ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर सुप्रीम मुहर
आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को शिक्षा संस्थान और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण देने के नरेन्द्र मोदी सरकार के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने अपनी मुहर लगा दी।
01:35 AM Nov 08, 2022 IST | Aditya Chopra
आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को शिक्षा संस्थान और सरकारी नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण देने के नरेन्द्र मोदी सरकार के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने अपनी मुहर लगा दी। चीफ जस्टिस यूयू ललित के नेतृत्व वाली पीठ ने 3-2 के बहुमत से फैसला सुनाया और कहा कि 103वां संविधान संशोधन वैध है। आरक्षण के मसले को लेकर देश में कई वर्षों से बहस चलती आ रही है। आरक्षण को लेकर देश में कई हिंसक आंदोलन भी देखें हैं। मंडल राजनीति के दौरान युवाओं को सड़कों पर आत्मदाह करते देखा है। आरक्षण का आधार जाति न होकर आर्थिक आधार हो इस संबंध में भी जनमत तैयार करने के प्रयास किए गए। लेकिन वोट बैंक की राजनीति के चलते किसी ने गरीबों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का साहस ही नहीं किया था। 2019 में नरेन्द्र मोदी सरकार ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को 10 प्रतिशत आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया था। लगभग पांच घंटे की चर्चा के बाद विधेयक पारित किया गया जिसके समर्थन में 323 वोट पड़े जबकि विरोध में केवल तीन वाेट पड़े थे। विधेयक पारित होने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पास होना हमारे देश के इतिहास में एक ऐतिहासिक क्षण है। यह समाज के सभी तबकों को न्याय दिलाने के लिए एक प्रभावी उपाय काे प्राप्त करने में मदद करेगा। उनकी सरकार सबका साथ सबका विकास के सिद्धांत को लेकर पूरी तरह प्रतिबद्ध है उनका प्रयास है किसी भी जाति, पंथ के गरीब व्यक्ति की गरिमा से जीवन जीने और संभावित अवसरों का मौका मिले। लोकसभा में विधेयक पर हुई चर्चा के दौरान तत्कालीन वित्त मंत्री स्वर्गीय अरुण जेतली ने इस बात का उल्लेख किया था कि केन्द्र में कई सरकारें आईं और प्रयास हुए लेकिन सही तरीके से कोशिशें नहीं हुई। इसी कारण कानूनी तौर पर गरीबों को आरक्षण के प्रयास रुक गए। उन्होंने कहा था कि आर्थिक आधार पर 10 फीसदी आरक्षण के लिए पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने नोटिफिकेशन का रास्ता अपनाया लेकिन कोर्ट ने आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फीसदी तक तय कर रखी थी जिस कारण नोटिफिकेशन रद्द हुआ। अरुण जेतली ने वादा किया कि सरकार गरीबों को आरक्षण दिलाने के लिए दिल से काम करेगी। देश के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला काफी महत्वपूर्ण है, क्योंकि मोदी सरकार तमाम कानूनी मुद्दों के बावजूद अपने उद्देश्यों में सफल रही है।
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ईडब्ल्यूएस कोटा को चुनौती देते हुए एक के बाद एक 50 याचिकाएं कोर्ट में दायर की गई। इनमें से एक 2019 में जनहित अभियान की तरफ से दायर की गई थी। ईडब्ल्यूएस कोटे के खिलाफ याचिका दायर करने वालों का तर्क था कि यह सामाजिक न्याय के संवैधानिक नजरिए पर हमला है। अगर यह कोटा बना रहा तो बराबरी के मौके समाप्त हो जाएंगे।
आर्थिक आधार पर दिए जाने वाले इस आरक्षण के समर्थन में तर्क ये हैं कि इससे राज्य सरकारों को आर्थिक आधार पर आरक्षण देने का अधिकार मिलेगा। आर्थिक आधार परिवार के मालिकाना हक़ वाली ज़मीन, सालाना आय या अन्य हो सकते हैं। तत्कालीन यूपीए सरकार ने मार्च 2005 में मेजर जनरल रिटायर्ड एस.आर. सिन्हा आयोग का गठन किया था जिसने साल 2010 में अपनी रिपोर्ट पेश की थी। इसी रिपोर्ट के आधार पर ईडब्ल्यूएस आरक्षण दिया गया है। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि सामान्य वर्ग के ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले सभी परिवारों और ऐसे परिवारों जिनकी सभी स्रोतों से सालाना आय आयकर की सीमा से कम होती है, उन्हें आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग माना जाए। सुप्रीम कोर्ट ने मंडल आयोग मामले में आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फ़ीसदी तय कर दी थी। ईडब्ल्यूएस को चुनौती देने वालों का तर्क है कि इस कोटे से 50 फ़ीसदी की सीमा का भी उल्लंघन हो रहा है।
सुप्रीम कोर्ट से सुनवाई के दौरान तीखी बहस हुई। इस दौरान संविधान जाति और सामाजिक न्याय जैसे शब्दों का जिक्र हुआ। वकीलों की जोरदार दलीलों और न्यायाधीशों की सख्त टिप्पणियों के बीच कोर्ट के सामने यह तीन सवाल उठे जिन पर फैसला दिया जाना था। यह तीन सवाल इस तरह के थे।
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-क्या ईडब्ल्यूएस आरक्षण देने के लिए किया गया संविधान संशोधन संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।
-एसी/एसटी वर्ग के सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को ईडब्ल्यूएस आरक्षण से बाहर रखना क्या संविधान के बेसिक ढांचे के खिलाफ है।
-राज्य सरकारों को निजी संस्थानों में एडमिशन के लिए ईडब्ल्यूएस कोटा को तय करने का अधिकार मिलना क्या संविधान के खिलाफ है?
सुप्रीम कोर्ट के तीन न्यायाधीशों ने जस्टिस दिनेश माहेश्वरी, जस्टिस बेला त्रिवेदी और जस्टिस जे.बी. पारदीवाला ने पक्ष में फैसला सुनाया। जबकि चीफ जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस रविन्द्र भट्ट ने खिलाफ फैसला सुनाया। तीन न्यायाधीशों ने इस बात पर सहमति जताई कि केवल आर्थिक आधार पर दिए जाने वाला समर्थन संविधान के मूल ढांचे और समानता के अधिकार का उल्लंघन नहीं है। उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि 50 फीसदी आरक्षण की सीमा अपरिर्वतनशील नहीं है। इस आरक्षण को आर्थिक रूप से कमजोर तबके को मदद पहुंचाने के तौर पर देखा जाना चाहिए। इसे अनुचित नहीं कहा जा सकता। यद्यपि दो न्यायाधीशों ने आर्थिक आधार पर आरक्षण को गलत बताया। हालांकि सरकार ने कोर्ट में इस बात पर जोर दिया कि उसने 50 फीसदी के आरक्षण के बैरियर को नहीं तोड़ा है। दाखिलों के लिए सीटें बढ़ाई गई हैं, ताकि कोई प्रभावित न हो। सुप्रीम कोर्ट का फैसला देश के लिए मील का पत्थर साबित होगा क्योंकि गरीबों को आरक्षण दिए जाने के मार्ग में सभी बाधाएं समाप्त हो गई हैं। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से मोदी सरकार की नीतिगत विचारधारा को ताकत मिली है। गुजरात और हिमाचल विधानसभा चुनावों से पहले गरीबों के आरक्षण को वैध ठहराए जाने से भारतीय जनता पार्टी की उपलब्धियों में एक और बड़ी उपलब्धि जुड़ गई है।