स्टालिन का स्वायत्त प्रस्ताव
राज्यपाल से तनातनी के बीच तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने राज्य को…
राज्यपाल से तनातनी के बीच तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम.के. स्टालिन ने राज्य को स्वायत्त बनाने का प्रस्ताव पेश कर दिया है। मुख्यमंत्री ने स्वायत्तता की सिफारिश करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज कुरियन जोसेफ की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय कमेटी का गठन भी कर दिया जो अगले वर्ष के शुरू में अंतरिम रिपोर्ट राज्य सरकार को देगी और अंतिम रिपोर्ट 2028 तक सौंपने की समय सीमा तय की है। मुख्यमंत्री ने प्रस्ताव पेश करते हुए केन्द्र सरकार पर ताबड़तोड़ हमले करते हुए जबरदस्त मोर्चा खोल दिया है। उन्होंने नीट को लेकर हमला बोलते हुए कहा कि केन्द्र सरकार तमिलनाडु के छात्रों का भविष्य खराब करने पर तुली है। किसी की भी भाषाई स्वतंत्रता बहुत जरूरी है। केन्द्र सरकार नई शिक्षा नीति में त्रिभाषा नीति के जरिये तमिलनाडु के लोगों पर हिन्दी थोपना चाहती है। उन्होंने आरोप लगाया कि नई शिक्षा नीति को लागू करने से इंकार करने पर केन्द्र ने तमिलनाडु का 2500 करोड़ का फंड रोक लिया है। तमिलनाडु में अगले वर्ष विधानसभा चुनाव होने हैं। चुनावों के लिए भारतीय जनता पार्टी और राज्य में विपक्षी दल अन्नाद्रमुक के साथ चुनावी गठबंधन हो चुका है। ऐसे में द्रमुक मुख्यमंत्री ने हर मुद्दे पर केन्द्र से टक्कर ले ली है। इससे पहले स्टालिन ने वक्फ विधेयक को मुस्लिम समुदाय के धार्मिक और सम्पत्ति अधिकारों पर सीधा हमला करार दिया है।
स्टालिन ने नागरिकता संशोधन कानून काे भी मुस्लिमों और श्रीलंकाई तमिल शरणार्थियों के खिलाफ भेदभावपूर्ण बताया था। उन्होंने केन्द्र पर गैर भाजपा शासित राज्यों को वित्तीय रूप से कमजोर करने का आरोप कई बार दोहराया है। जीएसटी मुआवजे और केन्द्रीय योजनाओं में गैर भाजपा शासित राज्यों को अधिक हिस्सा दिए जाने की मांग को बुलंद किया था। उनके सुर में केरल और कर्नाटक जैसे राज्यों ने सुर मिलाया था। स्वायत्तता का अर्थ किसी व्यक्ति या समूह को अपने स्वयं के मामलों पर प्रबंधन करने के लिए पर्याप्त शक्ति और स्वतंत्रता होना है। भारत के कुछ राज्यों ने कई बार स्वायत्तता की मांग की है। राज्यों को स्वायत्तता बहुत जटिल मुद्दा रहा है। इसको लेकर तीव्र मतभेद भी हैं। स्वायत्तता की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इससे राज्यों का केन्द्र सरकार के साथ टकराव और शक्ति का संघर्ष हो सकता है। पूर्व में हम देख चुके हैं कि जम्मू-कश्मीर में फारूख अब्दुल्ला की सरकार ने राज्य को स्वायत्तता का प्रस्ताव पारित किया था जो देशद्रोह का नग्न दस्तावेज था। यद्यपि कई राजनीतिज्ञ इस बात के पक्षधर हैं कि राज्यों को अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार नीति निर्धारण में अधिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। इससे क्षेत्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप बेहतर शासन और विकास हो सकता है। एक बड़ा वर्ग राज्यों को बहुत अधिक अधिकार देने के विरुद्ध है। उनका दृष्टिकोण यह है कि केन्द्र मजबूत होना चाहिए। केन्द्र कमजोर हुआ तो इसके परिणाम विपरीत हो सकते हैं।
संघ और राज्यों के बीच संबंधों को फिर से परिभाषित करने के लिए अतीत में कई प्रयास किए गए हैं। 1969 में तमिलनाडु सरकार ने राज्यों को स्वायत्त बनाने के लिए संविधान में संशोधन का सुझाव देने के लिए एक सदस्यीय न्यायमूर्ति पीवी राजमनार समिति का गठन किया। 1971 में प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में समिति ने सुझाव दिया कि केंद्र सरकार को राज्यों को प्रभावित करने वाले कानून केवल अंतर्राज्य परिषद की सहमति से ही बनाने चाहिए। इसने आईएएस, आईपीएस और आईएफएस जैसी अखिल भारतीय सेवाओं को समाप्त करने का भी सुझाव दिया। 1983 में नियुक्त सरकारिया आयोग ने सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए कई सिफारिशें कीं। राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति के बारे में आयोग ने सिफारिश की कि प्रधानमंत्री को भारत के उपराष्ट्रपति और लोकसभा के अध्यक्ष से परामर्श करना चाहिए। वर्ष 2000 में केंद्र सरकार ने संविधान के कामकाज की समीक्षा के लिए न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया की अध्यक्षता में राष्ट्रीय आयोग की नियुक्ति की। आयोग ने राज्यों और संघ के बीच मामलों पर परामर्श के लिए अंतर्राज्यीय व्यापार और वाणिज्य आयोग नामक एक वैधानिक निकाय के गठन की सिफारिश की। इसने यह भी सुझाव दिया कि राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति केवल एक समिति द्वारा की जानी चाहिए, जिसमें अन्य लोगों के अलावा संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री भी शामिल हों। यूपीए सरकार ने 2007 में संघ और राज्य सरकारों की विभिन्न शाखाओं की भूमिका और जिम्मेदारियों का अध्ययन करने के लिए एमएन पुंछी आयोग का गठन किया था। आयोग ने सिफारिश की थी कि राज्यपालों की नियुक्ति संबंधित राज्य की विधानसभा द्वारा तैयार किए गए पैनल से की जानी चाहिए। आयोग ने जोर देकर कहा कि राज्यपालों को विश्वविद्यालयों का कुलपति नहीं बनाया जाना चाहिए।
स्वतंत्र भारत के संविधान में संघ और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का वितरण किया गया है। जिसमें संघ सूची, राज्य सूची या समवर्ती सूची के तहत कानून बनाने का बंटवारा किया गया है लेकिन कई बार समवर्ती सूची के मामले को लेकर केन्द्र और राज्य में टकराव होता रहा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्टालिन ने भावनात्मक मुद्दों को उछाल कर चुनावी दांव खेला है। स्वायत्तता के मुद्दे पर एक संतुलित दृष्टिकोण जरूरी है ताकि संघीय व्यवस्था में अवरोध न पैदा हो।