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आरक्षण पर सोरेन का दांव

खनन मामले में ईडी के नोटिस, कुछ लोगों की गिरफ्तारी और झारखंड में राजनीति अस्थिरता की आशंका के बीच मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपना सबसे बड़ा दांव खेल दिया है।

01:47 AM Nov 13, 2022 IST | Aditya Chopra

खनन मामले में ईडी के नोटिस, कुछ लोगों की गिरफ्तारी और झारखंड में राजनीति अस्थिरता की आशंका के बीच मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपना सबसे बड़ा दांव खेल दिया है।

आरक्षण पर सोरेन का दांव
खनन मामले में ईडी के नोटिस, कुछ लोगों की गिरफ्तारी और झारखंड में राजनीति अस्थिरता की आशंका के बीच मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने अपना सबसे बड़ा दांव खेल दिया है। हालांकि सोरेन का मास्टर स्ट्रोक कितना काम आएगा यह अभी भविष्य के गर्भ में है। झारखंड सरकार ने राज्य में पदों और सेवाओं की नियुक्ति में आरक्षण अधिनियम 2022 को पारित कर दिया है। इसके तहत सभी श्रेणियों के लिए आरक्षण सीमा को बढ़ाया गया है। इसके तहत ओबीसी आरक्षण 14 फीसदी से बढ़ाकर 27 फीसदी कर दिया गया है। झारखंड विधानसभा के एक दिवसीय विशेष सत्र में इस विधेयक को पारित भी कर दिया गया है। झारखंड विधानसभा के एक दिवसीय विशेष सत्र में इस विधेयक के पारित होने से राज्य में अब आरक्षण का प्रतिशत 50 फीसदी से बढ़कर 77 फीसदी  हो जाएगा। देश में अब झारखंड सबसे  ज्यादा आरक्षण देने वाला राज्य होगा, दूसरे स्थान पर तमिलनाडु है, जहां 69 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है। यद्यपि सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 फीसदी तय कर रखी है लेकिन ईडब्ल्यूएस के स्वर्णों को 10 फीसदी आरक्षण बरकरार रखने के हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में तीन न्यायाधीशों ने यह भी कहा है कि आरक्षण की 50 फीसदी सीमा ऐसी नहीं है कि जिसमें परिवर्तन न किया जा सके। शीर्ष अदालत ने ईडब्ल्यूएस के लिए आरक्षण को न्यायसंगत माना है। विधेयक के अनुसार अब राज्य में अनुसूचित जाति के लिए 12, अनुसूचित जनजाति के लिए 26, अत्यंत पिछड़ा वर्ग अनुसूची-1 के लिए 15, पिछड़ा वर्ग अनुसूची-2 के लिए 12, आ​िर्थक रूप से कमजोर वर्गों के ​लिए 10 फीसदी आरक्षण का प्रावधान किया गया है। इस तरह सीधी भर्ती से राज्य  में होने वाली सरकारी नियुक्तियों में 77 फीसदी  आरक्षण का प्रावधान होगा जब​कि मैरिट से 23 फीसदी पद भरे जाएंगे। हेमंत सोरेन सरकार के इस दांव के दूरगामी प्रभाव होंगे। इस विधेयक को लागू करने के लिए केन्द्र सरकार की अनुमति जरूरी है। राज्य सरकार ने केन्द्र से अनुशंसा की है कि कानून को संविधान की नौवीं सूची में शामिल किया जाए ताकि इस बदलाव को अदालत में चुनौती न दी जा सके। इस तरह हेमंत सरकार ने गेंद केन्द्र की भाजपा सरकार के पाले में डाल दी है। 15 नवम्बर 2000 को अलग झारखंड राज्य गठन के बाद राज्य में आरक्षण का प्रतिशत फिर से तय करने के लिए 2001 में तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी की ओर से उस समय के कल्याण मंत्री अर्जुन मुंडा की अध्यक्षता में एक उपसमिति का ग​ठन किया गया था। इस उपसमिति की रिपोर्ट के आधार पर बाबूलाल मरांडी की सरकार ने कुल 73 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान किया था। वर्ष 2002 में हाई कोर्ट ने रजनीश मिश्रा बनाम राज्य सरकार और अन्य के मामले में दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए अदालत ने आरक्षण सीमा को 50 प्रतिशत तक सीमित रखने का आदेश दिया था। जिसके बाद राज्य में अनुसूचित जाति के लिए 10, अनुसूचित जनजाति के लिए 26 फीसदी और अन्य पिछड़ा वर्ग को 14 फीसदी आरक्षण (अत्यंत पिछड़ा वर्ग और पिछड़ा वर्ग को एक समेकित कोटि मानकर) देने का निर्णय लिया गया था। ओबीसी की ओर से आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग लंबे समय से की जा रही थी।
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केंद्र सरकार के लिए आरक्षण की सीमा बढ़ाने वाले बिल पर कोई फैसला लेना आसान नहीं होगा। वह सीधे तौर पर मना भी नहीं कर सकती। अनुमति देने पर ऐसे बिल की बाढ़ आ जाएगी और दूसरे राज्य भी दबाव डालने लगेंगे। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग को दिए गए आरक्षण पर सुनवाई कर रही है। कई विपक्षी राज्य जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं। ऐसे में अगर केंद्र सरकार बिना किसी होमवर्क के झारखंड में आरक्षण की नई व्यवस्था लागू करती है, तो जातिगत जनगणना का दबाव और बढ़ सकता है। यह फैसला कई मोर्चे पर केंद्र की दिक्कतें बढ़ाने वाला हो सकता है। इससे तो अन्य राज्यों में भी आरक्षण का नया पिटारा खुल जाएगा।
हेमंत सोरेन ने विधेयक पारित करवाकर राज्य की बड़ी आबादी को साधने की कोशिश की है। आदिवासी समुदाय के लिए सरकार ने पहले भी कई फैसले लिए हैं। पारित किया गया दूसरा विधेयक झारखंड में स्थानियता नीति यानि डोमिसाइल पॉलिसी से संबंधित है। इसके मुताबिक जिन व्य​िक्तयों या जिनके पूर्वजों के नाम 1932 या उसके पूर्व राज्य में हुए भूमि सर्वे के कागजात यानि खतियान में दर्ज होंगे, उन्हें ही झारखंड राज्य का स्थानीय निवासी माना जाएगा। ऐसे लोग जिनके पूर्वज 1932 या उसके पहले झारखंड में रह रहे हैं लेकिन भूमि न होने के कारण जिनके नाम 1932 के सर्वे में दर्ज नहीं होंगे, उन्हें ग्राम सभाओं की पहचान के आधार पर स्थानीय निवासी माना जाएगा और राज्य में आरक्षण का लाभ उन्हें भी मिलेगा। हेमंत सोरेन ने एक बड़ी लकीर खींचने की कोशिश की है। इन दोनों विधेयकों का कानून बनाने की जिम्मेदारी अब केन्द्र सरकार पर है। अगर वह ऐसा नहीं करती तो सोरेन भाजपा को आदिवासी और अल्पसंख्यक, पिछड़ा विरोधी करार देंगे। केन्द्र सरकार आरक्षण विधेयको माने तो मुसीबत और इंकार करें तो बवाल की आशंका  है। सोरेन पहले भाजपा पर आदिवासी मुख्यमंत्री को परेशान करने का आरोप लगा रहे हैं। अब देखना यह है कि सोरेन का दांव कितना सफल रहता है।
आदित्य नारायण चोपड़ा
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