बातचीत से समाधान निकले
भारत में कृषि क्षेत्र के तार व्यापार-वाणिज्य से लेकर प्रशासन तक के क्षेत्र से इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि इसका व्यापक प्रभाव भारतीय जीवन शैली के हर अंग पर है। भारत की संस्कृति का यदि वैज्ञानिक अध्ययन किया जाये तो इसके सभी तीज-त्यौहार तक कृषि क्षेत्र से बन्धे हुए हैं।
01:22 AM Dec 14, 2020 IST | Aditya Chopra
भारत में कृषि क्षेत्र के तार व्यापार-वाणिज्य से लेकर प्रशासन तक के क्षेत्र से इस प्रकार जुड़े हुए हैं कि इसका व्यापक प्रभाव भारतीय जीवन शैली के हर अंग पर है। भारत की संस्कृति का यदि वैज्ञानिक अध्ययन किया जाये तो इसके सभी तीज-त्यौहार तक कृषि क्षेत्र से बन्धे हुए हैं। भारत के हर प्रदेश के त्यौहारों का कृषि क्षेत्र की उपजाऊ प्रकृति से सीधे लेना-देना है। किसान के बीज बोने से फसल कटाई तक के अवसरों के आगे-पीछे पड़ने वाले विभिन्न प्रमुख तीज त्यौहार हमें यही बताते हैं कि भारत में कृषि कोई उद्योग या धन्धा नहीं है बल्कि यह जीवन जीने का तरीका है। इस हकीकत को अंग्रेजी शासकों ने भी भली भांति समझ लिया था। अतः उन्होंने सबसे पहले इसी कृषि क्षेत्र को अपने कब्जे में लेने के प्रयास किये। इतिहास के पन्ने पढ़ें तो 1757 में बंगाल के पलाशी के मैदान में नवाब सिराजुद्दोला को छल-कपट से हराने के बाद उन्होंने कुल भू-राजस्व उगाही धनराशि में एक रुपये में एक आने की हिस्सेदारी मांगी और इस रास्ते से 80 साल बाद 1857 तक पूरे संयुक्त भारत की सत्ता अपने कब्जे में कर ली।
इस संयुक्त भारत में तब अफगानिस्तान तक शामिल था। अतः भारत की स्वतन्त्रता से पहले ही 1935 के बाद पहले प्रान्तीय एसंेबलियों के चुनाव होने पर विभिन्न राज्यों में जमींदारी उन्मूलन कानून बने और खेतों में पसीना बहाने वाले किसानों के नाम जमीनों की पट्टेदारी व मिल्कियत देने के पुख्ता इन्तजाम बांधे गये। तब बाबा साहेब अम्बेडकर ने कहा था कि सामन्ती व्यवस्था को समाप्त करने के लिए गरीबों खास कर भूमिहीन ग्रामीणों का आर्थिक सशक्तीकरण बहुत जरूरी है। आजाद भारत मंे कृषि क्षेत्र को सरकारी संरक्षण देने के दो महत्वपूर्ण कारण थे। एक तो देश की 90 प्रतिशत ग्रामीण आबादी को यह सन्देश देना था कि वह अब अंग्रेजों के बनाये गये गुलामी के कानूनों से मुक्त हो चुकी है और दूसरा यह कि कृषि क्षेत्र के सिर पर सरकारों का साया इस तरह है कि उसकी पैदा की गई फसल पर बाजार के पूंजीपतियों का कब्जा मुनाफा कमाने के लिए न हो सके। किसान की मेहनत के फल से समस्त देशवासी लाभान्वित हों और 70 प्रतिशत गरीबी की सीमा रेखा से नीचे रहने वाले लोग उसके उपजाऊ अन्न से अपने पेट की क्षुधा मिटा सकें। इसके लिए सरकार ने कृषि अनुदान देने की नीति लागू की जिससे फसल उगाही पर कम से कम खर्चा आ सके। इसका लक्ष्य गरीब जनता की पहुंच के भीतर खाद्यान्न सुलभ कराना था और अर्थव्यवस्था में मंहगाई को थामे रखना था। महंगाई का सीधा सम्बन्ध कृषि क्षेत्र से था जिससे देश की 98 प्रतिशत जनता प्रभावित होती है। यही वजह रही कि आजाद भारत में कृषि को उद्योग का दर्जा देने के विचार का चारों तरफ से विरोध हुआ।
