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सू की को फिर सजा

मानव इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जब अधिक शक्तिशाली समूहों ने अपने ही देश के लोगों को गुलाम बनाया, उनका शोषण किया, लेकिन इतिहास में अपने वर्चस्व के खिलाफ शानदार संघर्षों के प्रेरणादायी उदाहरण भी मिलते रहे हैं।

01:05 AM Jan 01, 2023 IST | Aditya Chopra

मानव इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जब अधिक शक्तिशाली समूहों ने अपने ही देश के लोगों को गुलाम बनाया, उनका शोषण किया, लेकिन इतिहास में अपने वर्चस्व के खिलाफ शानदार संघर्षों के प्रेरणादायी उदाहरण भी मिलते रहे हैं।

मानव इतिहास में ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जब अधिक शक्तिशाली समूहों ने अपने ही देश के लोगों को गुलाम बनाया, उनका शोषण किया, लेकिन इतिहास में अपने वर्चस्व के खिलाफ शानदार संघर्षों के प्रेरणादायी उदाहरण भी मिलते रहे हैं। जबरदस्त आंदोलनों के बाद बड़े-बड़े तानाशाहों को सिंहासन छोड़कर भागना पड़ा, लेकिन कभी-कभी जन आंदोलनों के परिणाम अच्छे नहीं रहे। इसका सबसे बड़ा कारण जनक्रांति के बाद सामने आए नेतृत्व की कमजोरियां ही रहीं। म्यांमार में भी ऐसा ही हुआ। म्यांमार की अदालत ने भ्रष्टाचार के आरोप में अपदस्थ नेता आंग सान सू की को सात साल की जेल की सजा सुनाई है। नोबल पुरस्कार विजेता सू की को हेलीकाप्टर किराए पर लेने और उसका रखरखाव से संबंधित भ्रष्टाचार के पांच मामलों में जेल में डाल दिया था। कुल मिलाकर उन्हें 33 वर्ष जेल में बिताने होंगे। उन्हें कई अन्य अपराधों के लिए भी पहले ही 26 साल की सजा सुनाई जा चुकी है। सात साल की सजा सुनाए जाने के बाद उनकी पार्टी नैशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी पार्टी का अस्तित्व ही खतरे में आ गया है। यह विडम्बना ही रही कि सू की को म्यांमार में दशकों तक सैन्य शासन के खिलाफ अपने लम्बे संघर्ष के दौरान 15 वर्षों से भी ज्यादा जेल काटनी पड़ी थी और आज भी वह जेल में ही अपना जीवन बिता रही हैं।
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आंग सान सू की ने जिस तरह म्यांमार में लोकतंत्र की लड़ाई लड़ी वह दुनिया के सामने एक मिसाल बनकर सामने आईं। उन्हें सन् 1991 में शांति का नोबल पुरस्कार भी मिला। वह बीते कई दशकों से म्यांमार में सैन्य शासन के खिलाफ संघर्ष करती रही हैं। उनके पिता को फादर ऑफ द नेशन कहा जाता था। उन्होंने भी सन् 1947 में ब्रिटेन से बर्मा की आजादी की मांग की थी। उसी साल उनकी हत्या कर दी गई थी। आंग सान सू की को उनकी मां ने पाला है। सू की ने सन् 1964 में दिल्ली यूनिवर्सिटी से ही ग्रेजुएशन की थी। इसके बाद वह ऑक्सफोर्ड पढ़ने चली गईं। उन्होंने 3 साल तक यूनाइटेड नेशंस के लिए भी काम किया। उनके दो बच्चे हैं।
