दामन की धरती भी रही है। मगर यह जि़या-उल-हक, अयूब खां की भी धरती है जिन्हें इस शेयर में बयान कर सकते हैं :
तुमने खेतों में इन्सानों के सर बोए थे
अब ज़मीं खून उगलती है तो हैरत क्यों है