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श्रीलंका : लोकतंत्र की जय हो

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10:01 AM Dec 17, 2018 IST | Desk Team

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भारत के पड़ोसी देश श्रीलंका में राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरीसेना द्वारा संविधान का उल्लंघन कर नियुक्त किए गए प्रधानमंत्री महिन्दा राजपक्षे ने इस्तीफा दे दिया और नाटकीय घटनाक्रम के चलते बर्खास्त किए गए प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे के पुनः प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने से लगता है कि श्रीलंका में करीब दो माह से जारी सत्ता संघर्ष पर विराम लग सकता है। बीते अक्तूबर माह में श्रीलंका के राष्ट्रपति सि​रीसेना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे को बर्खास्त कर महिन्दा राजपक्षे को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया था। इस घटनाक्रम से 50 दिन पहले राजनीतिक संकट की शुरूआत होने के बाद देश की अर्थव्यवस्था को काफी नुक्सान पहुंचा है। श्रीलंका की सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को अपने एक फैसले में राष्ट्रपति सिरीसेना द्वारा प्रधानमंत्री को बर्खास्त करने और संसद भंग करके तय वक्त से करीब दो साल पहले चुनाव कराने के फैसले को अवैध बताया था।

श्रीलंका के राजनीतिक संकट के दौरान संसद में हंगामा भी हुआ और लोगों ने सड़क पर आकर प्रदर्शन भी किए। महिन्दा राजपक्षे का साल 2015 तक श्रीलंका की राजनीति पर वर्चस्व कायम था। उन्होंने चीन की मदद लेकर लिट्टे के खिलाफ अभियान चलाया और उसे नेस्तनाबूद कर दिया। 2009 में खत्म हुए गृहयुद्ध के दौरान उन पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप भी हैं। कौन नहीं जानता कि उनके निर्देश पर भारतीय मूल के त​िमल नागरिकों, महिलाओं और बच्चों पर बहुत जुल्म ढहाये गए और जीवित लोगों को खेतों में खड़ा कर उनकी हत्या कर शव वहीं जमीन में गाड़े गए। श्रीलंका के गृहयुद्ध में हजारों आम नागरिक मारे गए थे। राष्ट्रपति किसी समय महिन्दा राजपक्षे के सहयोगी थे और उनकी सरकार में शामिल थे। वर्ष 2015 में उन्होंने रानिल विक्रमसिंघे के साथ समझौता किया और चुनाव में राजपक्षे को मात दी। इसके बाद सिरीसेना आैर रानिल विक्रमसिंघे ने मिलकर सरकार बनाई। बाद में दोनों के रिश्ते में खटास आई और सिरीसेना ने विक्रमसिंघे को बर्खास्त कर राजपक्षे को प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया।

श्रीलंका में मचे बवंडर से चीन काफी खुश था क्योंकि राजपक्षे को चीन का एजेंट माना जाता है। लिट्टे के सफाये के बदले में राजपक्षे ने चीन को श्रीलंका में खुली छूट दी। चीन ने भी श्रीलंका में निवेश करना शुरू कर दिया आैर श्रीलंका को काफी कर्ज दिया। चीनी कर्ज और महत्वाकांक्षी पोर्ट प्रोजैक्ट के लिए राजपक्षे का जवाब हमेशा हां में रहा। हम्बनटोटा पोर्ट के निर्माण में चीन ने बड़ी मदद की। जब श्रीलंका कर्ज लौटाने में विफल रहा तो श्रीलंका को बंदरगाह चीन को सौंपना पड़ा। चीन पहले देशों को कर्ज देता है फिर उनकी जमीन हथिया लेता है। श्रीलंका में चीन का अपने ठिकाने बनाना भारत के लिए चिन्ता का विषय रहा है। चीन के कर्ज के बोझ तले पहले ही पाकिस्तान, म्यांमार, नेपाल, मालदीव और दक्षिण अफ्रीकी देश दबे पड़े हैं। चीन चाहता था कि श्रीलंका में प्रधानमंत्री उसका समर्थक हो।

जब सिरीसेना सत्ता में आए थे तो उन्होंने राजपक्षे के कार्यकाल में शुरू की गई चीन समर्थित परियोजनाओं को भ्रष्टाचार, ज्यादा महंगा और सरकारी प्रक्रियाओं के उल्लंघन का हवाला देकर रद्द कर दिया था। यह एक रहस्य है कि सिरीसेना ने उस राजपक्षे से हाथ क्यों मिलाया, जिसे वह पराजित करके सत्ता में आए थे। रानिल विक्रमसिंघे को भारत समर्थक माना जाता है। समूचे घटनाक्रम से चीन जरूर खुश हुआ होगा क्योंकि उसे उम्मीद थी कि राजपक्षे के माध्यम से वह श्रीलंका में अपने नौसैनिक अड्डे बनाने में कामयाब हो जाएगा। जिस देश में भी लोकतंत्र है, वहां जनता और सर्वोच्च न्यायालय ही सर्वोपरि होते हैं। अन्ततः श्रीलंका की सुप्रीम कोर्ट ने सिरीसेना के फैसले को अवैध ठहराया और रानिल विक्रमसिंघे के पुनः प्रधानमंत्री बनने का मार्ग प्रशस्त किया।

आरोप तो यह भी है कि महिन्दा राजपक्षे को 2014 में चुनाव जिताने के लिए चीन ने काफी पैसा खर्च किया था लेकिन राजपक्षे चुनाव हार गए। आरोप है कि चीन ने उन्हें विजयी बनाने के लिए 70.6 लाख डॉलर की रकम खर्च की। 2009 में श्रीलंका में लिट्टे का खात्मा हुआ। 26 वर्ष चले गृहयुद्ध के बाद चीन पहला देश था जो श्रीलंका के पुनर्निर्माण में खुलकर सामने आया था। श्रीलंका की जनता ने दिखा दिया कि वह अपने देश को चीन के हाथों गिरवी नहीं रख सकती। अन्ततः श्रीलंका के सर्वोच्च न्यायालय ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया। अन्ततः लोकतंत्र की जय हुई और विक्रमसिंघे फिर से प्रधानमंत्री बन गए।

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