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श्रीकृष्ण जन्म भूमि : बड़ा फैसला

अनेकानेक शताब्दियां बीती, राज और ताज तथा इतिहास बदले, ऋतु चक्रों का सिलसिला बदलता रहा किंतु भगवान श्रीकृष्ण की जन्म भूमि का महत्व बरकरार है।

12:54 AM Dec 27, 2022 IST | Aditya Chopra

अनेकानेक शताब्दियां बीती, राज और ताज तथा इतिहास बदले, ऋतु चक्रों का सिलसिला बदलता रहा किंतु भगवान श्रीकृष्ण की जन्म भूमि का महत्व बरकरार है।

अनेकानेक शताब्दियां बीती, राज और ताज तथा इतिहास बदले, ऋतु चक्रों का सिलसिला बदलता रहा किंतु भगवान श्रीकृष्ण की जन्म भूमि का महत्व बरकरार है। वैश्विक स्तर पर जनपद म​थुरा श्रीकृष्ण का जन्म स्थान ही माना जाता है। देश के करोड़ों हिंदुओं की श्रीकृष्ण में आस्था है। टाइम मशीन होती तो हम उस कालखंड की टाइमिंग सैट करते और मथुरा में मंदिर-मस्जिद विवाद की तह तक पहुच जाते। परंतु अब तक टाइम मशीन का अविष्कार नहीं हो पाया और इसका तोड़ भी हम इंसानों ने खोजा। इतिहास खोजा गया और भू-सर्वेक्षण का सहारा लिया। देश के हिंदू अयोध्या की तरह म​थुरा और काशी की विवादित भूमि को मुक्त कराने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ रहे हैं। अयोध्या में भव्य श्रीराम मंदिर निर्माण के लिए हिंदुओं ने वर्षों तक कानूनी लड़ाई लड़ी और अब उनका सपना साकार हो रहा है। 
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अब हिंदू सेना के वाद पर सिविल जज सीनियर डिवीजन तृतीय न्यायलय ने काशी की तरह श्रीकृष्ण जन्म भूमि की 13 एकड़ जमीन के सर्वे का निर्देश दिया है। कोर्ट ने कमिश्नर नियुक्त कर मस्जिद परिसर से सबूतों की जांच करने और  20 जनवरी तक अदालत में रिपोर्ट पेश करने को कहा है। हिंदुओं का दावा है कि मथुरा में औरंगजेब ने मंदिर तुड़वा कर वहां मजिस्द बनाई थी। इतिहास बताता है कि हिंदुस्तान के तख्त पर बैठने के 12 वर्ष बाद 9 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक आदेश जारी करते हुए कहा कि मूर्ति पूजा करने वालों के सारे स्थल ध्वस्त कर दिए जाएं और  उनकी धार्मिक शिक्षाओं और क्रियाकलापों को बंद कर दिया जाए। औरंगजेब की इस ध्वंसकारी प्रवृत्ति का शिकार बना सोमनाथ मंदिर, बनारस का विश्वनाथ मंदिर और मथुरा का केशवराय मंदिर। मथुरा की अदालत में 25 सितम्बर 2020 को श्रीकृष्ण विराजमान वाद दायर किया गया था। सुनवाई के बाद 30 सितम्बर को वाद खारिज हो गया था। फिर जिला जज की अदालत में अपील दायर की गई। अदालत ने इसे स्वीकार कर सुनवाई जारी रखने का फैसला किया। अब तक पांच वाद दायर किए जा चुके हैं। 
दायर वाद में कहा गया है कि श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ के नाम से एक सोसाइटी 1 मई 1958 में बनाई  गई थी। इसका नाम 1977 में बदलकर श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान कर दिया गया था। 12 अक्टूबर 1968 को श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ एवं शाही मस्जिद ईदगाह के प्रतिनिधियों में एक समझौता किया गया था। 17 अक्टूबर 1968 को यह समझौता पेश किया गया था और 22 नवंबर 1968 को सब रजिस्ट्रार मथुरा के यहां इसे रजिस्टर किया गया था। 