बाजार मूलक कृषि उत्पादन और विपणन प्रणाली को बाजार मूलक शक्तियों से जोड़ने से सबसे बड़ा खतरा यही है कि आगे चल कर कृषि आय को भी आयकर के दायरे में लाने का दरवाजा खुलता है क्योंकि इस स्थिति में कृषि क्षेत्र के विकास से सरकार की जिम्मेदारी पूरी तरह समाप्त हो जायेगी और यह कार्य व्यापारी या वाणिज्य जगत करेगा। बाजार मूलक अर्थव्यवस्था इस प्रक्रिया का संज्ञान उसी प्रकार लेगी जिस प्रकार पेट्रोल व डीजल के मूल्यों ने लिया गया है मगर सबसे बड़ी दिक्कत पूंजीमूलक नियमों के लागू होने से आयेगी जो मांग व आपूर्ति के सिद्धान्त से किसी उत्पाद का मूल्य निर्धारण करती है मगर इससे भी बड़ा खतरा पूंजी की ताकत पर कृषि भूमि के मालिकान हक कब्जाने का पैदा हो जायेगा क्योंकि पूंजी कभी भी दया की याचक नहीं होती है बल्कि वह नये याचक पैदा करती है। यदि अन्न या कृषि पैदावार की भंडारण सीमा को हम हटा देते हैं तो फसल बिकने के बाद नई फसल आने तक के समय के बीच में उस उत्पाद की मूल्य वृद्धि को नहीं रोक पायेंगे क्योंकि बाजार की ताकतें माल की सप्लाई को नियन्त्रित करने का प्रयास करंेगी। अतः न्यूनतम मूल्य प्रणाली तभी कारगर होगी जबकि सरकार कृषि उपजों की खरीदारी जारी रखे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, कृषि मंत्री नरेन्द्र तोमर, गृह मंत्री अमित शाह लगातार कह रहे हैं कि एमएसपी जारी रहेगी और मंडियां भी बंद नहीं होंगी लेकिन यह कोई एेसी समस्या नहीं है जिसे आंदोलनकारी किसान और सरकार मिल-बैठ कर सुलझा न सकें क्योंकि लोकतन्त्र में जो भी सरकार जिस भी पार्टी की बनती है उसका एकमात्र लक्ष्य जनकल्याण होता है।
भारत का संविधान लोक कल्याणकारी राज की स्थापना का वचन देता है, जन कल्याण का अर्थ जन भागीदारी से ही है। प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी इसी जनकल्याण की भावना से तीन कृषि कानून लाये हैं, यदि इन पर किसानों को आपत्ति है तो वे प्रत्येक बिन्दु पर अपने वैकल्पिक प्रावधान सरकार को दे सकते हैं और उन्हें तर्कपूर्ण ढंग से कृषि विशेषज्ञों के समक्ष रख सकते हैं। तीनों कानूनों काे पहले रद्द करने की जिद पर अड़ना वार्ता के द्वारों को बन्द करने जैसा है। सरकार का भी कर्त्तव्य बनता है कि वह विवादास्पद बिन्दुओं का विशद व गहन अध्ययन करे। किसानों के आन्दोलन को हम किसी एक विशेष वर्ग के आन्दोलन के तौर देखेंगे तो गलती करेंगे क्योंकि खेत से निकला अनाज समाज के हर वर्ग व समुदाय के हर धर्म के व्यक्ति की जीवनदायी शक्ति होता है क्योंकि भारत के किसानों के बारे में एक फिल्मी गीत बहुत प्रसिद्ध हुआ थाः
वो खेत में मिलेगा, खलिहान में मिलेगा।
भगवान तो ए बन्दे इंसान में मिलेगा।।
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