सन् 2015 में आंग सान सू की के प्रयासों से ही म्यांमार में 25 साल में पहली बार चुनाव हुए थे। आंग सान सू की पार्टी नैशनल लीग फॉर डेमोक्रेसी ने जीत हासिल कर सत्ता सम्भाली। लोकतांत्रिक संकट की शुरूआत 2020 में हुई जब सू की की पार्टी ने जबरदस्त जीत हासिल की। म्यांमार में पिछले कई दशकों से चले आ रहे तानाशाही शासन के चलते वहां की सेना एक राजनीतिक ताकत बनी रही लेकिन आम चुनावों में उसके राजनीतिक समर्थकों का सफाया हो गया, क्योंकि म्यांमार की सेना के हाथ से ताकत लगातार फिसलती जा रही थी तो सैन्य बलों ने दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ लिया और अपनी सत्ता बचाने के​ लिए कदम उठाने का फैसला किया। कहते हैं कि सेना को अगर सत्ता का मोह लग जाए तो वह जनता के खून की प्यासी हो जाती है। म्यांमार में भी कुछ ऐसा ही हुआ। सेना ने कमांडर मिन आंग हलाइंग के नेतृत्व में सू की सरकार का तख्ता पलट दिया। चुनाव में धांधली के अस्पष्ट आरोप लगाते हुए प्रमुख नेताओं को नजरबंद कर दिया गया। वहीं लोकतंत्र समर्थक हजारों प्रदर्शनकारी या तो मारे गए या फिर सेना के दमन में घायल हुए। बाद में आंग सान सू की पर भ्रष्टाचार समेत कई राजनीतिक आरोप लगाते हुए उन्हें फिर से जेल में डाल दिया गया। इसमें कोई संदेह नहीं कि म्यांमार में रोहिंग्या लोगों पर काफी अत्याचार हुए। 
भारत में भी रोहिंग्या लोगों ने आकर शरण मांगी। इस मुद्दे पर भारत और म्यांमार के बीच मतभेद भी रहे लेकिन आंग सान सू की ने खामोशी धारण किए रखी। म्यांमार के तख्तापलट के बाद अन्तर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया काफी सख्त रही थी। अमेरिका और यूरोपीय संघ ने म्यांमार पर आर्थिक प्रतिबंध भी लगा दिए थे। अब जबकि म्यांमार के सैन्य शासन ने अगले साल चुनाव कराने का फैसला लिया है। इसलिए सू की को चुनाव से पहले राजनीति से दूर करने और अपने सैन्य शासन को वैध बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं। म्यांमार के साथ भारत का इतिहास काफी जटिल रहा है। पूर्वोत्तर क्षेत्रों में विद्रोही संगठनों को दबाने के लिए म्यांमार के सैन्य बलों के साथ भारत के करीबी सुरक्षा संबंध रहे हैं। पूर्वोत्तर की जटिल जा​तीय बनावट और सीमा के आर पार के आतंकवाद से निपटने के लिए भारत और म्यांमार को एक-दूसरे के लिए जरूरी दोस्त बना दिया।
वर्ष 1988 में म्यांमार की सेना द्वारा अपने नागरिकों पर की गई ​हिंसक कार्रवाई की भारत ने कड़ी आलोचना की थी। इसके चलते म्यांमार की सेना ने भारत के साथ रिश्तों को ठंडे बस्ते में डाल दिया था। इस दौरान चीन ने भी म्यांमार पर डोरे डालने शुरू किए और वहां अपनी मौजूदगी कायम कर ली। भारत एशिया में चीन के व्यापक प्रभाव को कम करने की कोशिश कर रहा है। जहां तक सू की की सजा का सवाल है भारत हमेशा लोकतंत्र के समर्थन में खड़ा है। भारत के हित इसी में हैं कि वह समान विचारधारा वाले अन्य देशों के साथ सहयोग करके म्यांमार की सेना के रवैये में बदलाव लाए। म्यांमार में लोकतंत्र के लिए वहां की जनता को भी एक बार फिर संघर्ष करना होगा। भारत ने हमेशा म्यांमार के राजनीतिक समाधान की मांग पर जोर दिया है, ताकि लोकतांत्रिक प्रक्रिया फिर से शुरू हो। अब देखना यह है कि अगले वर्ष होने वाले चुनाव में स्थितियां क्या मोड़ लेती हैं?
आदित्य नारायण चोपड़ा
Adityachopra@punjabkesari.com
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