वाद में कहा जा रहा है कि कटरा केशव देव की सम्पूर्ण सम्पत्ति ट्रस्ट की है और  श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान को उसका मालिकाना हक नहीं दिया जा सकता। इसलिए उसके द्वारा किया गया उक्त समझौता जहां अवैध है वहीं कटरा केशव देव की सम्पत्ति पर शाही मस्जिद ईदगाह का किसी प्रकार अधिकार नहीं हो सकता इसलिए उस पर किया गया निर्माण भी अवैध है। इसी आधार पर शाही मस्जिद ईदगाह को हटाने की बात कही गई है। 
अब सबकी नजरें 20 जनवरी को होने वाली सुनवाई पर लगी हैं। भारत में हिंदू देव स्थानों के परिसरों में ही इस्लामी आक्रमणों के निशानों कोे जिस स्थायी रूप में स्थापित करने का प्रयास किया गया उससे स्पष्ट होता है कि आक्रमण​कारियों की मंशा इस देश पर अपनी विजय की छाप पक्के तौर पर छोड़ने की थी और अपने मजहब की सत्ता भारतवासियों के धर्म से ऊपर दिखाने की थी क्योंकि काशी के ज्ञानवापी क्षेत्र की वीडियोग्राफी से स्पष्ट होता है कि किस प्रकार औरंगजेब की फौज ने यहां ​स्थत आदि विश्वेश्वर शिवलिंग परिमंडल को वजूखाने में तब्दील करते हुए मंदिर की दीवारों पर ही मस्जिद की दीवारें बना दी ​थीं। वीडियोग्राफी के सबूत चीख-चीख कर कह रहे हैं कि परिक्षेत्र में पानी भरकर शिवलिंग को उसमें छुपाए रखा गया और उस पानी से वजू करके कथित मस्जिद में साढ़े तीन सौ वर्षों से नमाज पढ़ी गई। ऐसे ही मथुरा में भी कटरा केशवदेव मंदिर की भूमि के एक भाग में शाही ईदगाह का निर्माण किया गया। मगर सवाल यह है​ कि कोई भी स्वाभिमानी देश और उसके लोग यह बर्दाश्त कर सकते हैं कि उनके पूजा स्थलों में इस प्रकार बनाए गए अपमान प्रतीक स्थान उन्हें हमेशा चिढ़ाते रहें और  संदेश देते रहें कि उनके ही देश में उनकी आस्था और मान्यताओं का मर्दन स्थायी रूप में रहेगा और उन्हें यह धर्म निरपेक्षता के नाम पर सहन करना होगा। किसी भी राष्ट्र और  उसके लोगों के लिए आत्मसम्मान रोटी से भी बड़ी प्राथमिकता होती है। किसी भी राष्ट्र का आत्मसम्मान उसके उन राष्ट्रीय मानकों में बसता है जो आम लोगों की आस्था के विश्वास होते हैं। अतः मथुरा और काशी ऐसे दो विश्वास स्थल हैं जिनमें उनके सम्मान और गौरव की गाथा लिखी हुई है। भारत ही नहीं समूचे विश्व को गीता का ज्ञान देने वाले श्रीकृष्ण की जन्मभूमि का चरित्र या स्वरूप बदला जाना हर भारतीय के सम्मान पर सीधी चोट करता है। मुस्लिम समाज के कुछ कट्टरपंथी आज भी खुद को औरंगजेब की बदनुमा विरासत से जोड़े रखना चाहते हैं और  हिंदुओं को उनके हक का हिस्सा नहीं देना चाहते। इस देश में मुसलमानों का वोट हासिल करने के ​लिए हिमाकत यह हुई कि 1991 में बाबरी ढांचे के विवाद के चलते तत्कालीन नरसिम्हाराव सरकार ने यह कानून बना दिया कि 15 अगस्त 1947 तक जो धर्म स्थल जैसा था वैसा ही रहेगा, उसके चरित्र में बदलाव नहीं आएगा। सरकार की नीयत साफ थी कि वह इतिहास में हिंदुओं के साथ हुए अन्याय को स्थायी भाव देना चाहती थी। कोई भी गैरतमंद कौम कभी भी नाइंसाफी को बर्दाश्त नहीं करती। अब मथुरा में शाही ईदगाह वाली भूमि के सर्वे से दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। बेहतर होता मुस्लिम समाज यह भूमि खुद ही मंदिर प्रबंधन को सौंप देता। फिलहाल तो गंगा-जमुनी तहजीब के अलम्बदारों को जगाने के लिए शंखनाद होना ही चाहिए। अगर भारत में श्रीकृष्ण और  भगवान शंकर की भूमि मुक्त नहीं होगी तो क्या किसी अन्य देश में होगी? 
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